Sunday, February 18, 2018

भारत के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर

भारत के प्रसिद्ध  हनुमान मंदिर :


                  भारत के  विभिन्न हिस्सों में स्थित *प्रसिद्ध हनुमानजी* मंदिर है। इनमे से हर मंदिर की अपनी एक विशेषता है कोई मंदीर अपनी प्राचीनता की लिये प्रसिद्ध है तो कोई मंदीर अपनी भव्यता के लिए।

              जबकि कई मंदिर अपनी अनोखी हनुमान मूर्त्तियों के लिए जैसे की "इलाहबाद" का हनुमान मंदीर जहां की भारत की एक मात्र लेटे हुए हनूमान जी की प्रतिमा है। जबकि इंदौर के उलटे हनुमान मंदिर में भारत कि एक मात्र उलटे हनुमान कि प्रतिमा हैं।
रामनगर में विश्व का पहला ऐसा हनुमान मंदिर है जिसमें हनुमान जी के नौ स्वरूप और 12 दिलाओ के एक साथ दर्शन है 
इसी तरह रतनपुर के गिरिजाबंध हनुमान मंदिर में स्त्री रुप में हनुमान प्रतिमा है। इन सबसे अलग गुजरात के जामनगर के बाल हनूमान मंदीर का नाम एक अनोखे रिकॉर्ड क़े कारण "गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड" में दर्ज है।
👐⛳हनुमान धाम रामनगर नैनीताल (उत्तराखंड)       
                जिम कॉर्बेट पार्क, रामनगर से 6 किलोमीटर दूर नैनीताल रोड पर छुई गांव में 8 एकड़ जमीन पर एक ऐसा भव्य हनुमान धाम का नवनिर्माण हुआ है जिसमें हनुमान जी के सभी नौ स्वरूप और 12 लीलाओं के एक साथ दर्शन हैं उत्तराखंड की जमीन पर इस भव्य हनुमान धाम का जब से निर्माण हुआ है लाखों हनुमान जी के भक्तों ने इसके दर्शन करे हैं तथा इस मंदिर के मुख्य मूर्ति पर एक प्रार्थना के रूप में सभी भक्त अपनी अर्जी लगाते हैं और भक्तों का ऐसा मानना है कि उनकी अर्जी यहां पर पूरी होती है तथा उनके द्वारा मांगी गई सभी इच्छाएं हनुमान जी के द्वारा पूरी करी जाती है ऐसा इन पहाड़ों में यहां के लोगों में मान्यता है कि यह वह जमीन है जहां पर हनुमान जी ने विश्राम किया था यह वह स्थान है जहां पर लव और कुश के साथ सीता जी निवास करती थी
*🚩 हनुमान मंदिर...* *इलाहाबाद – (उत्तर प्रदेश):*

इलाहाबाद किले से सटा यह मंदिर लेटे हुए हनुमान जी की प्रतिमा वाला एक छोटा किन्तु प्राचीन मंदिर है। यह सम्पूर्ण भारत का केवल एकमात्र मंदिर है जिसमें हनुमान जी लेटी हुई मुद्रा में हैं। यहां पर स्थापित हनुमान जी की प्रतिमा *२० फीट* लम्बी है। जब वर्षा के दिनों में बाढ़ आती है और यह सारा स्थान जलमग्न हो जाता है, तब हनुमानजी की इस मूर्ति को कहीं ओर ले जाकर सुरक्षित रखा जाता है। उपयुक्त समय आने पर इस प्रतिमा को पुन: यहीं लाया जाता है।

*🚩 हनुमानगढ़ी मंदिर...**अयोध्या – (उत्तर प्रदेश):*

धर्म ग्रंथों के अनुसार अयोध्या भगवान श्रीराम की जन्मस्थली है। यहां का सबसे प्रमुख श्रीहनुमान मंदिर हनुमानगढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर राजद्वार के सामने ऊंचे टीले पर स्थित है। इसमें "६०" सीढिय़ां चढऩे के बाद श्री हनुमान जी का मंदिर आता है। यह मंदिर काफी बड़ा है। मंदिर के चारों ओर निवास योग्य स्थान बने हैं, जिनमें साधु-संत रहते हैं। हनुमानगढ़ी के दक्षिण में सुग्रीव टीला व अंगद टीला नामक स्थान हैं। इस मंदिर की स्थापना लगभग "३००" साल पहले स्वामी अभया रामदास जी ने की थी।

*🚩 सालासर बालाजी हनुमान मंदिर...**सालासर (राजस्थान):*

हनुमानजी का यह मंदिर राजस्थान के चूरू जिले में है। गांव का नाम सालासर है, इसलिए सालासर वाले बालाजी के नाम यह मंदिर प्रसिद्ध है। हनुमानजी की यह प्रतिमा दाड़ी व मूंछ से सुशोभित है। यह मंदिर पर्याप्त बड़ा है। चारों ओर यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनी हुई हैं। दूर-दूर से श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं और मनचाहा वरदान पाते हैं। इस मंदिर के संस्थापक श्री मोहनदासजी बचपन से श्री हनुमान जी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। माना जाता है कि हनुमान जी की यह प्रतिमा एक किसान को जमीन जोतते समय मिली थी, जिसे सालासर में सोने के सिंहासन पर स्थापित किया गया है। यहाँ हर साल "भाद्रपद, आश्विन, चैत्र एवं वैशाख की पूर्णिमा" के दिन विशाल मेला लगता है।

*🚩 हनुमान धारा मंदिर...**चित्रकूट – (उत्तर प्रदेश):*

उत्तर प्रदेश के सीतापुर नामक स्थान के समीप यह हनुमान मंदिर स्थापित है। सीतापुर से हनुमान धारा की दूरी तीन मील है। यह स्थान पर्वतमाला के मध्यभाग में स्थित है। पहाड़ के सहारे हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति के ठीक सिर पर दो जल के कुंड हैं, जो हमेशा जल से भरे रहते हैं और उनमें से निरंतर पानी बहता रहता है। इस धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है।इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं।धारा का जल पहाड़ में ही विलीन हो जाता है। उसे लोग प्रभाती नदी या पातालगंगा कहते हैं। इस स्थान के बारे में एक कथा इस प्रकार प्रसिद्ध है -
              *श्री राम* के अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद एक दिन हनुमानजी ने भगवान *श्रीरामचंद्र* से कहा- हे भगवन। मुझे कोई ऐसा स्थान बतलाइए, जहां लंका दहन से उत्पन्न मेरे शरीर का ताप मिट सके। तब भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को यह स्थान बताया।

*🚩 श्री संकटमोचन मंदिर...**वाराणसी – (उत्तर प्रदेश):*

यह मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में स्थित है। इस मंदिर के चारों ओर एक छोटा सा वन है। यहां का वातावरण एकांत, शांत एवं उपासकों के लिए दिव्य साधना स्थली के योग्य है। मंदिर के प्रांगण में श्री हनुमानजी की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। श्री संकटमोचन हनुमान मंदिर के समीप ही भगवान श्रीनृसिंह का मंदिर भी स्थापित है। ऐसी मान्यता है कि हनुमानजी की यह मूर्ति गोस्वामी तुलसीदासजी के तप एवं पुण्य से प्रकट हुई स्वयंभू मूर्ति है।इस मूर्ति में हनुमानजी दाएं हाथ में भक्तों को अभयदान कर रहे हैं एवं बायां हाथ उनके ह्रदय पर स्थित है। प्रत्येक कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमानजी की सूर्योदय के समय विशेष आरती एवं पूजन समारोह होता है। उसी प्रकार चैत्र पूर्णिमा के दिन यहां "श्री हनुमान जयंती" महोत्सव होता है। इस अवसर पर श्रीहनुमानजी की बैठक की झांकी होती है और चार दिन तक रामायण सम्मेलन महोत्सव एवं संगीत सम्मेलन होता है।

*🚩 हनुमान दंडी मंदिर...**बेट द्वारका – (गुजरात):*

बेट द्वारका से चार मील की दूरी पर मकर ध्वज के साथ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। कहते हैं कि पहले मकरध्वज की मूर्ति छोटी थी परंतु अब दोनों मूर्तियां एक सी ऊंची हो गई हैं। अहिरावण ने भगवान *श्री राम लक्ष्मण* को इसी स्थान पर छिपा कर रखा था।
               जब हनुमानजी *श्री राम - लक्ष्मण* को लेने के लिए आए, तब उनका मकरध्वज के साथ घोर युद्ध हुआ। अंत में हनुमानजी ने उसे परास्त कर उसी की पूंछ से उसे बांध दिया। उनकी स्मृति में यह मूर्ति स्थापित है। कुछ धर्म ग्रंथों में मकरध्वज को हनुमानजी का पुत्र बताया गया है, जिसका जन्म हनुमानजी के पसीने द्वारा एक मछली से हुआ था।

*🚩 मेहंदीपुर बालाजी मंदिर...* *मेहंदीपुर – (राजस्थान):*

राजस्थान के दौसा जिले के पास दो पहाडिय़ों के बीच बसा हुआ मेहंदीपुर नामक स्थान है। यह मंदिर जयपुर-बांदीकुई-बस मार्ग पर जयपुर से लगभग ६५ किलोमीटर दूर है। दो पहाडिय़ों के बीच की घाटी में स्थित होने के कारण इसे घाटा मेहंदीपुर भी कहते हैं। जनश्रुति है कि यह मंदिर करीब १ हजार साल पुराना है। यहां पर एक बहुत विशाल चट्टान में हनुमान जी की आकृति स्वयं ही उभर आई थी। इसे ही श्री हनुमान जी का स्वरूप माना जाता है।
इनके चरणों में छोटी सी कुण्डी है, जिसका जल कभी समाप्त नहीं होता। यह मंदिर तथा यहाँ के हनुमान जी का विग्रह काफी शक्तिशाली एवं चमत्कारिक माना जाता है तथा इसी वजह से यह स्थान न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में विख्यात है। कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य में इस मंदिर को तोडऩे के अनेक प्रयास हुए परंतु चमत्कारी रूप से यह मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां ऊपरी बाधाओं के निवारण के लिए आने वालों का तांता लगा रहता है। मंदिर की सीमा में प्रवेश करते ही ऊपरी हवा से पीडि़त व्यक्ति स्वयं ही झूमने लगते हैं और लोहे की सांकलों से स्वयं को ही मारने लगते हैं। मार से तंग आकर भूत प्रेतादि स्वत: ही बालाजी के चरणों में आत्मसमर्पण कर देते हैं।

*🚩 डुल्या मारुति मंदिर...* *पूना – (महाराष्ट्र):*

पूना के गणेशपेठ में स्थित यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। श्रीडुल्या मारुति का मंदिर संभवत: ३५० वर्ष पुराना है। संपूर्ण मंदिर पत्थर का बना हुआ है, यह बहुत आकर्षक और भव्य है। मूल रूप से डुल्या मारुति की मूर्ति एक काले पत्थर पर अंकित की गई है। यह मूर्ति पांच फुट ऊंची तथा ढाई से तीन फुट चौड़ी अत्यंत भव्य एवं पश्चिम मुख है। हनुमानजी की इस मूर्ति की दाईं ओर *श्री गणेश* भगवान की एक छोटी सी मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति की स्थापना *श्रीसमर्थ रामदास स्वामी* ने की थी, ऐसी मान्यता है। सभा मंडप में द्वार के ठीक सामने छत से टंगा एक पीतल का घंटा है, इसके ऊपर शक संवत् १७०० अंकित है।

*🚩 श्री कष्टभंजन हनुमान मंदिर...* *सारंगपुर – (गुजरात):*

हमदाबाद-भावनगर रेलवे लाइन पर स्थित बोटाद जंक्शन से सारंगपुर लगभग १२ मील दूर है। यहां एक प्रसिद्ध मारुति प्रतिमा है। महायोगिराज गोपालानंद स्वामी ने इस शिला मूर्ति की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १९०५ आश्विन कृष्ण पंचमी के दिन की थी। जनश्रुति है कि प्रतिष्ठा के समय मूर्ति में श्री हनुमान जी का आवेश हुआ और यह हिलने लगी। तभी से इस मंदिर को कष्टभंजन हनुमान मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर स्वामीनारायण सम्प्रदाय का एकमात्र हनुमान मंदिर है।

*🚩 यंत्रोद्धारक हनुमान मंदिर...**हंपी – (कर्नाटक):*

बेल्लारी जिले के हंपी नामक नगर में एक हनुमान मंदिर स्थापित है। इस मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमानजी को यंत्रोद्धारक हनुमान कहा जाता है। विद्वानों के मतानुसार यही क्षेत्र प्राचीन किष्किंधा नगरी है। वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस में इस स्थान का वर्णन मिलता है। संभवतया इसी स्थान पर किसी समय वानरों का विशाल साम्राज्य स्थापित था। आज भी यहां अनेक गुफाएं हैं। इस मंदिर में श्रीराम नवमी के दिन से लेकर तीन दिन तक विशाल उत्सव मनाया जाता है।

*🚩 गिरजाबंध हनुमान मंदिर...* *रतनपुर – (छत्तीसगढ़):*

बिलासपुर से २५ कि. मी. दूर एक स्थान है रतनपुर। इसे महामाया नगरी भी कहते हैं। यह देवस्थान पूरे भारत में सबसे अलग है। इसकी मुख्य वजह मां महामाया देवी और गिरजाबंध में स्थित हनुमानजी का मंदिर है। खास बात यह है कि विश्व में हनुमान जी का यह अकेला ऐसा मंदिर है जहां हनुमान नारी स्वरूप में हैं। इस दरबार से कोई निराश नहीं लौटता। भक्तों की मनोकामना अवश्य पूरी होती है।

*🚩 उलटे हनुमान का मंदिर...**साँवरे, इंदौर – (मध्यप्रदेश):*

भारत की धार्मिक नगरी उज्जैन से केवल ३० किमी दूर स्थित है यह धार्मिक स्थान जहाँ भगवान हनुमान जी की उल्टे रूप में पूजा की जाती है। यह मंदिर साँवरे नामक स्थान पर स्थापित है इस मंदिर को कई लोग रामायण काल के समय का बताते हैं। मंदिर में भगवान हनुमान की उलटे मुख वाली सिंदूर से सजी मूर्ति विराजमान है। सांवेर का हनुमान मंदिर हनुमान भक्तों का महत्वपूर्ण स्थान है यहाँ आकर भक्त भगवान के अटूट भक्ति में लीन होकर सभी चिंताओं से मुक्त हो जाते हैं। यह स्थान ऐसे भक्त का रूप है जो भक्त से भक्ति योग्य हो गया।

*उलटे हनुमान कथा :—*🚩
भगवान हनुमान के सभी मंदिरों में से अलग यह मंदिर अपनी विशेषता के कारण ही सभी का ध्यान अपनी ओर खींचता है। साँवेर के हनुमान जी के विषय में एक कथा बहुत लोकप्रिय है। कहा जाता है कि जब रामायण काल में भगवान *श्री राम* व रावण का युद्ध हो रहा था, तब अहिरावण ने एक चाल चली. उसने रूप बदल कर अपने को राम की सेना में शामिल कर लिया और जब रात्रि समय सभी लोग सो रहे थे,तब अहिरावण ने अपनी जादुई शक्ति से *श्री राम एवं लक्ष्मण जी* को मूर्छित कर उनका अपहरण कर लिया। वह उन्हें अपने साथ पाताल लोक में ले जाता है। जब वानर सेना को इस बात का पता चलता है तो चारों ओर हडकंप मच जाता है। सभी इस बात से विचलित हो जाते हैं। इस पर हनुमान जी भगवान *श्री राम व लक्ष्मण जी* की खोज में पाताल लोक पहुँच जाते हैं और वहां पर अहिरावण से युद्ध करके उसका वध कर देते हैं तथा *श्री राम एवं लक्ष्मण जी* के प्राँणों की रक्षा करते हैं। उन्हें पाताल से निकाल कर सुरक्षित बाहर ले आते हैं। मान्यता है की यही वह स्थान था जहाँ से हनुमान जी पाताल लोक की और गए थे। उस समय हनुमान जी के पाँव आकाश की ओर तथा सर धरती की ओर था जिस कारण उनके उल्टे रूप की पूजा की जाती है।

*🚩 प्राचीन हनुमान मंदिर...**कनॉट प्लेस – (नई दिल्ली):*

यहां महाभारत कालीन श्री हनुमान जी का एक प्राचीन मंदिर है। यहाँ पर उपस्थित हनुमान जी स्वंयम्भू हैं। बालचन्द्र अंकित शिखर वाला यह मंदिर आस्था का महान केंद्र है। दिल्ली का ऐतिहासिक नाम इंद्रप्रस्थ शहर है, जो यमुना नदी के तट पर पांडवों द्वारा महाभारत-काल में बसाया गया था। तब पांडव इंद्रप्रस्थ पर और कौरव हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। ये दोनों ही कुरु वंश से निकले थे। हिन्दू मान्यता के अनुसार पांडवों में द्वितीय भीम को हनुमान जी का भाई माना जाता है। दोनों ही वायु-पुत्र कहे जाते हैं। इंद्रप्रस्थ की स्थापना के समय पांडवों ने इस शहर में पांच हनुमान मंदिरों की स्थापना की थी। ये मंदिर उन्हीं पांच में से एक है।

*🚩 श्री बाल हनुमान मंदिर, *जामनगर – (गुजरात):*

सन् १५४० में जामनगर की स्थापना के साथ ही स्थापित यह हनुमान मंदिर, गुजरात के गौरव का प्रतीक है। यहाँ पर सन् १९६४ से “श्री राम धुनी” का जाप लगातार चलता आ रहा है, जिस कारण इस मंदिर का नाम गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया है।

*🚩 महावीर हनुमान मंदिर...* *पटना, (बिहार):*

पटना जंक्शन के ठीक सामने महावीर मंदिर के नाम से श्री हनुमान जी का मंदिर है। उत्तर भारत में माँ वैष्णों देवी मंदिर के बाद यहाँ ही सबसे ज्यादा चढ़ावा आता है। इस मंदिर के अन्तर्गत महावीर कैंसर संस्थान, महावीर वात्सल्य हॉस्पिटल, महावीर आरोग्य हॉस्पिटल तथा अन्य बहुत से अनाथालय एवं अस्पताल चल रहे हैं। यहाँ श्री हनुमान जी संकटमोचन रूप में विराजमान हैं।

*🚩 श्री पंचमुख आंजनेयर हनुमान...**( तमिलनाडू):*

तमिलनाडू के कुम्बकोनम नामक स्थान पर श्री पंचमुखी आंजनेयर स्वामी जी (श्री हनुमान जी) का बहुत ही मनभावन मठ है। यहाँ पर श्री हनुमान जी की “पंचमुख रूप” में विग्रह स्थापित है, जो अत्यंत भव्य एवं दर्शनीय है।
यहाँ पर प्रचलित कथाओं के अनुसार जब अहिरावण तथा उसके भाई महिरावण ने *श्री राम जी* को लक्ष्मण सहित अगवा कर लिया था, तब *प्रभु श्री राम* को ढूँढ़ने के लिए हनुमान जी ने पंचमुख रूप धारण कर इसी स्थान से अपनी खोज प्रारम्भ की थी। और फिर इसी रूप में उन्होंने उन अहिरावण और महिरावण का वध भी किया था। यहाँ पर हनुमान जी के पंचमुख रूप के दर्शन करने से मनुष्य सारे दुस्तर संकटों एवं बंधनों से मुक्त हो जाता है

गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज


गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज


उत्तरायण प्रकाश है दक्षिणायन अंधकार।

शुक्लपक्ष प्रकाश है कृष्णपक्ष अंधकार।।

उत्तरायण प्रकाशकाल है तो दक्षिणायन अंधकारकाल है। इन दोनों प्रकार के मार्गों को जीवन पर लाकर तोलते समय ध्यान देना चाहिए कि शुक्ल पक्ष और उत्तरायण काल का अर्थ प्रकाशमान से है। अत: जिसका जीवन शुभ कार्मों से प्रकाशमान है-वह लौटकर नहीं आता। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन काल अंधकार के प्रतीक हैं। अत: जिसके जीवन में अशुभ कार्यों का प्राबल्य रहा- वह संसार से जाता है तो लौटकर भी आता है। इस रहस्य को समझने की आवश्यकता है। सत्यार्थ स्वयं ही समझ आ जाएगा, साथ ही हमारे ऋषियों का विज्ञानवाद भी स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा। आज के संसार को भारत के इस विज्ञान को भी समझने की आवश्यकता है, जिससे कि अशुभ कर्मों से लोगों की अप्रीति और शुभ कर्मों में उनकी प्रीति बढ़े और यह संसार पुन: स्वर्ग बन सके। संसार को नरक बनाना ही कृष्ण पक्ष है और इसे स्वर्ग बनाना ही शुक्ल पक्ष है।

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,


श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि जो योगी जीवन और संसार के इन दोनों मार्गों के रहस्य को और वास्तविकता को जान जाता है -वह कभी भी मोह या भ्रम में नहीं पड़ता। इसीलिए वह संसार के कल्याण के लिए और संसार के लोगों को भारत की सनातन योग परम्परा के साथ जुड़े रहने की प्रेरणा देते हुए अर्जुन से कह रहे हैं कि तू सब कालों में योग से जुड़ा रह और योग में जुटा रह। ईश्वर के प्रति ऐसा समर्पण अथवा भक्तियोग ही जीवन नैया को पार लगाएगा। यह सब जान लेने पर वेदों के अध्यापन से, यज्ञों को करने से, तपों की तपने से, दानों को देने से, जो पुण्य फल प्राप्त होने की बात कही जाती है-योगी उस सबको पार कर जाता है और सबसे पहला और परम स्थान प्राप्त कर लेता है।


'गीता' का यह आठवां अध्याय सांसारिक व्यक्तियों को याद दिला रहा है कि प्रभु भक्ति में रोज डूबे रहो। उससे हटो नहीं। उसी में ठहरे रहो। इससे यह होगा कि उस प्रभु से हमारी मित्रता के संस्कार प्रगाढ़ होंगे और ये प्रगाढ़ संस्कार यहां से जाते समय हमारे काम आएंगे। यही वह पूंजी होगी जो हमारा अगला लोक बनाएगी अगला महल बनाएगी। काम ऐसे करो कि बना बनाया महल मिले और तिनका-तिनका न चुनना पड़े। जाते समय प्रभु की गोद मिले और हम दुख में विलीन ना होकर आनंद में लीन हो जायें। ऐसे शुभ कर्मों के करने से यह जीवन सफल हो जाता है और मनुष्य मोक्षपद का पात्र बन जाता है। गीता का आठवां अध्याय यहीं पर समाप्त होता है। इस अध्याय में श्रीकृष्णजी ने जीवन के उत्तरायण और दक्षिणाययन दो मार्गों का बड़ी सुंदरता और उत्तमता से वर्णन किया है। इस वर्णन को समझकर साधारण से साधारण व्यक्ति भी लाभान्वित हो सकता है। उत्तरायण और दक्षिणायन का समीकरण शुक्लपक्ष और कृष्ण्पक्ष के साथ जिस उत्तमता से स्थापित किया गया है-वह भी बहुत ही वैज्ञानिक और तार्किक आधार पर बनाया गया है। आधुनिक भौतिक विज्ञान और पश्चिमी जगत का ज्ञान-विज्ञान इस बात को समझ नहीं पाया है।


गीता का नौवां अध्याय


गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण जी ने शुक्ल मार्ग और कृष्ण मार्ग की बात कही है। उसी को 'प्रश्नोपनिषद' के ऋषि ने (प्रथम प्रश्न 9-15) में भी वर्णन किया है। उसके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है जिसे हम उत्तरायण कह रहे हैं-वही प्राण मार्ग, देवयान मार्ग और निवृति मार्ग कहा गया है। इसी प्रकार जिसे हम कृष्ण मार्ग कह रहे हैं वही दक्षिणायन मार्ग है, रयि मार्ग है, पितृयाण मार्ग है, प्रवृत्ति मार्ग है। कृष्ण मार्ग वास्तव में अंधकार का काल और शुक्ल मार्ग ज्ञान के प्रकाश का मार्ग है। संसार के लोगों को चाहिए कि वे दक्षिणायन मार्ग के पथिक न बनकर उत्तरायण मार्ग के पथिक बनें। इसके लिए वे संसार के प्रति दृष्टिकोण अपनायें कि यहां उपद्रवकारी व उग्रवादी शक्तियों का अंत हो और सज्जन शक्ति का प्राबल्य हो।


योगेश्वर श्री कृष्णजी संसार को नरक या मृत्युलोक के रूप में देखने की निराशावादी प्रवृत्ति के विरोधी हैं। वे इसे स्वर्ग बनाना चाहते हैं और इसीलिए एक आशावादी प्रेरणास्पद उपदेश कर रहे हैं कि हे संसार के लोगों! तुम उत्तरायण मार्ग के या शुक्लमार्ग के पथिक बनो। उत्तरायण मार्ग का पथिक बनने का अभिप्राय है कि जीवन में विज्ञानवाद के प्रकाश को स्थान दो और वैज्ञानिकता के उपासक बनो। गीता आशावाद का संचार करने वाला ग्रथ है, तभी तो वह निराशा निशा के प्रतीक अज्ञानान्धकार के काल को व्यक्ति के लिए त्याज्य और ज्ञानप्र्रकाश के काल को 'गेय' बनाकर चलती है। वह भूले भटकों को राह दिखाना चाहती है और भवसागर से पार लगाने का उपाय बता रही है।


मानो संसार एक नदिया है और संसार के लोग इस नदिया के एक किनारे पर खड़े इसे पार करने की युक्ति खोज रहे हैं। तब गीता उस युक्ति को देने का मार्ग बता रही है और कह रही है कि अपने वेद को और वैदिक संस्कृति के सनातन ज्ञान को भूलो मत, उसकी शरण में जाओ और अपना कल्याण कर लो। गीता ने अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ नहीं माना है, अपितु उसने वेद की सनातनता को नमस्कार करते हुए आर्ष ग्रन्थों का निचोड़ हमें देकर यह बता दिया है कि यदि मोक्ष चाहते हो तो अपनी उड़ान को ऊंचा करो, अपने दृष्टिकोण को व्यापकता दो, कल्याण हो जाएगा। इसलिए गीता अन्त में वेदों की ओर संकेत कर देती है। इस संकेत को समझने की आवश्यकता है। याद रहे कि गीता तक स्वयं को मत रोको, अपितु गीता के स्रोत अर्थात वेद तक स्वयं को ले चलो। वहां जाकर जो स्नान किया जाएगा-वह अमृत स्नान होगा।

सबसे बड़ी विद्या अर्थात राजविद्या

विद्या के विषय में विद्यादान करने वाला गुरू कैसा होना चाहिए? इस पर विचार प्रकट करते हुए ऋग्वेद (4/2/12) का ऋषि कहता है कि वह 'अदब्धा' अर्थात न दबने वाला होना चाहिए। अभिप्राय है कि गुरू शिष्य से दबने वाला न हो, उसका व्यक्तित्व ऐसा हो जो अपने शिष्यों को प्रभावित कर सके और उन्हें अपने आभामण्डल के तेज के सामने झुकने के लिए प्रेरित कर सके। यहीं पर वेद का ऋषि कहता है कि गुरू दर्शनीय और अद्भुत होना चाहिए। गुरू के दर्शन करने से उसकी दिव्याभा का प्रभाव उसके छात्रों पर पड़े और उसकी सौम्यता व शालीनता उन्हें सहज रूप से आकर्षित करने वाली हों। गुरू अभूतपूर्व (अद्भुत) हो। उसके ज्ञान की थाह पाने की चाह में चाहे जितनी चेष्टा की जाए, पर उसे कोई पा न सके-ऐसा व्यक्तित्व गुरू का होना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि गुरू किसी भी प्रकार से पाखण्डी, ठोंगी, व्यभिचारी या आडम्बरी न होकर दिव्य आभा से युक्त सच्चरित्र और महान गुणों से भूषित होना चाहिए। ऐसा गुरू ही विद्याओं में उत्तम और धर्मानुकूल विद्या अपने छात्र छात्राओं को दे सकता है। श्रीकृष्ण जी सौभाग्य से अर्जुन को ऐसे ही गुरू मिल गये हैं। उनका व्यक्तित्व बड़ा ही विशाल है और ज्ञान गाम्भीर्य तो ऐसा है कि आज तक कोई उसकी थाह नहीं ले सका।

गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज


गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज

श्री कृष्णजी की बात का अभिप्राय है कि बाहरी शत्रु यदि बढ़ जाते हैं तो योगी भी भयभीत हो उठते हैं। ये बाहरी शत्रु ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों को शान्तिपूर्ण जीवन जीने नहीं देते हैं। उनके भीतर उपद्रव होता रहता है तो उनके जीवन में भी उपद्रव ही उपद्रव दिखायी देने लगते हैं, ऐसे लोगों का सफाया किया जाना आवश्यक होता है। यही काम दुर्योधनादि कर रहे हैं। अत: अर्जुन के लिए यह उचित है कि वह उपद्रवकारियों और उन्मादियों या उग्रवादियों के विरूद्घ उठ खड़ा हो। जब तक ये बाहरी शत्रु अर्जुन के लिए खड़े हैं तब तक वह आंख बन्द करके नहीं बैठ सकता। उसके क्षात्र धर्म का तकाजा है कि वह अपने बाहरी शत्रुओं की सेना को समाप्त करे और फिर निश्चिन्त होकर अपने भीतरी जगत के शत्रुओं को मारकर शान्ति का अनुभव करे।

                                  गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

योगी की स्थिति की चर्चा करते श्रीकृष्ण जी आगे कहते हैं कि अपनी पीठ, सिर और गर्दन को सीधा करके और अचल रखकर अर्थात बिना हिले-डुले स्थिर होता हुआ नासा के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर अन्य किसी दिशा में न देखते हुए वह प्रशान्त मन वाला होकर भयरहित, ब्रह्मचर्य के व्रत में टिका हुआ, मन का संयम करके ईश्वर में ही चित्त गाड़ कर बैठता है। ऐसी अवस्था में ही योगी को परमशान्ति का अनुभव होता है। उस अवस्था में योगी का बाहरी जगत से सम्पर्क कट जाता है और वह भीतरी जगत में जाकर आनन्द लेने लगता है। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जो व्यक्ति अर्थात योगी इस प्रकार मेरे साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और अपने आपको इस प्रकार मुझे समर्पित कर देता है, जिसका मन उसके वश में हो गया है, ऐसा योगी परमशान्ति को प्राप्त कर लेता है।

कहने का अभिप्राय है कि ऐसे योगी के लिए पाने के लिए शेष कुछ भी नहीं रहता। यही तो है भारत की संस्कृति-जिसमें सब कुछ पाने का सरल उपाय हर व्यक्ति को बता दिया गया है। इस संस्कृति की सुरक्षा करना प्रत्येक भारतीय का कत्र्तव्य है। अब सुरक्षा के दो रास्ते हैं-एक तो यह कि स्वयं भी ऐसी ही पवित्रात्मा बनो और बनकर इस संस्कृति का प्रचार-प्रसार करो। दूसरे, जो लोग पवित्रात्माओं के मार्ग को रोकें या उन्हें किसी प्रकार से उत्पीडि़त करें, उनका सफाया करो। अर्जुन को दोनों ही काम करने हैं। उसे पवित्रात्मा योगी भी बनना है और योगियों के या पवित्रात्माओं के मार्ग को बाधित करने वालों का सफाया भी करना है।

श्रीकृष्ण जी का कहना है कि हे अर्जुन! जिस व्यक्ति का आहार-विहार नियमित और सन्तुलित हो, जिसकी सारी चेष्टाएं सन्तुलित व नियमित हों, जिसका सोना, जागना नियमित हो, अर्थात जिसकी दिनचर्या पूर्णत: नियमों में ढली हो और सारे कार्य और सारी चेष्टाएं नियमों के अन्तर्गत रहकर अनुशासित और मर्यादित ढंग से पूर्ण होती हों ऐसे व्यक्ति के योग दु:ख दूर कर देता है।

आहार-विहार हो सन्तुलित मर्यादित व्यवहार।

दिनचर्या हो नियमित गीत गाये संसार।।

भारत के योगियों ने अपनी दिनचर्या और जीवनचर्या को इसलिए संयमित, नियमित और मर्यादित बनाया कि उन्होंने ईश्वरीय व्यवस्था को, प्रकृति के नियमों को बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया और पाया कि वहां सारा कुछ एक निश्चित नियम प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्पन्न हो रहा है। अत: मनुष्य के लिए भी उचित है कि वह भी ईश्वरीय व्यवस्था और प्रकृति के नियमों के अनुरूप स्वयं को चलाये। यही अवस्था ईश्वर और प्रकृति से मित्रता कर लेने वाली अवस्था होती है। ईश्वर और प्रकृति के गुण आत्मा और शरीर वाला होने से मनुष्य के भीतर आने भी चाहिएं। ईश्वर हमारे आत्मा का मित्र है तो प्रकृति हमारे शरीर का मित्र है। अत: हमारे स्वभाव में भी इनके नियम रम जाने चाहिएं। योग का अभिप्राय ईश्वरीय व्यवस्था में स्वयं को स्थिर कर लेना है और प्रकृति के नियमों को पढक़र उनके ही अनुसार अपनी दिनचर्या और जीवनचर्या को बना लेना है।

युक्ताहार-विहार का अभिप्राय इन्द्रियसंयम से है। यहां पर युक्ताहार-विहार कहा गया है। जिसका अभिप्राय है कि इन्द्रियों से उचित नपा तुला काम तो लेना है। अपेक्षा से न थोड़ा सा अधिक और न थोड़ा सा भी कम। जैसे मिताहारी का अर्थ नपा-तुला (मित) खाने वाला है और मितभाषी का अर्थ नपा-तुला (मित) बोलने वाला है। वैसे ही हर इन्द्रिय से उतना काम लेना चाहिए-जितना आवश्यक है। जैसे मिताहारी का अभिप्राय कम खाने वाला या कतई न खाने वाला नहीं है, और मितभाषी का अर्थ जैसे कम बोलने वाला या कतई न बोलने वाला नहीं है-वैसे ही युक्ताहारी-विहारी का अर्थ इन्द्रियों को भूखा मारना या घरबार छोडक़र जंगलों में भाग जाना नहीं है। संसार समर में से भगाना या व्यक्ति को कायर बना देना गीता का विषय ही नहीं है-वह तो संसार समर से भागते हुए अर्जुन को रोकने के लिए अपनी बात कह रही है। अत: जिन लोगों ने गीता के 'युक्ताहार-विहार' का अर्थ घरबार छोड़ देने से या जंगलों में जाकर रहने से लगा लिया या इन्द्रियों को जिन्होंने भूखा मारना आरम्भ कर दिया उन्होंने भी गीता के मर्म को समझा नहीं है। वह स्वयं 'अर्जुन' हो गये और उसके उपरान्त भी मैदान छोडक़र भागने वाले अर्जुन को मैदान में डटे रहने का उपदेश दे रहे हैं। यह तो एक प्रकार का उपहास ही हुआ। श्रीकृष्ण जी संसार समर में डटे रहने वाले योगी थे। अत: वह दूसरों को भी ऐसा ही उपदेश देंगे कि जीवन को कमल की भांति बनाओ। संसार की कीचड़ में रखकर भी उसे कीचड़ से सनने मत दो। यह है गीता का उपदेश।

गीता का 'कर्मयोग' तभी सफल होता है-जब हम ध्यान की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। ध्यान के साधनों का नाम ही 'ध्यानयोग' है। वास्तव में 'ध्यानयोग' का अभिप्राय शरीर की शक्तियों को अन्तर्मुखी बना देना है। हमारे ऋषियों ने अध्यात्म के क्षेत्र में महान सफलता की प्राप्ति के लिए ऊध्र्वरेता होने की अवस्था का अभिप्राय वीर्य (रेटस) को ऊपर की ओर चढ़ा लेना है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य की घोर साधना ही ऊध्र्वरेता होना है। इस अवस्था में जाकर व्यक्ति को जिस आनन्द की अनुभूति होती है वही सच्ची स्वतन्त्रता होती है। इस अवस्था में मनुष्य इन्द्रियों की दासता से मुक्त हो जाता है और जो मन उसे अब तक पटक पटक मार रहा था उसकी सारी तानाशाही और नादिरशाही भी शान्त हो जाती है। अब मन आत्मा के आधीन हो जाता है और आत्मस्वरूप में मग्न रहने का अभ्यासी बन जाता है। अत: उसके द्वारा जितने भर भी कार्य निष्पादित किये जाते हैं-वे सबके सब बहुत शुद्घ और पवित्र होते हैं। श्रीकृष्णजी का कर्मयोग इसी अवस्था में फलता-फूलता है। इसी अवस्था में प्रस्फुटित होता है और इसी अवस्था में वह मुखर होता है। इसी अवस्था को श्रीकृष्ण जी अनुशासित जीवन कह रहे हैं। श्रीकृष्ण जी व्यक्ति की चेतना को निरन्तर जाग्रत किये रखना चाहते हैं। इसीलिए उसे कर्मयोगी बनाये रखना अपना धर्म मानते हैं।

संसार के जागरूक अर्थात जाग्रत लोगों को अपनी जागृत चेतना के माध्यम से ऐसे प्रयास करने ही चाहिएं कि अन्य लोगों का जीवन भी कल्याण से ओतप्रोत हो जाए, उनकी चेतना जागृत हो जाए और वे भी ऊध्र्वरेता बनकर आत्म कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ हो जाएं? इसके लिए सतत साधना अर्थात निरन्तर ध्यान करते रहने का अभ्यास और वह भी एकान्त में करते रहने की आवश्यकता है। इसके लिए विद्वानों ने एकाकी ध्यान, इन्द्रिय निग्रह, वासना त्याग, अपरिग्रह, एकाग्रता, आसन, निर्भयता, ब्रह्मचर्य, भगवान में चित्त लगाना और नियमित जीवनशैली को अपनाने की आवश्यकता मानी है।

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,



आत्म कल्याण कैसे सम्भव है 

संसार के लोग अपने आप पर अपनी ही नजरें नहीं रखते। मैं क्या कर रहा हूं? मुझे क्या करना चाहिए? ऐसी दृष्टि उनकी नहीं होती। वह ये सोचते हैं कि मैं जो कुछ कर रहा हूं-उसे कोई नहीं देख रहा और मैं उसे किसी को नहीं देखने दे रहा हूं, इसलिए मैं बहुत ही चतुर चालाक हूं? जिन लोगों की अपने विषय में ऐसी सोच होती है-वे आत्मछल करते हैं। जिसके कारण वे कब नीचे गिर जाएं, और कब उनका दिखावटी बड़प्पन मिट्टी में मिल जाए?-इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। संसार के लोग बड़प्पन का झूठा महल चिनते हैं और वह अक्सर थोड़ी सी विपरीत स्थिति-परिस्थिति के आते ही भर भराकर गिर जाता है।

                              गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

श्रीकृष्णजी आत्मकल्याण का रास्ता बताते हुए अर्जुन को समझा रहे हैं कि सुनो अर्जुन! मनुष्य अपना उद्घार या आत्मकल्याण स्वयं ही कर सकता है। वह अपने आप पर स्वयं नजर रखे और कभी भी स्वयं को नीचे ना गिरने दे। सदा यह वचन याद रखे कि हर व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। एकान्त में मनुष्य अपना अन्तरावलोकन स्वयं करे, स्वयं अपनी गलतियां देखे, अपने चरित्र की स्वयं समीक्षा करे। अपने आपसे स्वयं प्रश्न पूछे और बड़ी ईमानदारी से उनका उत्तर दे तो वह उन्नतिगामी होने लगता है। उसका आत्मकल्याण होने लगता है। जब करने वाला 'मैं' हूं तो यह भी ध्यान रहे कि टोकने वाला भी 'मैं' ही होना चाहिए। 'मैं' से 'मैं' का वात्र्तालाप होता रहेगा तो 'मैं' (अहंकार) नष्ट हो जाएगा। यह भीतरी जगत का खेल है, जिससे 'मैं' और 'मैं' मिलकर 'मैं' को ही मार डालती हैं। बाहरी जगत में एक और एक मिलकर दो होते हैं पर भीतरी जगत में एक और एक मिलकर शून्य हो जाते हैं। जी, हां वही शून्य जिससे यह जगत उपजता है। इस खेल को जरा खेलकर तो देखो बड़ा आनंद आएगा।

'मैं' और 'मैं' मिलकर करें 'मैं' का सत्यानाश।

'मैं' के सत्यानाश में छुप रहा आत्मविकास।।

आत्मकल्याण का इससे उत्तम और इससे सस्ता कोई मार्ग नहीं है। 'मैं' के अर्थात अहंकार के विनाश होते ही व्यक्ति के आत्मविकास के मार्ग खुल जाते हैं। जो व्यक्ति ईमानदारी से अपने आपसे अपने आपको नहीं छुपाता वह अपने दोषों को पहचान लेता है और उन्हें दूर करने के लिए भी सचेष्ट हो उठता है।

इसी बात को श्रीकृष्ण जी हमारे लिए उत्तम बता रहे हैं। वह कहते हैं कि हे अर्जुन! जो व्यक्ति योग की सीढिय़ों को तय कर लेता है और योगी कहा जाने लगता है, वह एकान्त में अकेला बैठकर अपने चित्त और आत्मा को वश में रखकर उच्चता की साधना करता है, ऐसा व्यक्ति वासना से मुक्त हो जाता है। वासना के सारे साधन उपलब्ध होते हुए भी वह उससे मुंह फेर लेता है, अर्थात एक योगी को वासना सताना बंद कर देती है। वह अपरिग्रहवादी बनकर संसार के भौतिक ऐश्वर्यों को भी लात मार देता है और अपने मन को सदा परमात्मा के साथ जोड़े रखता है। उसके लिए संसार के सारे स्वाद और सारे रस फीके हो जाते हैं। ऐसे योगी को आत्मरस का लपका पड़ जाता है और वह समय मिलते ही उसी में लगा रहता है। उसके इस आनन्द को कोई दूसरा व्यक्ति न तो जान सकता है और न ही बखान कर सकता है।

योगी के लिए सदा एकान्त स्थान ही उपयोगी होता है, और योगी के लिए ही क्यों?- संसार की समस्याओं का समाधान खोजने वाले सामाजिक चिन्तकों, लेखकों, कवियों, दार्शनिकों, राजनीतिशास्त्रियों और राष्ट्रसाधकों के लिए भी एकान्त ही उपयोगी होता है। एकान्त में अर्थात ध्यान की अवस्था में ही समस्याओं के समाधान निकला करते हैं। एकान्त में रहकर ही लोग बड़े आविष्कार करते हैं, बड़े-बड़े चमत्कार करते हैं और एकान्त में रहकर ही आत्मसाक्षात्कार करते हैं।

एक योगी तो जीवन और जगत दोनों की अबूझ पहेलियों का समाधान खोजता है-अत: उसके लिए तो एकान्त और भी आवश्यक है। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि संसार के अन्य लोगों के एकान्तसेवन और योगी के एकान्तसेवन में भारी अंतर होता है। योगी की साधना सात्विकता में प्रवाहित होती है और वह सात्विकता के सकारात्मक परिवेश का ही निर्माण कर संसार को लाभान्वित करती है। जबकि संसार के लोगों से एकान्त में कई बार चूक भी हो सकती है वह कोई ऐसा निर्णय ले सकते हैं जो विश्व के लिए हानिकारक हो। परमाणु बम की खोज किसी वैज्ञानिक की बड़ी साधना का फल है, परन्तु यह संसार के लिए भय का कारण बनी है और इसने अतीत में भारी विनाश भी मचाया है। ऐसे और भी उदाहरण हो सकते हैं, जिन्होंने संसार को लाभ के स्थान पर हानि ही दी है। इसका कारण ये है कि संसार के लोगों का चित्त और आत्मा वश में नहीं होती, ना ही वासना पर उनका नियंत्रण होता है, यह भी आवश्यक नहीं कि वह अपरिग्रहवादी हो गये हों और ऐषणाओं से उन्होंने स्वयं को मुक्त कर लिया हो, और यह भी नहीं कि उनका मन ईश्वर के साथ निरन्तर जुड़ा रहता हो। बस, यही वह अन्तर है जो योगी को संसार के सब लोगों से श्रेष्ठ बनाता है। भारत की संस्कृति श्रेष्ठ की ही उपासना करती है, वह घटिया माल को हाथ भी नहीं लगाती, यद्यपि सम्मान सभी का करती है, पर चाहिए उसे एकदम अव्वल माल ही।

श्रीकृष्ण जी इसी अव्वल माल की ओर ही संकेत करते हुए अर्जुन को बता रहे हैं कि हे पार्थ! ऐसे योगीजन स्वच्छ स्थान पर अपना स्थिर आसन बिछाकर और ऐसे स्थान का चयन कर जो न तो अधिक ऊंचा हो और न ही अधिक नीचा हो, उस पर कुशा, फिर मृगछाला और उस पर स्वच्छ वस्त्र बिछाकर अपने मन को एकाग्र कर चित्त तथा इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर अपनी साधना करते हैं और आत्मशुद्घि के लिए योग में जुट जाते हैं। उनका योग उन्हें संसार के भोग और रोग से दूर कर देता है।

श्रीकृष्ण जी यहां एक प्रकार से योगी की दिन चर्या पर प्रकाश डाल रहे हैं। उसकी दिनचर्या में योग का क्या स्थान है और उसके प्रति उसकी निष्ठा किस स्तर की होती है?- इस पर प्रकाश डाल रहे हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण जी जिस प्रकार के योगी का चित्रण कर रहे हैं-उसका संसार अलग है, उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं और उसकी मान्यताएं व जीवन के प्रति दृष्टिकोण अलग है। वह संसार में अपने शत्रु नहीं खोजता अपितु अपने भीतर काम, क्रोध, मद, मोह लोभादि के शत्रुओं को खोजता रहता है और उन्हें पटक-पटक कर मारता रहता है। उसका अभियान आत्म विजयी होने का है। वह जानता है कि बाहरी शत्रु मेरे भीतर के शत्रुओं की प्रतिच्छाया हैं। भीतर के शत्रु जब तक समाप्त नहीं होंगे, तब तक बाहरी जगत के शत्रुओं का सफाया होना असम्भव है। अत: एक योगी की सारी दिनचर्या भीतरी जगत के शत्रुओं के सफाये के लिए बनती है। वह आंखें इसलिए बन्द कर लेता है कि उसे भीतर के जगत में अपने शत्रु खोजने होते हैं, जो आंख बन्द करके ही खोजे जाने संभव हैं। दूसरे, उसे बाहरी शत्रुओं का कोई भय नहीं रहता और ना ही बाहर उसका कोई शत्रु होता है, इसलिए बाहरी शत्रुओं का उसे भय न होने के कारण वह आंखें बन्द करके बैठ जाता है। जिसने बाहरी संसार में शत्रुओं की लम्बी पंक्ति तैयार कर ली है-वह आंख बन्द करके भी नहीं बैठ सकत

★★★ हमारे सात चक्र★★★


 1. मूलाधार चक्र :

यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह "आधार चक्र" है। 99.9% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है, उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : "लं"

कैसे जाग्रत करें : 

मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है.! इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यािन लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : 

इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतरवीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र -

यह वह चक्र लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है, जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है, वह आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : "वं"

कैसे जाग्रत करें : 

जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती. लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : 

इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो, तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3. मणिपुरक चक्र :

नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत "मणिपुर" नामक तीसरा चक्र है, जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : "रं"

कैसे जाग्रत करें:

 आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव :

 इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4. अनाहत चक्र

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही "अनाहत चक्र" है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं.

मंत्र : "यं"

कैसे जाग्रत करें : 

हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और "सुषुम्ना" इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : 

इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है। व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5. विशुद्धि चक्र:

कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां "विशुद्ध चक्र" है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है, तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : "हं"

कैसे जाग्रत करें : 

कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र Iजाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : 

इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

6. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में "आज्ञा-चक्र" है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है, तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। "बौद्धिक सिद्धि" कहते हैं।

मंत्र : "ॐ"

कैसे जाग्रत करें :

 भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : 

यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस "आज्ञा चक्र" का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं, व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7. सहस्रार चक्र :

"सहस्रार" की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें :

 "मूलाधार" से होते हुए ही "सहस्रार" तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह "चक्र" जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : 

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही "मोक्ष" का द्वार है।

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व



गीता का भूतात्मा और पन्थनिरपेक्षता


गीता ने सर्वभूतों में एक 'भूतात्मा' परमात्मा को देखने की बात कही है। वह भूतात्मा सभी प्राणियों की आत्मा होने से भूतात्मा है।


सब भूतों में व्याप्त है भूतात्मा एक।


परमात्मा कहते उसे आर्य लोग श्रेष्ठ।।


मनुष्य जाति यदि इस भाव को हृदय से अंगीकार कर ले तो संसार में मानव जाति के झगड़े तो शान्त हो ही जाएंगे, साथ ही मनुष्य जिस प्रकार अन्य प्राणधारियों को मिटाने पर लगा है-उनके प्रति भी उसका दृष्टिकोण दयालुता का हो जाएगा। संसार में अधिकांश झगड़े इसलिए चल रहे हैं कि संसार में विभिन्न मत, पंथों व सम्प्रदायों या मजहबों को मानने वाले लोग अपनी-अपनी धर्म पुस्तकों को ही श्रेष्ठ मानते हैं और दूसरों की धर्मपुस्तकों को हेय मानते हैं। इससे संसार में साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलता है, और संसार के लोगों में अपने-अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को लेकर परस्पर क्लेश भाव बढ़ता है।


Read This - गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-51


विश्वशान्ति के समर्थक लोगों को चाहिए कि वे सभी धर्म ग्रन्थों या पुस्तकों का निचोड़ निकालें और उससे जो अमृत पल्ले पड़े-उसे सारी मानवता के लिए अपना लें और इस अमृत को ही मानव जाति के लिए एक सर्वसम्मत संविधान बना दें। उस संविधान से मानवता को शासित-अनुशासित किया जाए।

दूह लीजिए ज्ञान को पी लो अमृत मान।

मानवता हर्षित भये खुश होवें भगवान।।

आज के पन्थनिरपेक्षतावादी विचार को लागू करने के लिए तो यह सुझाव और भी अधिक उपयोगी सिद्घ हो सकता है। इसे गीता का भूतात्मा का विचार पुष्ट करता है। जिसे संसार के लोगों ने इसलिए अपनाने में संकोच किया है कि यह तो एक सम्प्रदाय की पुस्तक का विचार है। इस सोच ने मानवता को उस हीरे से वंचित कर रखा है-जो अनमोल है और जिसके पास मानवता की सभी समस्याओं का उपचार है।

सभी भूतों में एक आत्मा (भूतात्मा=परमात्मा) को देखने की प्रवृत्ति जिस दिन संसार के लोगों में और विशेषत: धर्माधीशों, सत्ताधीशों, न्यायाधीशों और धनाशीशों में समाविष्ट हो जाएगी-उसी दिन से इस संसार का कायाकल्प होना आरम्भ हो जाएगा और संसार में वास्तविक शान्ति की स्थापना के लिए ये सारी शक्तियां ठोस कार्य करने में लग जाएंगी।

संसार के झगड़े इसलिए बढ़ रहे हैं कि कुछ लोगों ने 'खुदा की इबादत' को सर्वोपरिता दी है और दुनिया के लोगों को 'खुदा के बन्दों' और 'काफिरों' में बांटकर देखा है तो कुछ ने अपनी ऐसी ही द्वैधकारी नीतियों को प्रकट कर मानवता में विखण्डनवाद को बढ़ावा दिया है। जिससे संसार खेमेबन्दी का शिकार हो गया है। गीता कहती है कि इस प्रकार की खेमेबन्दी को सभी भूतों में एक (भूतात्मा-परमात्मा) को देखने से मिटाया जा सकता है। यदि सर्वभूतों में एक भूतात्मा को देखने की प्रवृत्ति हमारे भीतर आ जाएगी तो संसार की ये सारी खेमेबन्दियां स्वयं ही समाप्त हो जाएंगी। अभी तो हमारे अन्तर्मन के ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ा है। ज्ञान ये है किहम सभी एक भूतात्मा=परमात्मा से आलोकित हैं, ज्योतित हैं, शासित और अनुशासित हैं और अज्ञान ये है कि हमने विश्व को खेमेबंदियों में विभाजित कर लिया है।

यह खेमेबंदी आज इतनी आम हो गयी है कि घरों और ऑफिसों तक में आ घुसी है। इसके लिए एक शब्द गढ़ा गया है- 'लॉबिंग' का। यह 'लॉबिंग' की बीमारी हर घर में और हर ऑफिस में आ चुकी है। घर में मुखिया पर दबाव बनाने के लिए कभी उसकी पत्नी 'लॉबिंग' करती है तो कभी बच्चे करते हैं और अपनी अतार्किक मंाग को भी मनवाकर फिर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं कि हमने ढंग से 'लॉबिंग' की तो यह उपलब्धि मिली। इसी प्रकार सरकारी गैर सरकारी कार्यालयों में बैठे अधिकारियों के विरूद्घ 'लॉबिंग' होती है और लोग उससे अपना काम निकलवा लेते हैं। देश की सरकारों को झुकाने के लिए भी कुछ लोग इस हथियार का प्रयोग करते हैं और रातों-रात चुपचाप सरकार को झुकाकर अपना काम करा जाते हैं।

कुछ लोग इस 'लॉबिंग' को लोकतंत्र को सफल बनाने के एक हथियार के रूप में देखते हैं और लोकतंत्र की सफलता के लिए इसे अनिवार्य मानते हैं। जबकि सच ये है कि 'लॉबिंग' का यह हथियार वास्तव में लोकतंत्र को मजबूत न करके उसे बार-बार घायल करता है। कारण कि 'लॉबिंग' वही लोग करते हैं जो हैकड़ और मुठमर्द होते हैं। ये लोग अपनी हैकड़ी व मुठमर्दी से सत्ता को झुकाने की युक्तियां खोजते हैं और दूसरों के अधिकारों का हनन कर अपना काम करा ले जाने में सफल हो जाते हैं। बाहर आकर इस अलोकतांत्रिक और अन्यायपरक युक्ति को 'लॉबिंग' की संज्ञा देते हैं। आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र जैसी न्यायपरक शासन प्रणाली में भी यह 'लॉबिंग' का खेल वैधता प्राप्त करके चल रहा है। जबकि इसके विरूद्घ आवाज उठनी चाहिए और इसे समाप्त कराया जाना चाहिए।

गीता ने 'लॉबिंग' जैसी बीमारी को अलोकतांत्रिक माना और ये अलोकतांत्रिक स्थिति शासन में या घर में पैदा ही न हो-इसके लिए शासक को न्यायप्रिय बनाने के लिए तथा शासित (जनता को) को न्याय प्राप्त करने के लिए एक विचार दिया कि तुम सब लोगों में और सब प्राणियों में एक भूतात्मा=परमात्मा को जानना व मानना। इससे शासक अपने सामने खड़े लोगों का सम्प्रदाय या जाति के आधार पर वर्गीकरण नहीं कर पाएगा, उसकी विखण्डनकारी सोच समाप्त होगी और उसमें समदर्शी होने का भाव प्रबल होगा। इससे वह सही न्याय उन्हें दे पाएगा। इसी प्रकार शासित जनता वर्ग में यह भावना आते ही-वे किसी अन्य के अधिकारों का शोषण या हनन करने के लिए 'लॉबिंग' के फेर में नहीं पड़ेंगे। फलस्वरूप देश और विश्व में अपने-अपने अधिकारों के लिए मच रही घमासान पर अंकुश लगाने में सफलता मिलेगी।

'लॉबिंग' को हम लोगों के अधिकारों के विरूद्घ इसलिए मानते हैं कि आपने कभी भी यह नहीं देखा होगा कि कुछ लोगों ने गौहत्या निषेध के लिए 'लॉबिंग' की या निरीह प्राणियों के प्राण बचाने के लिए कानून लाने के लिए 'लॉबिंग' की या गरीबों, मजदूरों, किसानों और कामगारों के अधिकारों के हित संरक्षण के लिए 'लॉबिंग' की और उस 'लॉबिंग' के फलस्वरूप अमुक लोकहितकारी कार्य कराने के लिए सरकार को तैयार किया? जितनी भर भी 'लॉबिंग' होती हैं वे उन लोगों द्वारा करायी जाती हैं जो गौमांस निर्यात करना चाहते हैं या जीवों की हत्या कराके उनसे 'मोटा माल' कमाना चाहते हैं या जो मजदूरों, किसानों, कामगारों, गरीबों के रक्त को चूसकर उससे अपना स्वास्थ्य बनाना चाहते हैं।

यह सारी अन्यायपरक स्थिति संसार के वर्तमान कोलाहल की जड़ है। इस जड़ को गीता अपने समदर्शी चिन्तन से उखाड़ देना चाहती है। वह ऐसे शासक और शासक वर्ग की वकालत करती है जो लोगों में विखण्डनकारी प्रवृत्ति को बढ़ाने वाले न होकर उन सबमें यह भाव उत्पन्न करते हैं कि तुम और हम सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं और उसी एक भूतात्मा से शासित अनुशासित हैं। इसलिए झगड़े बढ़ाने नहीं हैं, अपितु झगड़ों को मिटाना है और विश्व को वास्तविक शान्ति प्रदान करनी है। गीता के इस एक भूतात्मा=परमात्मा के सिद्घांत को आज के पन्थनिरपेक्ष वैश्विक समाज की संकल्पना को साकार करने के लिए संघर्ष करने वाले चिन्तकों और मनीषियों को यथाशीघ्र अपना लेना चाहिए। 'गीता' का यह संदेश इस बीमार संसार की एक 'रामबाण औषधि' है।



रहीमदास जी के दोहे

रहीमदास जी के दोहे 


दोहा :- “जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं. गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं.”

अर्थ :- रहीम अपने दोहें में कहते हैं की किसी भी बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन कम नहीं होता, क्योकी गिरिधर को कान्हा कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती.


दोहा :- “जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग. चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग.”

अर्थ :- रहीम ने कहा की जिन लोगों का स्वभाव अच्छा होता हैं, उन लोगों को बुरी संगती भी बिगाड़ नहीं पाती, जैसे जहरीले साप सुगंधित चन्दन के वृक्ष को लिपटे रहने पर भी उस पर कोई प्रभाव नहीं दाल पाते.


दोहा :- “रहिमन धागा प्रेम का, मत टोरो चटकाय. टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय”

अर्थ :- रहीम ने कहा की प्यार का नाता नाजुक होता हैं, इसे तोड़ना उचित नहीं होता. अगर ये धागा एक बार टूट जाता हैं तो फिर इसे मिलाना मुश्किल होता हैं, और यदि मिल भी जाये तो टूटे हुए धागों के बीच गाँठ पद जाती हैं.


दोहा :- “दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं. जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के नाहिं”

अर्थ :- रहीम कहते हैं की कौआ और कोयल रंग में एक समान काले होते हैं. जब तक उनकी आवाज ना सुनायी दे तब तक उनकी पहचान नहीं होती लेकिन जब वसंत रुतु आता हैं तो कोयल की मधुर आवाज से दोनों में का अंतर स्पष्ट हो जाता हैं.


दोहा :- “रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत. काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत.”

अर्थ :- गिरे हुए लोगों से न तो दोस्ती अच्छी होती हैं, और न तो दुश्मनी. जैसे कुत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों ही अच्छा नहीं होता.


दोहा :- “रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारी. जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारी.”

अर्थ :- बड़ी वस्तुओं को देखकर छोटी वास्तु को फेंक नहीं देना चाहिए, जहां छोटीसी सुई कम आती हैं, वहां बड़ी तलवार क्या कर सकती हैं?


दोहा :- “समय पाय फल होता हैं, समय पाय झरी जात. सदा रहे नहीं एक सी, का रहीम पछितात.”

अर्थ :- हमेशा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती जैसे रहीम कहते हैं की सही समय आने पर वृक्ष पर फल लगते हैं और झड़ने का समय आने पर वह झड जाते हैं. वैसेही दुःख के समय पछताना व्यर्थ हैं.


दोहा :- “वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग. बाँटन वारे को लगे, ज्यो मेहंदी को रंग.”

अर्थ :- रहीमदास जी ने कहा की वे लोग धन्य हैं, जिनका शरीर हमेशा सबका उपकार करता हैं. जिस प्रकार मेहंदी बाटने वाले पर के शरीर पर भी उसका रंग लग जाता हैं. उसी तरह परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता हैं.


दोहा :- “बिगरी बात बने नहीं, लाख करो कीं कोय. रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय.”

अर्थ :- इन्सान को अपना व्यवहार सोच समझ कर करना चाहिये क्योकी किसी भी कारण से यदि बात बिगड़ जाये तो उसे सही करना बहोत मुश्किल होता हैं जैसे एक बार दूध ख़राब हो गया तो कितनी भी कोशिश कर लो उसे मठ कर मख्खन नहीं निकाला जा सकता.|


दोहा :- “रूठे सृजन मनाईये, जो रूठे सौ बार. रहिमन फिरि फिरि पोईए, टूटे मुक्ता हार.”

अर्थ :- यदि माला टूट जाये तो उन मोतियों के धागे में पीरों लेना चाहिये वैसे आपका प्रिय व्यक्ति आपसे सौ बार भी रूठे तो उसे मना लेना चाहिये.


दोहा :- “जैसी परे सो सही रहे, कही रहीम यह देह. धरती ही पर परत हैं, सित घाम औ मेह.”

अर्थ :- रहीम कहते हैं की जैसे धरती पर सर्दी, गर्मी और वर्षा पड़ती तो वो उसे सहती हैं वैसे ही मानव शरीर को सुख दुःख सहना चाहिये.


दोहा :- “खीर सिर ते काटी के, मलियत लौंन लगाय. रहिमन करुए मुखन को, चाहिये यही सजाय.

अर्थ :- रहीमदस जी कहते हैं की खीरे के कड़वेपण को दूर करने के लिये उसके उपरी सिरे को काटने के बाद उस पर नमक लगाया जाता हैं. कड़वे शब्द बोलने वालो के लिये यही सजा ठीक हैं.


दोहा :- “रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेड़, जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कही देई.”

अर्थ :- आसू आखों से बहकर मन का दुःख प्रगट कर देते हैं, रहीमदास जी कहते हैं की ये बिलकुल सत्य हैं की जिसे घर से निकाला जायेंगा वह घर का भेद दुसरों को ही बतायेंगा.


दोहा :- “रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय. सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी लैहैं कोय.”

अर्थ :- अपने मन के दुःख को मन के अंदर ही छिपा कर रखना चाहिये क्योकी दुसरों का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लेते है उसे बाट कर काम करने वाले बहोत कम लोग होते हैं.


दोहा :- “छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात. कह रहीम हरी का घट्यौ, जो भृगु मारी लात.”

अर्थ :- उम्र से बड़े लोगों को क्षमा शोभा देती हैं, और छोटों को बदमाशी. मतलब छोटे बदमाशी करे तो कोई बात नहीं बड़ो ने छोटों को इस बात पर क्षमा कर देना चाहिये. अगर छोटे बदमाशी करते हैं तो उनकी मस्ती भी छोटी ही होती हैं. जैसे अगर छोटासा कीड़ा लाथ भी मारे तो उससे कोई नुकसान नहीं होता.


दोहा :- “तरुवर फल नहीँ खात हैं, सरवर पियहि न पान. कही रहीम पर काज हित, संपति संचही सुजान.”

अर्थ :- पेड़ अपने फ़ल खुद नहीं खाते हैं और नदियाँ भी अपना पानी स्वयं नहीं पीती हैं. इसी तरह अच्छा व्यक्ति वो हैं जो दुसरों को दान के कार्य के लिये अपनी संपत्ति को खर्च करता है।


दोहा :- “दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय. जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे होय.”

अर्थ :- दुःख में सभी लोग भगवान को याद करते हैं. सुख में कोई नहीं करता, अगर सुख में भी याद करते तो दुःख होता ही नही.


दोहा :- “खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान. रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान.”

अर्थ :- सारा संसार जानता हैं की खैरियत, खून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा छुपाने से नहीं छुपता हैं.


दोहा :- “जो रहीम ओछो बढै, तौ अति ही इतराय. प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ों जाय.”

अर्थ :- लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत इतराते हैं. वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में ज्यादा फ़र्जी बन जाता हैं तो वह टेढ़ी चाल चलने लता हैं.


दोहा :- “चाह गई चिंता मिटीमनुआ बेपरवाह. जिनको कुछ नहीं चाहिये, वे साहन के साह.”

अर्थ :- जिन लोगों को कुछ नहीं चाहिये वों लोग राजाओं के राजा हैं, क्योकी उन्हें ना तो किसी चीज की चाह हैं, ना ही चिन्ता और मन तो पूरा बेपरवाह हैं.


दोहा :- “जे गरिब पर हित करैं, हे रहीम बड. कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग.”

अर्थ :- जो लोग गरिब का हित करते हैं वो बड़े लोग होते हैं. जैसे सुदामा कहते हैं कृष्ण की दोस्ती भी एक साधना हैं.


दोहा :- “जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय. बारे उजियारो लगे, बढे अँधेरो होय.”

अर्थ :- दिये के चरित्र जैसा ही कुपुत्र का भी चरित्र होता हैं. दोनों ही पहले तो उजाला करते हैं पर बढ़ने के साथ अंधेरा होता जाता हैं.


दोहा :- “रहिमन वे नर मर गये, जे कछु मांगन जाहि. उतने पाहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि.”

अर्थ :- जो इन्सान किसी से कुछ मांगने के लिये जाता हैं वो तो मरे हैं ही परन्तु उससे पहले ही वे लोग मर जाते हैं जिनके मुह से कुछ भी नहीं निकलता हैं.


दोहा :- “रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय. हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय.”

अर्थ :- संकट आना जरुरी होता हैं क्योकी इसी दौरान ये पता चलता है की संसार में कौन हमारा हित और बुरा सोचता हैं.


दोहा :- “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर. पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.”

अर्थ :- बड़े होने का यह मतलब नहीं हैं की उससे किसी का भला हो. जैसे खजूर का पेड़ तो बहुत बड़ा होता हैं लेकिन उसका फल इतना दूर होता है की तोड़ना मुश्किल का कम है.


दोहा :- “रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर. जब नाइके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर.”

अर्थ :- जब बुरे दीन आये तो चुप ही बैठना चाहिये, क्योकी जब अच्छे दिन आते हैं तब बात बनते देर नहीं लगती.


दोहा :- “बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय. औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय.”

अर्थ :- अपने अंदर के अहंकार को निकालकर ऐसी बात करनी चाहिए जिसे सुनकर दुसरों को और खुद को ख़ुशी हो.


दोहा :- “मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय. फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय.”

अर्थ :- मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और सामान्य रहते हैं तो अच्छे लगते हैं लेकिन अगर एक बार वो फट जाएं तो कितने भी उपाय कर लो वो फिर से सहज और सामान्य रूप में नहीं आते.


दोहा :- “रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत. काटे चाटे स्वान के, दोउ भांति विपरीत.”

अर्थ :- कम दिमाग वाले व्यक्तियों से ना दोस्ती और ना ही दुश्मनी अच्छी होती हैं. जैसे कुत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों को विपरीत नहीं माना जाता है.


दोहा :- “ रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सुन. पानी गये न ऊबरे, मोटी मानुष चुन.”

अर्थ :- इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है, पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में है जब इसका मतलब विनम्रता से है. रहीम कह रहे हैं की मनुष्य में हमेशा विनम्रता होनी चाहिये. पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोटी का कोई मूल्य नहीं. पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे से जोड़कर दर्शाया गया हैं. रहीमदास का ये कहना है की जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नम्र नहीं हो सकता और मोटी का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपने व्यवहार में हमेशा पानी यानी विनम्रता रखनी चाहिये जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है.


दोहा :- “रहिमन विपदा हु भली, जो थोरे दिन होय. हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय.”

अर्थ :- यदि संकट कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही हैं, क्योकी संकट में ही सबके बारेमें जाना जा सकता हैं की दुनिया में कौन हमारा अपना हैं और कौन नहीं.


दोहा :- “पावस देखि रहीम मन, कोईल साढ़े मौन. अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन.”

अर्थ :- बारिश के मौसम को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया हैं. अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं तो इनकी सुरीली आवाज को कोई नहीं पूछता, इसका अर्थ यह हैं की कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप छाप रहना पड़ता हैं. कोई उनका आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता हैं.

गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज

गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज


इस आत्मविनाश और आत्मप्रवंचना के मार्ग को सारा संसार अपना रहा है। रसना और वासना का भूत सारे संसार के लोगों पर चढ़ा बैठा है। इसके उपरान्त भी सारा संसार कह रहा है कि मजा आ गया। इस भोले संसार को नहीं पता कि रसना और वासना का यह मजा (और मजा का उल्टा दारू का जाम) ही तो तेरे विनाश के लक्षण हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जी अर्जुन को कह रहे हैं कि बाह्य विषयों के स्पर्श से अर्थात संयोग से जो भोग उत्पन्न होते हैं वे दुख को ही जन्म देते हैं। बुद्घिमान लोग इन भोगों के चक्र में नही पड़ते। वे इनके भंवर से बचकर निकलते हैं। संसार के भवसागर को तरने के लिए साधना की आवश्यकता है, रसना और वासना तो इस भवसागर में डुबा देने का काम करती हैं।

                             गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

भोगों के भंवरजाल से बचने के लिए ही वैदिक संस्कृति के महान ऋषि पतंजलि ने हमें अष्टांग योग का मार्ग दिया। हमारे कितने ही ऋषियों-महर्षियों और चरक, सुश्रुतादि जैसे अनेकों आयुर्वेदाचार्यों ने हमारा उचित, संतुलित और सात्विक आहार हमारे लिए नियत किया। जिससे कि हम सात्विक बुद्घि के उपासक बनें और आत्मोन्नति के योगमार्ग का अनुकरण करें। इन लोगों ने हमें भोगमार्ग से दूर रहकर योगमार्ग का रास्ता बताया और समझाया कि इन-इन उपायों को यदि अपनाओगे तो अपने भीतर के तम से लडऩे की शक्ति प्राप्त कर लोगे, जो तुम्हारे भीतर अज्ञान का गहन अन्धकार छुपा बैठा है उसे मिटा दोगे और संसार के सारतत्व को समझकर उन्नति के श्रेयमार्ग के पथिक बन जाओगे। यदि तुमने अपने आप से लडऩे की शक्ति प्राप्त कर ली तो याद रखना कि तब तुम ज्ञान के प्रकाश में नहा जाओगे। यह अवस्था ही वह अवस्था होती है जिसे श्रीकृष्ण गीता के पांचवें अध्याय में 'ब्रह्मयोग की अवस्था' कह रहे हैं। इसी में मनुष्य अक्षय सुख की अनुभूति करता है।

भोग मार्ग से होत है योग मार्ग अतिश्रेष्ठ।

ब्रह्मयोग का अक्षय सुख पाते हैं नरश्रेष्ठ।।

श्रीकृष्ण जी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहते हैं कि अर्जुन जो व्यक्ति इस शरीर के चोले को छोडऩे से पूर्व 'काम' और 'क्रोध' से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है-वही कर्मयोगी है और वही मनुष्य संसार में वास्तव में सुखी मानव कहलाता है।

वास्तव में कर्मयोगी का लक्ष्य 'काम' और 'क्रोध' को वश में कर लेना ही है। हमारे प्राचीन भारतीय समाज में 'काम' और 'क्रोध' पर विजय पाने वाले अनेकों लोग थे। भारत की जनसंख्या उस समय देव पुरूषों की जनसंख्या कहलाती थी। इसका कारण यही था कि ये सभी लोग देवता स्वभाव वाले होते थे। ये संसार देने का ही काम करते थे। उससे लेते बहुत कम थे और उसे लौटाते बहुत अधिक थे।

जिन लोगों ने हमारी संस्कृति का नाश किया और हमारे इतिहास को विकृत किया, वही आज हमारा उपहास करते हैं और कहते हैं कि तुम्हारे यहां तो बहुदेवतावाद रहा है, इसलिए तुम निकृष्ट हो। जो लोग देश में मूत्र्तिपूजादि के कारण बहुदेवतावादी हो गये हैं-उनके पास ऐसे लोगों के प्रश्नों के उत्तर नहीं होते, अन्यथा उन्हें तार्किक आधार पर बताया जा सकता है कि यह बहुदेवतावाद है क्या? यदि यह संसार आज भी 'काम' और 'क्रोध' पर विजय प्राप्त कर उनसे उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने की शक्ति प्राप्त कर ले तो इसे पता चल जाएगा कि बहुदेवतावाद क्या होता है? क्योंकि तब सारे विश्व की वर्तमान जनसंख्या (सात अरब से अधिक) सारी की सारी ही देवता हो जाएगी। भारत ऐसी ही बहुदेवतावादी संस्कृति का देश रहा है। इस देश ने नर को नारायण के रूप में पूजा भी है और उसे नर से नारायण बनाने का घोर परिश्रम भी किया है। संसार में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जिसके पास नर को नारायण बनाने का पारसमणि है। भूमण्डल के शेष देश इस पारसमणि से वंचित रहे हैं। यही कारण है कि वे भारत की संस्कृति के बहुत देवतावादी चिन्तन को समझ नहीं पाये। समय ऐसा भी आया जब भारत भी अपने इस चिन्तन से भटक गया और पत्थर को नारायण मानकर जड़पूजा में फंस गया।

सारी विश्व जनसंख्या को सुखी करने के लिए वर्तमान विश्व के पास न तो कोई टॉनिक है, और ना ही कोई दवाई है। बस, एक ही उपाय है और वह उपाय केवल भारत की वैदिक संस्कृति के पास है। जिसे गीता में श्रीकृष्ण जी 'कर्मयोग' के माध्यम से 'काम' और 'क्रोध' पर विजय प्राप्त करने के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।

काम के प्रति भारतीय समाज को पश्चिम के लोगों ने रूढि़वादी सोच का कहकर उसका उपहास उड़ाया है और उसे हेय दृष्टि से देखने का प्रयास किया है। इससे कितने ही आधुनिकतावादी भारतीयों के भीतर भी यही सोच विकसित हुई है कि हम काम (सैक्स) के प्रति खुले विचारों के नहीं हैं। जबकि सच ये है कि भारत 'काम' के प्रति सदा ही खुली सोच का रहा है। पर शर्त ये है कि ये काम उतना भोगना है-जितना सृष्टि चक्र को चलाने के लिए आवश्यक है। यदि उससे अधिक इसका उपभोग किया तो यह व्यक्ति को उल्टा मारने का भी काम करेगा। इसलिए भारत का 'काम' मर्यादाओं की 'चादर' में लिपटा रहता है। इस चादर को ही (लोक-लज्जा व शर्म-लिहाज) पश्चिम ने हमारी रूढि़वादिता कहा है। जिसे पश्चिम ने वास्तव में समझने में भूल की और एक मर्यादित बात को अमर्यादित ढंग से प्रस्तुत कर दिया। फलस्वरूप संसार में जिस काम नाम के शत्रु को भारत ने मर्यादा की चादर ओढ़ाकर बड़े यत्न से सुला रखा था-वह जाग गया और आज उसने जो संसार में ताण्डव मचा रखा है-उससे सारा ही विश्व वर्तमान में दु:खी है।

भारत को 'काम' को मर्यादा में रखा जाता था इसीलिए गांवों में घर और घर और घेर दूर-दूर होते थे। पुरूष लोग घर से दूर घेर में सोते थे, और बड़ी मर्यादा के साथ लुकछिपकर ही पत्नी के साथ सहवास करते थे। इससे उनका वीर्य नाश होने से बचता था, और वीर्यनाश ना होने से उनमें चिड़चिड़ाहट व क्रोध की भावना लगभग 'नहीं' के बराबर होती थी। उनमें सहनशक्ति होती थी और वह दीर्घजीवी भी होते थे। उनकी रोग निरोधक क्षमता अधिक होती थी और निरोग रहने से वे लोग सुखी भी रहते थे। इसी बात को तो सूत्र रूप में श्रीकृष्णजी अर्जुन को बताते हुए अन्त में यह कह रहे हैं कि 'काम' और 'क्रोध' के वेग को सहन करने वाला व्यक्ति ही कर्मयोगी है और वही सुखी भी है।

श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जो व्यक्ति (बाहरी विषयों में अपनी बुद्घि को न भटकाकर अर्थात सांसारिक भोगों में न फंसकर) अपने भीतर ही सुख के स्रोत को प्राप्त कर लेता है, अर्थात उसे खोज लेता है-अपने में ही सुख का खजाना, आनन्द का भण्डार प्राप्त कर लेता है, अपने भीतर ही ईश्वर की ज्योति को देख लेता है-उसे पा जाता है, वह योगी ब्रह्म रूप हो जाता है-उसे ही मुक्ति या मोक्ष का आनन्द प्राप्त होता है।

अगले श्लोक में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए गीताकार कहता है कि मुक्ति को वही लोग प्राप्त कर सकते हैं-जिनकी बुद्घि द्वैधभाव से ऊपर उठ गयी है। दूसरे-जिनके पाप पूर्णत: क्षीण हो गये हैं, तीसरे-जिन्होंने अपने आपको संयमित रखना सीख लिया है और चौथे-जिन्होंने अपने आपको सब प्राणियों के हित में लगा लिया है।


गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज

गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज


भारत ने ऐसे ही समदर्शी विद्वानों को उत्पन्न करने का कारखाना लगाया, और उससे अनेकों हीरे उत्पन्न कर संसार को दिये। भारत के जितने भर भी महापुरूष, ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी, साधक, और सन्त हुए हैं वे सभी इसी श्रेणी के रहे हैं। इन लोगों ने गीता के समदर्शी भाव को या समत्व भाव को हृदयंगम किया और उसकी मीठी-मीठी और धीमी-धीमी फुहारों को संसार के लोगों के ऊपर बिखेरने का प्रशंसनीय कार्य किया। इससे लोगों को असीम शान्ति प्राप्त हुई। संसार के लोगों ने भारत के समदर्शी दर्शन को समझने का प्रयास किया और उसे जितनी-जितनी मात्रा में समझने में सफलता प्राप्त की उतने-उतने अनुपात में ही उसका लाभ भी प्राप्त किया।
 

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व


हमारे दिव्य साधक महापुरूषों के सामने संसार के सारे वैभव शीश झुकाकर खड़े हो गये, कहने लगे कि जितना चाहो भोग लो हम तुम्हारे उपभोग के लिए अपने आपको मौन रहकर समर्पित करते हैं। हमारे महापुरूषों ने इसके उपरान्त भी उन्हें लात मार दी। कह दिया कि-'परे हटो। मुझे तुम्हारी चाह नहीं है। मैं वह हीरा हूं-जिसकी चाह तुम्हें हो सकती है।' ऐसी सोच ने भारत के समदर्शी विद्वानों को संसार के समस्त ऐश्वर्यों और वैभव का बादशाह बना दिया। उनकी चाह समाप्त हो गयी तो राह आसान हो गयी।

ब्रह्म है निर्दोष और समदर्शी भी हमेश।

मानव जो ऐसा बने मिटते सकल क्लेश।।

योगेश्वर श्रीकृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन ब्रह्म भी निर्दोष और सम है। इसलिए ये समदर्शी बुद्घि वाले व्यक्ति ब्रह्म में स्थिर रहते हैं, और उसके इसी गुण की उपासना करते रहने से संसार के सर्वश्रेष्ठ मानव बन जाते हैं। तुझे ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग अपनी मनचाही वस्तु को पाकर प्रसन्न ना होता हो और अप्रिय वस्तु को पाकर दु:खी नही होता, परेशान नहीं होता, उसकी बुद्घि स्थिर होती है। वह मोह में नहीं फंसता। जिससे वह ब्रह्मवेत्ता हो जाता है। जैसे ब्रह्म को कोई मोह नहीं सताता, वैसे ही वह समदर्शी भी मोह से दूर होकर ब्रह्म में स्थित हो जाता है। यह अवस्था उसकी आत्म विजय की स्थिति है।

भारत ने आत्मविजय को ही अपने राष्ट्रीय संकल्प के रूप में अपनाया है। कदाचित भारत का यह आत्मविजय का संकल्प ही भारत की वह चेतना है जिसने कभी दूसरे लोगों या देशों पर हमला करने के लिए प्रेरित नहीं किया। इसके विपरीत भारत के इस राष्ट्रीय संकल्प ने भारत के लोगों को समझा कि तुम्हें आत्म विजयी बनने की साधना करनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि प्रभु के नाम पर जप निरन्तर चलना चाहिए। प्रभु के नाम का जप करते रहने से हम संसार के लोगों के काम आना सीख जाते हैं। जो लोग संसार के लोगों के काम न आकर उनकी कामनाओं में विघ्न डालने का काम करते हैं, या संसार के लोगों को अपनी मूर्खताओं से दु:खी करते हैं-वे लोग संसार के लिए उपयोगी न होकर कष्टकारी हो जाते हैं और ऐसे कष्टकारी लोगों का विनाश करना अर्जुन जैसे क्षत्रियों का धर्म है। गीता अर्जुन को उसके इसी क्षात्र धर्म का स्मरण दिला रही है और उसे बता रही है कि दुर्योधन जैसी वृत्ति के लोग संसार के लोगों की कामनाओं में विघ्न डालने का कार्य करते हैं। अत: तुझे ऐसे लोगों का विनाश करने के लिए हथियार उठाने चाहिएं।

संसार में रहकर लोग इसलिए अधिक भटकते हैं कि वे या तो भूत में जीते रहते हैं या फिर भविष्य के सुनहरे सपनों को उधेड़ते बुनते रहते हैं। वह कभी भी वर्तमान में नहीं जी पाते। बड़े-बड़े शहरों में आधुनिकतम सुविधाओं से सम्पन्न स्वर्गसम पार्क, सडक़ आदि बनाये जाते हैं, पार्कों के दोनों ओर गहरी छाया वाले सदाबहार पेड़-पौधे लगाये जाते हैं। फूलों की क्यारियां बनायी जाती हैं। यह सब केवल इसलिए होता है कि मनुष्य उन्हें देखकर प्रसन्न रहे। उनकी छटा को देखकर उस प्यारे प्रभु को याद करे जिसने ये छटा बिखेरने की कला इन पेड़ पौधों को प्रदान की है। इस छटा में अपने इधर-उधर भागते मन को रमाने का प्रयास करे जिससे वह प्रभु के कामों को देखने का अभ्यासी बने, और अभ्यासी बनते-बनते ईश्वरभक्त बने। पर मनुष्य है कि वह इनसे भी प्रसन्न नहीं रहता। इनके बीच में रहकर भी वह या तो भूत की सोचकर दु:खी होता रहता है या फिर भविष्य की सोच-सोचकर सपनों के महल बनाता रहता है। वह अपने वर्तमान को देख नहीं पाता, समझ नहीं पाता, उसे संभाल नहीं पाता, उससे आनन्द नहीं ले पाता। उसके रस को कभी चूस नहीं पाता और उसके साथ कभी भी एकाकार नहीं हो पाता। क्योंकि उसकी बुद्घि में अभी समदर्शी होने का भाव नहीं आया है। इसलिए उसके भीतर भटकाव की स्थिति है। उधेड़ बुन की स्थिति है। अत: जो व्यक्ति संसार के वर्तमान सुखों में भी वर्तमान नहीं है, उनका भी वह आनन्द नहीं उठा पा रहा, तब उससे आत्मा के आनन्द का लक्ष्य उठाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे पार्थ! जो व्यक्ति बाहरी विषयों के स्पर्श में आसक्त नहीं होता, वह आत्मा में जो सुख वर्तमान रहता है-उसे प्राप्त करता है। (ये बाहरी विषय ही व्यक्ति को कभी भूत में तो कभी भविष्य में सैर कराते रहते हैं) ऐसा व्यक्ति ब्रह्मयोग से युक्त हो जाता है, अर्थात अपने आपको ब्रह्म के साथ जुड़ा हुआ अनुभव करने लगता है। (ब्रह्म) के साथ जुड़ा हुआ व्यक्ति ही संसार में बिखरे हुए प्राकृतिक सौंदर्य का रसास्वादन ले सकता है। वह उसमें रमता नहीं है, उसे साक्षी भाव से देखता है पर उसका मन एक जगह टिका रहने से वह उसका सुख अवश्य अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति अक्षय सुख का उपभोग करता है और उसे परमानन्द की प्राप्ति होती है। उसका सुख कभी क्षय को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उसमें भूत-भविष्य के संकल्प विकल्पों का सारा मकडज़ाल मिट जाता है।

जब यह मेला ही नही रहा, अर्थात संकल्प विकल्प का खेल ही समाप्त हो गया तो फिर दु:खी होने के लिए शेष क्या है? कुछ भी तो नहीं।

श्री कृष्ण जी कहते हैं कि हे कौन्तेय! बाहरी विषयों में जिनकी बुद्घि भटकती रहती है, मन के संकल्प विकल्पों के कारण जो व्यक्ति बाह्य विषयों के स्पर्श से या संयोग से भोगों को प्राप्त करता है, वे दु:ख को ही पैदा करने के कारण ऐसे व्यक्ति को भी दु:ख ही पहुंचाते हैं।

भर्तृहरि जी का भी कहना है कि भोगों को हम नहीं भोगते, अपितु भोग ही हमें भोग लेते हैं। 'भोग ही हमें भोग लेते हैं'-का अभिप्राय है कि ये भोग अन्त में हमें पटक-पटककर कर मार डालते हैं। इनकी पटकी खाने से हमें दु:ख होता है। शरीर की आंख नाम की इन्द्रिय देखना बन्द कर देती है। कान सुनना बन्द कर देते हैं, रसना का स्वाद जाताा रहता है, क्योंकि पेट की भूख मर जाती है इत्यादि। घुटने साथ छोड़ जाते हैं, हाथ अशक्त हो जाते हैं और जो चेहरा कभी लालिमा लिये होता था वह झुर्रियों की आगोश में जाकर तेजहीन और कान्तिहीन हो जाता है। जिस सिर पर कभी अपने भार से भी ड़ेढ़ गुणा वजन लेकर व्यक्ति चल लेता था-वह अब अपना भी वजन साधने में असहाय होने लगता है। यह अवस्था हमारी भोगों में लिप्त होने के कारण होती है। भोग हमें खाते जा रहे हैं और हम सोच रहे हैं कि हम भोगों का आनन्द ले रहे हैं। इसे ही तो आत्मविनाश कहते हैं इसी को आत्म प्रवंचना कहा जाता है।
 
 
 
 
 
अंत में 
 
अहम ने एक वहम पाल रखा है,
कि
सबकुछ "मैंने ही" संभाल रखा है
 

क्या है वैराग्य


वैराग्य का मतलब दुनिया को छोड़ना कदापि नहीं अपितु दुनिया के लिए छोड़ना है। 

वैराग्य अर्थात एक ऐसी विचारधारा जब कोई व्यक्ति मै और मेरे से ऊपर उठकर जीने लगता है। 

 समाज को छोड़कर चले जाना वैराग्य नहीं है अपितु समाज को जोड़कर समाज के लिए जीना वैराग्य है। 

किसी वस्तु का त्याग वैराग्य नहीं है अपितु किसी वस्तु के प्रति अनासक्ति वैराग्य है।  

जब किसी वस्तु को बाँटकर खाने का भाव किसी के मन में आ जाता है तो सच मानिये यही वैराग्य है। 

दूसरों के दुःख से दुखी होना और अपने सुख को बाँटने का भाव जिस दिन आपके मन में आने लग जाता है, उसी दिन गृहस्थ में रहते हुए आप सच्चे वैरागी बन जाते हो।

 

 

 

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व


अज्ञान का पर्दा ज्ञान पर पड़ा हुआ हे पार्थ !

इसे हटाने के लिए दूर करो निज स्वार्थ।।

योगेश्वर श्रीकृष्णजी के द्वारा गीताकार अपनी बात को आगे बढ़ाता है और कहता है कि संसार में ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है, संसार के लोग इस अज्ञान की रात्रि में चारों ओर मारे मारे फिर रहे हैं अर्थात भटक रहे हैं। मोहपाश में पड़े रहकर दु:ख के बंधनों में जकड़े जाते हैं और लाख उपाय करने के उपरान्त भी उससे बच नहीं पा रहे हैं। अन्त में मृत्युपाश में जकडक़र स्वयं को अपने आप ही मृत्यु का ग्रास बना रहे हैं। लोगों को भ्रम है कि मृत्यु उनकी ओर आ रही है (यह अज्ञान है) और उन्हें खा जाएगी, पर वास्तव में सच ये है कि लोग ही मृत्यु की ओर भागे जा रहे हैं। वह स्वयं ही मोहपाश में बंधे होकर और कर्मयोग का या निष्कामभाव का रास्ता न पकडऩे के कारण स्वयं को मृत्यु की भेंट चढ़ा रहे हैं। इसी से संसार में मृत्यु को लेकर नित्य प्रति का कारूण-क्रन्दन व चीत्कार देखने को मिलती हैं। मृत्यु को आते हुए देख कर भी लोग रोते हैं और जब वह किसी को यहां से लेकर चल देती है तो उस जाने वाले के लिए भी राते हैं।

निष्काम कर्म योगी इस पर आने वाली मृत्यु को देखकर रोता नहीं है। वह तो उसका एक अतिथि के रूप में स्वागत करता है। कहता है कि ''मैं आपके ही इंतजार में था। चलो! कहां लेकर चलना है मुझे?'' यह जो मृत्यु है, ना ये जितनी बहादुर दीखती है, उतनी है नहीं। इससे जिसने यह कहने का साहस कर लिया कि-'चलो! कहां लेकर चलना है मुझे? मैं तुमसे डरने वाला नहीं हूं।'- यह उसे छोडक़र चल देती है। कह देती है कि-'तुझे मैंने अमरत्व दिया, जा तू उसी की अर्थात अमरत्व की गोद में चला जा।' ऐसा कहने वाले को मोक्ष मिल जाता है जहां मृत्यु की भी मृत्यु हो जाती है।

भारत मृत्यु की मृत्यु करने की साधना करने वाला देश रहा है। यह संसार मृत्यु को देखकर रो रहा है और मेरा भारत मृत्यु को देखकर हंसता रहा है। अपने इसी दिव्य और अलौकिक गुण के कारण भारत विश्वगुरू रहा है। इसी गुण के कारण शेष संसार में भारत को आश्चर्य और कौतूहल भरी दृष्टि से देखा है।

संसार को मृत्यु मिटाती जा रही है और भारत मृत्यु पर विजय प्राप्त कर उसे परास्त करता जा रहा है। भारत वही है जो अमरत्व के प्रकाश (भा) में अर्थात आभा में रत रहता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण जी भारत की इसी आभामयी संस्कृति के व्याख्याकार प्रणेता और प्रचेता आप्तपुरूष हैं। वह भारत को अपने विश्वगुरू के पद से फिसलने देना नहीं चाहते, और इसी के लिए वह अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अर्जुन को वह 'भारत' कहकर बुलाते हैं तो उसका अर्थ अर्जुन का 'भरतवंशी' होना तो है ही साथ ही यह भी है कि ''तू भारत है अर्थात अमरत्व की आभा में, प्रकाश में रत रहने वाला है। तू मृत्यु को देखकर भागे मत, अपितु इसका स्वागत कर और इसे बता कि संसार में अज्ञानान्धकार को फैलाने वाली शक्तियों का संहार जैसे तू करती है वैसे ही आज मैं भी करने को उद्यत हो रहा हूं। इन्हें मिटाकर मैं तेरा काम करूंगा और अपने 'भारत' होने का प्रमाण दूंगा।''

श्रीकृष्णजी पांचवें अध्याय में कह रहे हैं कि जिनका ज्ञान से अज्ञान नष्ट हो जाता है, उनका ज्ञान सूर्य के प्रकाश की भांति उस परमब्रह्म को प्रकाशित कर देता है।

अज्ञान को काटना है या नष्ट करना है तो वह ज्ञान से ही काटा जा सकेगा। ज्ञानपूर्वक यत्न करते रहने से अज्ञान का पाश कट जाएगा और जैसे ही अज्ञान कटेगा वैसे ही अहंकार आदि सांसारिक दोष भी हमसे दूर हो जाएंगे। इसके लिए अपनी बुद्घि को उस परमब्रह्म में रमाना पड़ता है। बुद्घि को ब्रह्मनिष्ठ बनाना पड़ता है। ऐसा होते ही पापों के प्रति बुद्घि दूरी बनाने लगती है। इसे गीताकार ने पापों का ज्ञान से धुल जाना कहा है। ऐसी अवस्था में साधक को अपने आप अपने आप ही दीखने लगते हैं। उन पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हट जाता है। तब साधक पाप से बचने के लिए तड़प उठता है। इस तड़पन से वह और अधिक पाप करने से बचने लगता है। जब व्यक्ति पाप से बचने लगता है तो इसे ही 'ईश्वरीय कृपा' कहा जाता है।

कर्मयोगी के लक्षण

जब कोई व्यक्ति ब्रह्म में लीन हो जाता है, उसकी बुद्घि जब परमब्रह्म में रम जाती है, उसका अंत:करण परमब्रह्म मेें रंग जाता है, भीग जाता है अर्थात उसके अंत:करण में सर्वत्र उस प्यारे प्रभु का नूर अर्थात उसका दिव्य प्रकाश प्रकट हो जाता है-बिखर जाता है, तब वह 'ब्रह्मनिष्ठ' हो जाने के कारण पंडित हो जाता है। उसका सारा अज्ञान-अंधकार मिट जाता है। उसे सर्वत्र अपने परम ब्रह्म का ही नाद गुंजित होता हुआ, सुनाई देने लगता है। उसका अज्ञान मिट जाने से वह समदर्शी हो जाता है। वह सबको एक दृष्टि से देखने लगता है। वह 'गाय' हाथी, कुत्ता, चाण्डाल आदि कहकर उनमें अपनी बुद्घि को भ्रमित नहीं करता, अपितु उन सबमें वह एक ही आत्मा के दर्शन करता है। सोचता है कि जैसा आत्मा मुझमें है-वैसा ही इन सब में भी है। ऐसे समदर्शी महामानवों के विषय में श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि वे इस संसार को जीत लेते हैं। अभिप्राय है कि वे संसार के वास्तविक विजेता बन जाते हैं।


संसार को जीतने की कितनी सरल रीति कृष्ण जी ने बता दी है। इसके लिए आज का संसार सिकन्दर, नैपोलियन, अलाउद्दीन खिलजी, और अकबर आदि तानाशाहों या बादशाहों को विश्व विजेता बनने का सपना देखने वाला कहकर उनका महिमामंडन करता है, पर वास्तव में ये तो किसी भी ढंग से या स्तर से 'विश्व विजेता' नहीं थे। हां, अपने इस सपने को साकार करने के लिए इन लोगों ने हजारों लाखों लोगों के प्राण अवश्य ले लिये। इसलिए ये संसार के लिए दानव तो कहे जा सकते हैं, पर इन्हें कभी भी देवता नहीं कहा जा सकता। संसार मानवता के हत्यारों को 'विश्व विजेता' मान रहा है और इसीलिए दु:खी है। क्योंकि इसी राह को पकडऩे वाले अगले 'विश्व विजेता' उत्पन्न होते जा रहे हैं। ये जितने भर भी आतंकी संगठन हैं-इनका लक्ष्य भी अपने मजहब को विश्व का मजहब बनाकर विश्व विजेता बनने का है। इधर भारत की गीता है जो कह रही है कि समदर्शी विद्वान ही वास्तविक विश्व विजेता हैं।