दोस्तों,
दीपावली के मुख्य पर्व के बाद अगले दिन गोवर्धन पूजा का विधान है। इसका आध्यात्मिक महत्व तो है ही जिसके कारण यह त्यौहार पूरे उत्तर भारत ही नहीं देश के अन्य क्षेत्रों में भी मनाया जाता है। किन्तु इस प्रथा का मनोवैज्ञानिक तथा मैनेजेरिअल कारण भी है। आइये जरा इस पर विचार करते है की गोवर्द्धन पूजा हमें क्या रिमाइंड करवाती है और इससे प्राप्त सीख का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है। आइए जरा विचार करें।
आध्यात्मिक कथा
गोवर्धनलीला के संदर्भ में श्रीकृष्ण की मूलचिंता थी ईश्वर के नाम पर
मानवता का शोषण। ब्रज का तत्कालीन समाज तब जल और कृषि में समृद्धि के लिए
इंद्र की पूजा करता था। पूजा के नाम पर तब पाखंड रचा जाता।
श्रीकृष्ण ने ब्रजवासी जनों से कहा कि वे मुख्यतः ग्राम/वनों में निवास और विचरण करते हैं। अतः उन्हें अपने पर्यावरण का ही पूजन करना चाहिए। यह भी बताया कि वर्षा का जल इंद्र से न आकर वृक्ष, पर्वतों की कृपा से उपलब्ध होता है।
श्रीकृष्ण ने ब्रजवासी जनों से कहा कि वे मुख्यतः ग्राम/वनों में निवास और विचरण करते हैं। अतः उन्हें अपने पर्यावरण का ही पूजन करना चाहिए। यह भी बताया कि वर्षा का जल इंद्र से न आकर वृक्ष, पर्वतों की कृपा से उपलब्ध होता है।
ब्रजवासियों ने पर्यावरण के देवता श्री गोवर्धन को सम्मानित का उत्सव
प्रारंभ किया। इस उत्सव का एक और गहरा महत्व है। श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाओं
के द्वारा भक्ति अर्थात् सेवा को ही प्रमुख साधन स्वीकार किया। अतः उनका यह
संकल्प था कि आध्यात्म जगत में भी भक्त की प्रतिष्ठा सर्वोपरि होनी चाहिए।
श्री कृष्ण की परम उपासिक ब्रज गोपिकागण गोवर्धन महाराज को ही श्रीकृष्ण का
सर्वश्रेष्ठ भक्त कहकर संबोधित करते हैं। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा कि ‘मैं
भक्तन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’। अतः दीपावली के दूसरे दिन इंद्र के
स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों के द्वारा भक्त शिरोमणि गोवर्धन
महाराज का विधिवत् पूजन अर्चन कराया।
इतना ही नहीं पूजन के समय गोवर्धन की प्रत्येक पावन शिला में ब्रजवासियों को श्रीकृष्ण के मुखारबिंद के ही दर्शन हुए। इसका तात्पर्य है कि गोवर्धन पूजन भक्त और भगवान के पूर्ण एकाकार और तादाद में होने का उत्सव है।
इतना ही नहीं पूजन के समय गोवर्धन की प्रत्येक पावन शिला में ब्रजवासियों को श्रीकृष्ण के मुखारबिंद के ही दर्शन हुए। इसका तात्पर्य है कि गोवर्धन पूजन भक्त और भगवान के पूर्ण एकाकार और तादाद में होने का उत्सव है।
मनोवैज्ञानिक कारण
श्रीकृष्ण जी ने बृज वासिओं को पर्यावरण के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के लिये उन्हें यह समझाया की हवा और पानी उन्हें इन्द्र देव कृपा से प्राप्त नहीं होता है बल्कि वन,नदियाँ एवं पर्वत इत्यादि इसका साधन है अतः हमें इनकी पूजा करनी चाहिये। इस बात से कुपित होकर इन्द्र ने वर्षा करनी शुरू कर दी तो श्री कृष्ण जी ने सभी बृजवासियों को बुला कर गोवर्द्धन पर्वत को ऊँगली पर उठा कर उसके नीचे शरण ली। इस कार्य में उन्होंने सभी का सहयोग सुनिश्चित किया इससे एक तो टीम भावना का प्रकटीकरण हुआ और सभी कुछ समाज का एक कोई शक्तिशाली व्यक्ति करेगा इसको भी दिमाग से निकालने में सफल हुए। यह हमारा काम है सब सहयोग करेंगे तो पर्यावरण सुधरेगा बचेगा इस बात को भी समझाने में श्रीकृष्ण जी सफल हुए।
मैनेजेरियल कारण
कोई भी प्रोजेक्ट अथवा काम टीम भावना से करने से सफल होता है यह बात श्रीकृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत को उठाने में सब का सहयोग ले कर सिद्ध की और साथ ही यह भी की सबका साथ ही सबकी रक्षा की गारण्टी हो सकता है। एक और महत्व पूर्ण बात है की जो सदियों से इन्द्र की पूजा का क्रम चल रहा था उसको लॉजिकली बन्द करवाया एवम जो अच्छे पर्यावरण के घटक थे उनको महत्व दिलाने का काम शुरू करवाया। अर्थात यदि कोई प्रथा सदियों से भी चली आ रही हो तो भी उसका अन्धानुशरण करने के बजाय उस पर विचार कर जो सत्य है उस पर पहुंचे और उसका पालन करे। दिखावटी सत्य का पालन करने से बचे ।
अजय सिंह "जी एस के "
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