गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज
इस
आत्मविनाश और आत्मप्रवंचना के मार्ग को सारा संसार अपना रहा है। रसना और
वासना का भूत सारे संसार के लोगों पर चढ़ा बैठा है। इसके उपरान्त भी सारा
संसार कह रहा है कि मजा आ गया। इस भोले संसार को नहीं पता कि रसना और वासना
का यह मजा (और मजा का उल्टा दारू का जाम) ही तो तेरे विनाश के लक्षण हैं।
इसीलिए श्रीकृष्ण जी अर्जुन को कह रहे हैं कि बाह्य विषयों के स्पर्श से
अर्थात संयोग से जो भोग उत्पन्न होते हैं वे दुख को ही जन्म देते हैं।
बुद्घिमान लोग इन भोगों के चक्र में नही पड़ते। वे इनके भंवर से बचकर
निकलते हैं। संसार के भवसागर को तरने के लिए साधना की आवश्यकता है, रसना और
वासना तो इस भवसागर में डुबा देने का काम करती हैं।
गीता का कर्मयोग और आज का विश्व
भोगों
के भंवरजाल से बचने के लिए ही वैदिक संस्कृति के महान ऋषि पतंजलि ने हमें
अष्टांग योग का मार्ग दिया। हमारे कितने ही ऋषियों-महर्षियों और चरक,
सुश्रुतादि जैसे अनेकों आयुर्वेदाचार्यों ने हमारा उचित, संतुलित और
सात्विक आहार हमारे लिए नियत किया। जिससे कि हम सात्विक बुद्घि के उपासक
बनें और आत्मोन्नति के योगमार्ग का अनुकरण करें। इन लोगों ने हमें भोगमार्ग
से दूर रहकर योगमार्ग का रास्ता बताया और समझाया कि इन-इन उपायों को यदि
अपनाओगे तो अपने भीतर के तम से लडऩे की शक्ति प्राप्त कर लोगे, जो तुम्हारे
भीतर अज्ञान का गहन अन्धकार छुपा बैठा है उसे मिटा दोगे और संसार के
सारतत्व को समझकर उन्नति के श्रेयमार्ग के पथिक बन जाओगे। यदि तुमने अपने
आप से लडऩे की शक्ति प्राप्त कर ली तो याद रखना कि तब तुम ज्ञान के प्रकाश
में नहा जाओगे। यह अवस्था ही वह अवस्था होती है जिसे श्रीकृष्ण गीता के
पांचवें अध्याय में 'ब्रह्मयोग की अवस्था' कह रहे हैं। इसी में मनुष्य
अक्षय सुख की अनुभूति करता है।
भोग मार्ग से होत है योग मार्ग अतिश्रेष्ठ।
ब्रह्मयोग का अक्षय सुख पाते हैं नरश्रेष्ठ।।
श्रीकृष्ण
जी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहते हैं कि अर्जुन जो व्यक्ति इस
शरीर के चोले को छोडऩे से पूर्व 'काम' और 'क्रोध' से उत्पन्न होने वाले वेग
को सहन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है-वही कर्मयोगी है और वही मनुष्य
संसार में वास्तव में सुखी मानव कहलाता है।
वास्तव
में कर्मयोगी का लक्ष्य 'काम' और 'क्रोध' को वश में कर लेना ही है। हमारे
प्राचीन भारतीय समाज में 'काम' और 'क्रोध' पर विजय पाने वाले अनेकों लोग
थे। भारत की जनसंख्या उस समय देव पुरूषों की जनसंख्या कहलाती थी। इसका कारण
यही था कि ये सभी लोग देवता स्वभाव वाले होते थे। ये संसार देने का ही काम
करते थे। उससे लेते बहुत कम थे और उसे लौटाते बहुत अधिक थे।
जिन
लोगों ने हमारी संस्कृति का नाश किया और हमारे इतिहास को विकृत किया, वही
आज हमारा उपहास करते हैं और कहते हैं कि तुम्हारे यहां तो बहुदेवतावाद रहा
है, इसलिए तुम निकृष्ट हो। जो लोग देश में मूत्र्तिपूजादि के कारण
बहुदेवतावादी हो गये हैं-उनके पास ऐसे लोगों के प्रश्नों के उत्तर नहीं
होते, अन्यथा उन्हें तार्किक आधार पर बताया जा सकता है कि यह बहुदेवतावाद
है क्या? यदि यह संसार आज भी 'काम' और 'क्रोध' पर विजय प्राप्त कर उनसे
उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने की शक्ति प्राप्त कर ले तो इसे पता चल
जाएगा कि बहुदेवतावाद क्या होता है? क्योंकि तब सारे विश्व की वर्तमान
जनसंख्या (सात अरब से अधिक) सारी की सारी ही देवता हो जाएगी। भारत ऐसी ही
बहुदेवतावादी संस्कृति का देश रहा है। इस देश ने नर को नारायण के रूप में
पूजा भी है और उसे नर से नारायण बनाने का घोर परिश्रम भी किया है। संसार
में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जिसके पास नर को नारायण बनाने का पारसमणि
है। भूमण्डल के शेष देश इस पारसमणि से वंचित रहे हैं। यही कारण है कि वे
भारत की संस्कृति के बहुत देवतावादी चिन्तन को समझ नहीं पाये। समय ऐसा भी
आया जब भारत भी अपने इस चिन्तन से भटक गया और पत्थर को नारायण मानकर
जड़पूजा में फंस गया।
सारी
विश्व जनसंख्या को सुखी करने के लिए वर्तमान विश्व के पास न तो कोई टॉनिक
है, और ना ही कोई दवाई है। बस, एक ही उपाय है और वह उपाय केवल भारत की
वैदिक संस्कृति के पास है। जिसे गीता में श्रीकृष्ण जी 'कर्मयोग' के माध्यम
से 'काम' और 'क्रोध' पर विजय प्राप्त करने के रूप में प्रस्तुत कर रहे
हैं।
काम के प्रति भारतीय
समाज को पश्चिम के लोगों ने रूढि़वादी सोच का कहकर उसका उपहास उड़ाया है और
उसे हेय दृष्टि से देखने का प्रयास किया है। इससे कितने ही आधुनिकतावादी
भारतीयों के भीतर भी यही सोच विकसित हुई है कि हम काम (सैक्स) के प्रति
खुले विचारों के नहीं हैं। जबकि सच ये है कि भारत 'काम' के प्रति सदा ही
खुली सोच का रहा है। पर शर्त ये है कि ये काम उतना भोगना है-जितना सृष्टि
चक्र को चलाने के लिए आवश्यक है। यदि उससे अधिक इसका उपभोग किया तो यह
व्यक्ति को उल्टा मारने का भी काम करेगा। इसलिए भारत का 'काम' मर्यादाओं की
'चादर' में लिपटा रहता है। इस चादर को ही (लोक-लज्जा व शर्म-लिहाज) पश्चिम
ने हमारी रूढि़वादिता कहा है। जिसे पश्चिम ने वास्तव में समझने में भूल की
और एक मर्यादित बात को अमर्यादित ढंग से प्रस्तुत कर दिया। फलस्वरूप संसार
में जिस काम नाम के शत्रु को भारत ने मर्यादा की चादर ओढ़ाकर बड़े यत्न से
सुला रखा था-वह जाग गया और आज उसने जो संसार में ताण्डव मचा रखा है-उससे
सारा ही विश्व वर्तमान में दु:खी है।
भारत
को 'काम' को मर्यादा में रखा जाता था इसीलिए गांवों में घर और घर और घेर
दूर-दूर होते थे। पुरूष लोग घर से दूर घेर में सोते थे, और बड़ी मर्यादा के
साथ लुकछिपकर ही पत्नी के साथ सहवास करते थे। इससे उनका वीर्य नाश होने से
बचता था, और वीर्यनाश ना होने से उनमें चिड़चिड़ाहट व क्रोध की भावना लगभग
'नहीं' के बराबर होती थी। उनमें सहनशक्ति होती थी और वह दीर्घजीवी भी होते
थे। उनकी रोग निरोधक क्षमता अधिक होती थी और निरोग रहने से वे लोग सुखी भी
रहते थे। इसी बात को तो सूत्र रूप में श्रीकृष्णजी अर्जुन को बताते हुए
अन्त में यह कह रहे हैं कि 'काम' और 'क्रोध' के वेग को सहन करने वाला
व्यक्ति ही कर्मयोगी है और वही सुखी भी है।
श्रीकृष्णजी
कहते हैं कि जो व्यक्ति (बाहरी विषयों में अपनी बुद्घि को न भटकाकर अर्थात
सांसारिक भोगों में न फंसकर) अपने भीतर ही सुख के स्रोत को प्राप्त कर
लेता है, अर्थात उसे खोज लेता है-अपने में ही सुख का खजाना, आनन्द का
भण्डार प्राप्त कर लेता है, अपने भीतर ही ईश्वर की ज्योति को देख लेता
है-उसे पा जाता है, वह योगी ब्रह्म रूप हो जाता है-उसे ही मुक्ति या मोक्ष
का आनन्द प्राप्त होता है।
अगले
श्लोक में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए गीताकार कहता है कि मुक्ति को वही
लोग प्राप्त कर सकते हैं-जिनकी बुद्घि द्वैधभाव से ऊपर उठ गयी है।
दूसरे-जिनके पाप पूर्णत: क्षीण हो गये हैं, तीसरे-जिन्होंने अपने आपको
संयमित रखना सीख लिया है और चौथे-जिन्होंने अपने आपको सब प्राणियों के हित
में लगा लिया है।
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