गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज
भारत
ने ऐसे ही समदर्शी विद्वानों को उत्पन्न करने का कारखाना लगाया, और उससे
अनेकों हीरे उत्पन्न कर संसार को दिये। भारत के जितने भर भी महापुरूष,
ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी, साधक, और सन्त हुए हैं वे सभी इसी श्रेणी के रहे
हैं। इन लोगों ने गीता के समदर्शी भाव को या समत्व भाव को हृदयंगम किया और
उसकी मीठी-मीठी और धीमी-धीमी फुहारों को संसार के लोगों के ऊपर बिखेरने का
प्रशंसनीय कार्य किया। इससे लोगों को असीम शान्ति प्राप्त हुई। संसार के
लोगों ने भारत के समदर्शी दर्शन को समझने का प्रयास किया और उसे
जितनी-जितनी मात्रा में समझने में सफलता प्राप्त की उतने-उतने अनुपात में
ही उसका लाभ भी प्राप्त किया।
गीता का कर्मयोग और आज का विश्व
हमारे
दिव्य साधक महापुरूषों के सामने संसार के सारे वैभव शीश झुकाकर खड़े हो
गये, कहने लगे कि जितना चाहो भोग लो हम तुम्हारे उपभोग के लिए अपने आपको
मौन रहकर समर्पित करते हैं। हमारे महापुरूषों ने इसके उपरान्त भी उन्हें
लात मार दी। कह दिया कि-'परे हटो। मुझे तुम्हारी चाह नहीं है। मैं वह हीरा
हूं-जिसकी चाह तुम्हें हो सकती है।' ऐसी सोच ने भारत के समदर्शी विद्वानों
को संसार के समस्त ऐश्वर्यों और वैभव का बादशाह बना दिया। उनकी चाह समाप्त
हो गयी तो राह आसान हो गयी।
ब्रह्म है निर्दोष और समदर्शी भी हमेश।
मानव जो ऐसा बने मिटते सकल क्लेश।।
योगेश्वर
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन ब्रह्म भी निर्दोष और सम है। इसलिए ये
समदर्शी बुद्घि वाले व्यक्ति ब्रह्म में स्थिर रहते हैं, और उसके इसी गुण
की उपासना करते रहने से संसार के सर्वश्रेष्ठ मानव बन जाते हैं। तुझे ध्यान
रखना चाहिए कि जो लोग अपनी मनचाही वस्तु को पाकर प्रसन्न ना होता हो और
अप्रिय वस्तु को पाकर दु:खी नही होता, परेशान नहीं होता, उसकी बुद्घि स्थिर
होती है। वह मोह में नहीं फंसता। जिससे वह ब्रह्मवेत्ता हो जाता है। जैसे
ब्रह्म को कोई मोह नहीं सताता, वैसे ही वह समदर्शी भी मोह से दूर होकर
ब्रह्म में स्थित हो जाता है। यह अवस्था उसकी आत्म विजय की स्थिति है।
भारत
ने आत्मविजय को ही अपने राष्ट्रीय संकल्प के रूप में अपनाया है। कदाचित
भारत का यह आत्मविजय का संकल्प ही भारत की वह चेतना है जिसने कभी दूसरे
लोगों या देशों पर हमला करने के लिए प्रेरित नहीं किया। इसके विपरीत भारत
के इस राष्ट्रीय संकल्प ने भारत के लोगों को समझा कि तुम्हें आत्म विजयी
बनने की साधना करनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि प्रभु के नाम पर जप
निरन्तर चलना चाहिए। प्रभु के नाम का जप करते रहने से हम संसार के लोगों के
काम आना सीख जाते हैं। जो लोग संसार के लोगों के काम न आकर उनकी कामनाओं
में विघ्न डालने का काम करते हैं, या संसार के लोगों को अपनी मूर्खताओं से
दु:खी करते हैं-वे लोग संसार के लिए उपयोगी न होकर कष्टकारी हो जाते हैं और
ऐसे कष्टकारी लोगों का विनाश करना अर्जुन जैसे क्षत्रियों का धर्म है।
गीता अर्जुन को उसके इसी क्षात्र धर्म का स्मरण दिला रही है और उसे बता रही
है कि दुर्योधन जैसी वृत्ति के लोग संसार के लोगों की कामनाओं में विघ्न
डालने का कार्य करते हैं। अत: तुझे ऐसे लोगों का विनाश करने के लिए हथियार
उठाने चाहिएं।
संसार में
रहकर लोग इसलिए अधिक भटकते हैं कि वे या तो भूत में जीते रहते हैं या फिर
भविष्य के सुनहरे सपनों को उधेड़ते बुनते रहते हैं। वह कभी भी वर्तमान में
नहीं जी पाते। बड़े-बड़े शहरों में आधुनिकतम सुविधाओं से सम्पन्न स्वर्गसम
पार्क, सडक़ आदि बनाये जाते हैं, पार्कों के दोनों ओर गहरी छाया वाले
सदाबहार पेड़-पौधे लगाये जाते हैं। फूलों की क्यारियां बनायी जाती हैं। यह
सब केवल इसलिए होता है कि मनुष्य उन्हें देखकर प्रसन्न रहे। उनकी छटा को
देखकर उस प्यारे प्रभु को याद करे जिसने ये छटा बिखेरने की कला इन पेड़
पौधों को प्रदान की है। इस छटा में अपने इधर-उधर भागते मन को रमाने का
प्रयास करे जिससे वह प्रभु के कामों को देखने का अभ्यासी बने, और अभ्यासी
बनते-बनते ईश्वरभक्त बने। पर मनुष्य है कि वह इनसे भी प्रसन्न नहीं रहता।
इनके बीच में रहकर भी वह या तो भूत की सोचकर दु:खी होता रहता है या फिर
भविष्य की सोच-सोचकर सपनों के महल बनाता रहता है। वह अपने वर्तमान को देख
नहीं पाता, समझ नहीं पाता, उसे संभाल नहीं पाता, उससे आनन्द नहीं ले पाता।
उसके रस को कभी चूस नहीं पाता और उसके साथ कभी भी एकाकार नहीं हो पाता।
क्योंकि उसकी बुद्घि में अभी समदर्शी होने का भाव नहीं आया है। इसलिए उसके
भीतर भटकाव की स्थिति है। उधेड़ बुन की स्थिति है। अत: जो व्यक्ति संसार के
वर्तमान सुखों में भी वर्तमान नहीं है, उनका भी वह आनन्द नहीं उठा पा रहा,
तब उससे आत्मा के आनन्द का लक्ष्य उठाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे पार्थ! जो व्यक्ति बाहरी विषयों के स्पर्श में
आसक्त नहीं होता, वह आत्मा में जो सुख वर्तमान रहता है-उसे प्राप्त करता
है। (ये बाहरी विषय ही व्यक्ति को कभी भूत में तो कभी भविष्य में सैर कराते
रहते हैं) ऐसा व्यक्ति ब्रह्मयोग से युक्त हो जाता है, अर्थात अपने आपको
ब्रह्म के साथ जुड़ा हुआ अनुभव करने लगता है। (ब्रह्म) के साथ जुड़ा हुआ
व्यक्ति ही संसार में बिखरे हुए प्राकृतिक सौंदर्य का रसास्वादन ले सकता
है। वह उसमें रमता नहीं है, उसे साक्षी भाव से देखता है पर उसका मन एक जगह
टिका रहने से वह उसका सुख अवश्य अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति अक्षय सुख का
उपभोग करता है और उसे परमानन्द की प्राप्ति होती है। उसका सुख कभी क्षय को
प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उसमें भूत-भविष्य के संकल्प विकल्पों का सारा
मकडज़ाल मिट जाता है।
जब यह मेला ही नही रहा, अर्थात संकल्प विकल्प का खेल ही समाप्त हो गया तो फिर दु:खी होने के लिए शेष क्या है? कुछ भी तो नहीं।
श्री
कृष्ण जी कहते हैं कि हे कौन्तेय! बाहरी विषयों में जिनकी बुद्घि भटकती
रहती है, मन के संकल्प विकल्पों के कारण जो व्यक्ति बाह्य विषयों के स्पर्श
से या संयोग से भोगों को प्राप्त करता है, वे दु:ख को ही पैदा करने के
कारण ऐसे व्यक्ति को भी दु:ख ही पहुंचाते हैं।
भर्तृहरि
जी का भी कहना है कि भोगों को हम नहीं भोगते, अपितु भोग ही हमें भोग लेते
हैं। 'भोग ही हमें भोग लेते हैं'-का अभिप्राय है कि ये भोग अन्त में हमें
पटक-पटककर कर मार डालते हैं। इनकी पटकी खाने से हमें दु:ख होता है। शरीर की
आंख नाम की इन्द्रिय देखना बन्द कर देती है। कान सुनना बन्द कर देते हैं,
रसना का स्वाद जाताा रहता है, क्योंकि पेट की भूख मर जाती है इत्यादि।
घुटने साथ छोड़ जाते हैं, हाथ अशक्त हो जाते हैं और जो चेहरा कभी लालिमा
लिये होता था वह झुर्रियों की आगोश में जाकर तेजहीन और कान्तिहीन हो जाता
है। जिस सिर पर कभी अपने भार से भी ड़ेढ़ गुणा वजन लेकर व्यक्ति चल लेता
था-वह अब अपना भी वजन साधने में असहाय होने लगता है। यह अवस्था हमारी भोगों
में लिप्त होने के कारण होती है। भोग हमें खाते जा रहे हैं और हम सोच रहे
हैं कि हम भोगों का आनन्द ले रहे हैं। इसे ही तो आत्मविनाश कहते हैं इसी को
आत्म प्रवंचना कहा जाता है।
अंत में
अहम ने एक वहम पाल रखा है,
कि
सबकुछ "मैंने ही" संभाल रखा है
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