Tuesday, February 17, 2015

शिव रात्रि क्यों और कैसे मनाये ?

दोस्तों ,
हम लोग शिवरात्रि का त्यौहार वर्षो से परम्परागत तौर - तरीको से मनाते चले आ रहे है . दूध ,बेलपत्र अक्षत ,फूल माला और जल चढ़ाना और कुछ श्लोक इत्यादि पढ़ना यही परंपरा चली  आ रही है.शिव अभिषेक और श्रृंगार भी इसी परम्परा का हिस्सा है. किन्तु इस बार पूरे त्योहार को समझने और इसे मनाने की विधी गुरु कृपा रूप में हम लोगो को प्राप्त हुई है. मेरा मानना है की इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को जानकर लाभ उठाना चाहिये।इस वर्णन का यही  उद्देश्य है ,वर्णन में गलती होने की सम्भवना के लिए अग्रिम क्षमा प्रार्थना करना उचित रहेगा अतः में भी क्षमा के लिए विनती करता हूँ.

शिव, भोले  ,कैलाशपति ,गंगाधर इत्यादि के नाम से जाने जाते है क्योकिं अलग अलग लोग अपनी प्रकृति स्वभाव और आवश्यकता के अनुसार अपने इस्ट देव में उन्ही गुणों को देखते है जैसी उनकी जरूरत होती है.और भगवान के इतने अधिक नाम होने का कारण भी यही है की वह समय की आवश्यकता अनुसार अपने गुणों को प्रकट करते है.

शिव और शक्ति अर्थात पार्वती को ऐसे समझना चाहिये जैसे एक अगरबत्ती को जलाया जाये तो एक सिरे पर चमकता हुआ एक बिंदु दिखेगा तो यह है शिव का प्रतीक  और इसे घुमाने से गोल आकर बनेगा तो यह है दुनिया का शक्ति का प्रतीक।वास्तव में यदि नृत्य करने वाला  तेजी से नृत्य करे तो केवल नृत्य ही  दीखता है करने वाला  नही . इसी तरह से चल रहा है दुनिया का नृत्य जिसमे केवल नृत्य दिख रहा है करने वाला  नहीं .

शिव का सर से नख तक का वर्णन करने पर सबसे पहले दिखती है बड़ी सी जटा और उसमे से निकलती हुई गंगा की धार जो ज्ञान गंगा की प्रतीक है और चन्द्रमा प्रतीक है ठन्डे दिमाग का जो शिव के कैलाशपति अर्थात बड़ी सम्पदा और अथाह ज्ञान गंगा होने के बावजूद दिमाग ठंडा है को दर्शाती है और सदा खुस और शांत रहने का रिमाइंडर है . भगवान नील कंठ है अर्थात मैँ यानि अभिमान के विष को उन्होंने गले में धारण किया है इसलिए कर्म अथवा वाणी से किसी प्रकार का अभिमान दिखाई नहीं देता है. उसी गले में सर्पो की माला प्रतीक है इस बात का की आपके चारो तरफ यदि इस स्वभाव के लोग भी हो तो आपको शांत भाव से उन्हें अपने वश में रखना है साथ ही सर्पो की माला गले मैं हो तो आप हमेशा जागरूक रहते है ,यानि आप जो भी कर्म कर रहे है वह समझ के साथ होना चाहिये न की बेहोशी में.

भोले नाथ के शरीर में लगी हुयी राख देख कर स्वाभाविक रूप से ध्यान इस बात पर जाता है की इस दुनिया में  सब कुछ अस्थाई है . त्रिशूल में तीन शूल प्रतीक है सेवा, श्रवण और मनन का जिसका अभ्यास हमें हर रोज करना चाहिये। डमरू प्रतीक है अनंत का जो शिव भक्तो को ऐसी जागरूकता की प्रेरणा दे रहा है जिसकी  कोई समय सीमा नहीं है। नीले   आकाश की तरह ही  शिव शरीर भी सीमा रहित है. 

शिव मंदिर में मूर्ति की तरफ देखती हुयी नन्दी बैल की मूर्ति,प्रतीक है मन का जिस की भगवान शिव सवारी करते है अर्थात मन को बस में रखते है ना कि मन के बस में स्वयं रहते है। और नंदी मंदिर के बाहर रह कर सदा
अंदर की और अर्थात अपने हृदय की ओर  या तेजस्थान की और देखती है  ताकि एक क्षण  के लिए भी ध्यान परमात्मा से हट कर कही  और न जाये।मूर्ति पर चढ़ाये जाने वाले तीन पत्री बेल पत्री प्रतीक है मन,बुद्धी  और अहंकार का जिसका त्याग हम मूर्ति पर चढ़ा कर करते है.

शिव मूर्ति पर गिरने वाला जल प्रतीक है हर क्षण ईश्वर द्वारा होने वाली कृपा का। ताकि यह स्मरण रहे की हमारा ध्यान चाहे इसपर हो या न हो हम पर ईश्वर की कृपा बरस ही रही  है. शिव मूर्ति पर बना हुआ ॐ प्रतीक है एक ऐसे नाद अर्थात आवाज का जो बिना किसी चोट के  हो रही  है और ब्रम्हांड में गूंज रही है अर्थात इसकी कोई  हद  नहीं है इसीलिए  इसे अनहद कहा गया है.

उपरोक्त दिए गए प्रतीक हमें रोज ध्यान रहे फिर वर्ष में एक बार हम महाशिवरात्रि में इसका मुल्यांकन करे की हम अपने  प्रयास में कितना सफल हुए और यह शुभ दिन हमारी जिंदगी में रिमाइंडर बन कर आये तो हम शिवरात्रि को समझ के साथ बिना कर्म कांड में उलझे मना पायेंगे।