Monday, June 8, 2020

अजगर करे न चाकरी



दोस्तों ,

एक कवि हुए हैं  मलूक दास जिनकी यह पंक्ति जन-जन की जुबान पर है "अजगर करे ना चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम"। यह पंक्ति सुभाषित जैसी है मलूक दास के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती यह भी नहीं पता चलता कि इसके अलावा उन्होंने और कुछ लिखा भी है या नहीं।  निश्चय ही वह भक्त कवि रहे होंगे उन्होंने अपने आराध्य राम की प्रशंसा में यह कहा लेकिन सोचिए यह कितनी पिछड़ी हुई और प्रतिक्रियावादी बात है। यह कर्म विरोधी है जो मनुष्य को अकर्मण्य  बनाने वाली है फिर ये वास्तविक रूप से गलत है यह कहना सही नहीं  की पंछी काम नहीं करते। 


वे अपनी जरूरतों के लिए बहुत मेहनत करते हैं एक-एक दाने के लिए वे दूर-दूर तक जाते हैं घोंसला बनाने के लिए तिनके चुन कर लाते हैं। सच्चाई यह है कि पंछियों की दिनचर्या बिल्कुल मनुष्य की तरह निश्चित होती है वे भी  एक निश्चित जगह दाना पानी के लिए जाते हैं और तय समय पर अपने ठिकाने पर लौटते हैं। यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है गाजियाबाद के वसुंधरा में जहां मैं रहता हूं रोज सुबह आकाश में पंछियों की कतार पूरब की ओर जाती हुई दिखती है फिर शाम में एक कतार पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है। 


मैंने इसे कई दिनों तक गौर किया।  एक दिन मैं शाम के वक्त कौशांबी इलाके में था जो मेरे घर के पश्चिम में है वहां मैंने देखा कि मेरे इलाके से पक्षी आकर पेड़ों पर चले गए वह सब चीजें थी मैं समझ गया यह वही कतार है जो मुझे सुबह अपने घर के ऊपर दिखती है।  फिर गाजियाबाद में रहने वाले मेरे एक मित्र ने बताया कि वसुंधरा और दूसरे इलाकों से कई पक्षी हिंडन नदी के किनारे आते हैं और यहां दिन भर खाने पीने के बाद लौट जाते हैं। मैं समझ गया कौशांबी के पास के पेड़ों पर रहने वाली चिड़ियाँ  अपने भरण-पोषण के लिए हिंडोन के किनारे जाती है जहां उन्हें मछलियां और मेंढक इत्यादि  मिल जाते होंगे। मेरे मन में सवाल उठा कि यह हिण्डन  के आसपास के पेड़ों पर ही क्यों नहीं रह जाती अब इसका जवाब उन पक्षियों  के पास ही होगा कि उन्होंने अपना घर और दफ्तर जिस आधार पर चुना है।  वैसे लौटते समय यह  परिंदे सीधे नहीं लौटते आकाश में गोल गोल चक्कर काटते हैं कई बार घेरा बनाकर घूमने के बाद उनमें से एक एक छोटा समूह बारी-बारी से बाकी पक्षों से विदा लेता रहता है। कई पक्षी विज्ञानी कहते हैं कि पक्षियों की दिनचर्या केवल भोजन और प्रजनन तक ही सीमित नहीं है इससे परे भी है उनके जीवन में कई चीजें हैं वह भी खेल करते हैं मनोरंजन करते हैं यह बात मेरी समझ में तब आई जब एक तोता मेरे साथ रहने लगा और प्यार और गुस्से  जैसे भाव उसके भीतर भी स्पष्ट दिखते हैं। 

अजय सिंह "एकल "


Monday, June 1, 2020

कृतं मे दक्षिणे हस्ते

कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।
गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनञ्जयो हिरण्यगर्भ।।
         - अथर्ववेद ७.५२.२८
करो सब श्रम से सच्चा प्यार
करो सब श्रम की जय-जयकार।
कर्म में रहते अनवरत निरत
क्रिया में दक्ष दाहिना हाथ।
विजय का वरण करे कर वाम
सदा सोल्लास गर्व के साथ। मिले यश धन-सम्पत्ति अपार।।
मिले गौ, अश्व, भूमि, धन-खान
स्वर्ण से रहे भरा भण्डार।
मिले श्रम से अर्जित सम्पत्ति
करे सोना श्रम का श्रृंगार।
बहें वैभव की अक्षय धार।।
मेरे दाएँ हाथ में कर्म, बाएँ हाथ में विजय है। इन दोनों द्वारा हम गौ, अश्व, धन, भूमि एवं स्वर्ण

 आदि पाने में सफल हों।
          - डा० देवी सहाय पाण्डेय


प्रकृति का न्याय है

मध्य युग में सम्पूर्ण यूरोप पर राज करने वाला
रोम (इटली) नष्ट होने के कगार पे आ गया।
मध्य पूर्व को अपने कदमो से पददलित करने वाला
ओस्मानिया साम्राज्य (ईरान, टर्की) अब घुटनो के बल हैं।
जिनके साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था,
उस ब्रिटिश साम्राज्य के उत्तराधिकारी बर्किंघम महल में कैद हैं,
जो स्वयं को आधुनिक युग की सबसे बड़ी शक्ति समझते थे
उस रूस की सीमा बन्द है।
जिनके एक इशारे पर दुनिया के नक़्शे बदल जाते हैं, जो पूरी दुनिया का अघोषित चौधरी हैं,
उस अमेरिका में लॉक डाउन है।
और, जो आने वाले समय में सबको निगल जाना चाहते थे,
वो चीन आज मुँह छिपाता फिर रहा है और सबकी गालियाँ खा रहा है।
एक छोटे से परजीवी ने विश्व को घुटनो पर ला दिया है।
न एटम बम काम आ रहे न तेल के कुँए,,..
मानव का सारा विकास एक छोटे से #विषाणु से सामना नहीं कर पा रहा।..
क्या हुआ ???... निकल गयी हेकड़ी ???
बस इतना ही कमाया था आपने इतने वर्षों में कि एक छोटे से जीव ने घरों में कैद कर दिया।।
विश्व के सब देश आशा भरी नज़रो से देख रहे हैं हमारे देश भारत की तरफ,
उस भारत की ओर जिसका  सदियों तक अपमान करते रहे, लूटते रहे।
एक मामूली से जीव ने आपको आपकी औकात बता दी।।
भारत जानता है कि#युद्ध अभी शुरू हुआ है जैसे जैसे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी,
ग्लेशियरो की बर्फ पिघलेगी, और आज़ाद होंगे लाखों वर्षो से बर्फ की चादर में कैद
दानवीय_विषाणु जि नका न आपको परिचय है और न लड़ने की कोई तैयारी।...
ये कोरोना तो झाँकी है   चेतावनी अभी है।...
उस आने वाली विपदा की, जिसे आपने जन्म दिया है।
क्या आप जानते हैं, इस आपदा से लड़ने का तरीका कहाँ छुपा है ???
तक्षशिला के खंडहरो में, नालंदा की राख में, शारदा पीठ के अवशेषों में, मार्तण्ड मन्दिर के पत्थरों में,,...
सूक्ष्म एवं परजीवियों से मनुष्य का युद्ध नया नहीं है।
ये तो सृष्टि के आरम्भ से अनवरत चल रहा है और सदैव चलता रहेगा।
इस से लड़ने के लिए के लिए हमने हथियार खोज भी लिया था।
मगर आपके अहंकार, आपके लालच, स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की हठ-धर्मिता ने सब नष्ट कर दिया।
क्या चाहिए था आपको ??? स्वर्ण एवं रत्नो के भंडार ???
यूँ ही माँग लेते,...राजाबलि के वंशज और कर्ण के अनुयायी आपको यूँ ही दान में दे देते।
सांसारिक वैभव को त्यागकर आंतरिक शांति की खोज करने वाले समाज के लिए वे सब यूँ भी मूल्यहीन ही थे।
ले जाते – मगर आपने ये क्या किया ???
विश्व_बंधुत्व की बात करने वाले हिन्दू_समाज को नष्ट कर दिया।
जिस बर्बर का मन आया वही भारत चला आया।
हर जीव में शिव को देखने वाले समाज को नष्ट करने।
कोई विश्व_विजेता बनने के लिए तक्षशिला को तोड़ कर चला गया,
कोई सोने की चमक में अँधा होकर सोमनाथ लूट कर ले गया,
कोई बख़्तियार ख़िलजी खुद को ऊँचा दिखाने के लिए नालंदा के पुस्तकालयों के ग्रंथों को जला गया,
किसी ने बर्बरता से  शारदा पीठ को नष्ट कर दिया,
किसी ने अपने झंडे को ऊँचा दिखाने के लिए विश्व कल्याण का केंद्र बने गुरुकुल परंपरा को ही नष्ट कर दिया,,
और आज करुणा भरी निगाहों से देख रहे हैं उसी पराजित, अपमानित, पद दलित भारतभूमि की ओर – जिसने अभी अभी अपने घावों को भरके
2014 से अँगड़ाई लेना आरम्भ किया है।
हम फिर भी उन्हें निराश नहीं करेंगे,
फिर से  माँ भारती का आँचल आपको इस संकट की घड़ी में छाँव देगा,
श्री राम के वंशज इस दानव से भी लड़ लेंगे।
किन्तु...???
किन्तु...???
मार्ग...???...
उन्ही नष्ट हुए हवन कुंडो से निकलेगा।..
जिन्हे कभी आपने अपने पैरों की ठोकर से तोड़ा था।
आपको उसी नीम और पीपल की छाँव में आना होगा।..
जिसके लिए आपने हमारा उपहास किया था।
आपको उसी गाय की महिमा को स्वीकार करना होगा।..
जिसे आपने अपने स्वाद का कारण बना लिया।
उन्ही मंदिरो में जाके शंखनाद करना होगा।...
जिनको कभी आपने तोड़ा था।
उन्ही वेदो को पढ़ना होगा।..
जिन्हे कभी अट्टहास करते हुए नष्ट किया था।
उसी चन्दन ...तुलसी को मस्तक पर धारण करना होगा।..
जिसके लिए कभी हमारे मस्तक धड़ से अलग किये गए थे।
....ये प्रकृति का न्याय है और आपको स्वीकारना ही होगा।।
साभार🙏


सत्कर्म और अहंकार

एक बार श्री कृष्ण अर्जुन से पूछा दान तो  मैं भी बहुत करता हूं परंतु सभी लोग कर्ण  को ही सबसे बड़ा दानी क्यों  कहते हैं।  यह प्रश्न सुन श्रीकृष्ण मुस्कुराए उन्होंने पास ही में स्थित दो पहाड़ियों को सोने का बना दिया इसके बाद वह अर्जुन से बोले हे अर्जुन इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम गांव वालों को बांट दो अर्जुन ने सभी गांव वालों को बुलाया और सोना  बांटना शुरू कर दिया।  अर्जुन पहाड़ी में से सोना तोड़ते गए और गांव वालों को देते गए।  लगातार सोना बाटते  रहने से अर्जुन में अहंकार आ चुका था इतने समय पश्चात अर्जुन काफी थक भी चुके थे  उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि अब मुझसे यह काम और ना हो सकेगा। 

अब श्री कृष्ण ने कर्ण को बुला लिया उन्होंने कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांवों में बाट दो।  कर्ण  ने गांव वालों को बुलाया और उनसे कहा यह सोना  आप लोगों का है जिसको जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाए। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से जानना चाहा ऐसा करने का विचार उनके मन में क्यों नहीं आया इस पर श्री कृष्ण ने जवाब दिया कि तुम्हें सोने से मोह  हो गया था  और तुम खुद यह निर्णय कर रहे थे कि किस गांव वाले  की कितनी जरूरत है गांव वालों की कितनी जरूरत है उतना ही सुना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हें दे रहे थे तो तुझमे  दाता होने का भाव आ गया था दूसरी तरफ कर्ण ने  ऐसा नहीं किया वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उनकी जय-जयकार करें या प्रशंसा करें दान देने के बदले में धन्यवाद की उम्मीद करना ही सौदा कहलाता है। बिना किसी उम्मीद या आशा के दान करना चाहिए ताकि यह हमारा सत्कर्म हो ना कि हमारा अहंकार। 


सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो


वैसे तो मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसका जिसके पास मन और बुद्धि दोनों है।  बाकी प्राणियों के पास बुद्धि  तो हो सकती है पर मन नहीं अब इस मन की  जो कारस्तानी हैं वह कितनी गजब है इसको समझना बड़ा मुश्किल काम है।  वास्तव में दुनिया में बहुत सारी कल्पनाओं पर काम हुआ है एक से बढ़कर एक साइंस फिक्शन लिखे गए हैं एक से बढ़कर एक उपन्यास लिखे गए इनकी कल्पनाओं को आप देखें आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि वास्तव में आदमी का दिमाग कहां तक पहुंच सकता है।  लेकिन शायद किसी के दिमाग में आज तक यह नहीं आया कि अगर पूरी दुनिया में 40 50 दिन या इससे भी ज्यादा एक जगह से दूसरी जगह जाना आना संभव ना हो लोगों से मिलना जुलना संभव ना हो यहां तक कि लोग आपको बुला रहे हैं और आप उनके पास जाने से कतरा रहे हैं इस स्थिति का शायद भान दुनिया में किसी भी लेखक को नहीं था करोना  के आने के बाद अभी जो वास्तविक स्थिति है दुनिया में वह तो यही है आप अपने घर में बैठे हुए हैं काम कर रहे हैं आनंद ले रहे हैं लेकिन कहीं आ जा नहीं सकते। आपको लोग बुला रहे हैं लेकिन मिलने से कतरा रहे हैं और ऐसा आपको करोना के डर से करना पड़ रहा है ऐसी ही कुछ परिस्थितियों का वर्णन कर रहा हूं।
आदमी को पहली बार समझ में आ रहा है कि आपके पास पैसे तो हो सकते हैं लेकिन दुकानें नहीं खुली है इसलिए आप शाम को सामान खरीदने की अनुमति नहीं है आपके पास वह सब सुविधाएं हैं मसलन कार है चला नहीं सकते ऑफिस है जा नहीं सकते नौकर हैं फिर भी घर का सारा काम आपको करना पड़ रहा है ऐसी स्थिति शायद कल्पना के बाहर थी इसीलिए किसी उपन्यासकार ने अपनी किसी कहानी में इस तरह की फंटेसी का वर्णन नहीं किया है।
 


करोना के सबक

सबसे पहले इस सच को समझिए कि पूरी दुनिया भले हथियारों की होड़ में लगी रही सैन्य बल को सब बढ़ाते रहें पर असल में अब युद्ध जीतने के लिए ना तो हथियार की जरूरत है ना सैन्य बल की अगर करो ना वायरस का सच कभी खुला और पता चला कि यह एक ऐसा युद्ध था जिसे बिना किसी गोला-बारूद और तोपों की धमक के ही कोई जीत गया तो आप हैरान मत होना। 


दूसरा सच समझ में आ गया कि जिस यूरोप की ओर हम नजरें झुका कर देखते थे कि वह हमसे अधिक ज्ञानी हैं वह असल में उतना ज्ञानी नहीं था इस बीमारी ने यह भी साफ कर दिया है कि अमीर लोग भले गरीब लोगों के सामने शक्तिशाली  होने का भ्रम पैदा करते हैं पर असल में उनमें रोग से लड़ने की शक्ति गरीब से कम ही होती है।  यह तीसरा संदेश है दुनिया के संदर्भ में लिखने वाले ने यह भी लिखा है कि अब तक किसी फुटबॉल खिलाड़ी क्रिकेट खिलाड़ी और टेनिस खिलाड़ी को हम बहुत बड़ा मानते रहे हैं पर इस बीमारी में यह साफ हो गया है कि पूरी दुनिया में एक डॉक्टर की अहमियत किसी भी सेलिब्रिटी खिलाड़ी से ज्यादा है इतना ही नहीं समय ने यह भी साबित किया है कि कोई पंडित पुजारी जोशी पादरी या मौलवी एक भी मरीज को ठीक नहीं कर सकता आदमी की बीमारी सिर्फ  डॉक्टर ही ठीक कर सकता है। 

मतलब एक अदृश्य बीमारी ने बहुतों की कलई खोल दी है इतना ही नहीं करोना वायरस में एक साथ खुलकर सामने आ गया है कुदरत खुद को बहुत जल्दी ठीक कर लेती है आदमी बेवजह इस झूठ को जीता है कि वह प्रकृति को ठीक करेगा बड़ा खुलासा इस बीमारी में यह हुआ है कि फिल्मी सितारे सिर्फ कागजी हीरो होते हैं असली हीरो नहीं।  हम बेवजह ही उन्हें इतना भाव देते रहे हमें यह भी समझ लेने की जरूरत है कि कुदरत ने हमें जो खाने के लिए दिया है हमें वही खाना चाहिए। खाने पर ज्यादा प्रयोग की जरूरत इसलिए नहीं क्योंकि इस पर सारे प्रयोग हो चुके हैं हमारी दादी नानी ने जो हमें बताया है वही सही है इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि अधिकतर लोग बिना जंक फूड के आराम से रह सकते है। 


ज्ञान तो कई प्राप्त हुए लेकिन एक ज्ञान जो बहुत अहम है वह यह कि जिंदगी को जीने के लिए बहुत सारे पैसों की जरूरत नहीं होती इस बात के कई मायने हो सकते हैं आपको अपने हिसाब से इसको समझना होगा पर अभी तो इतना ही कहना काफी होगा कि करो ना वायरस ने आदमी को जीवन का अनमोल पाठ पढ़ाया है ऐसा पाठ पढ़ाने के लिए प्रकृति १००-२००  साल में एक बार आती   है। धन्य है संसार में मौजूद बेशक 7000000000 लोग जिन्हें अभी पाठ पढ़ने का मौका मिला है तो मेरे प्यारे मित्रों आप भी इतना तो मान ही लीजिए कि जिंदगी जीने के लिए है जीने की तैयारी में खर्च कर देने के लिए नहीं।  एक पाठ और याद रखने योग्य है कि जीवनसत्व क्षणभंगुर है इसे संभाल कर जीना चाहिए फिलहाल के लिए सबक है अपने खर्चों पर नियंत्रण रखिए ज्यादा के फेर में मत पढ़िए और रिश्तो को अहमियत दीजिए जीवन का मूल संदेश यही है मंजिल पर जाकर याद आता है आदमी मुसाफिर है आता है जाता है आते जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है।


श्री रामचरित मानस और कोरोना वायरस

*जिस भी मानस मर्मज्ञ ने यह अन्वेषण किया है वह धन्य है* 🙏🙏

श्री रामचरित मानस और कोरोना वायरस


"राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥"


इन दिनों COVID-19 की रोकथाम के विषय में मैंने काफी पढ़ा , कई वाइरोलोजी की पुस्तकों से और अन्य माध्यमो और अनुसंधानों से यह पता चला की  यह  महामारी चमगादडो से मनुष्यों  में फैली है| यह ही पता चला कि इस वाइरस की रोकथाम तीन चीज़ों से की जा सकती है -
१. UV-C radiation
2. Soap water  sanitization
3. heat near boiling point 


आज फैली इस महामारी के विषय में पढ़ते हुए दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण भी देखता रहा , बाद में अचानक ऐसी प्रेरणा हुई रामचरित मानस पढ़ी जाए , संयोगवश कहें या इश्वर अहैतुकी कृपा , जब रामचरित मानस को खोला तो उत्तरकाण्ड का  दोहा १२० वाला पृष्ठ खुला पढना शुरू किया  तो आश्चर्य चकित था। 

 
गोस्वामी तुलसीदास जी इस महामारी के मूल स्रोत चमगादड के विषय में उत्तरकाण्ड दोहा १२० (14)  में वर्षो पहले की बता गये थे जिससे सभी लोग आज दुखी है :-
"सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दु:ख पावहिं सब लोगा॥14॥"


इस महामारी के लक्षणों के बारे में वे आगे लिखते हैं जिसमे उन्होंने ये बता ही दिया है की इसमें कफ़ और खांसी बढ़ जायेगी और फेफड़ो में एक जाल या आवरण उत्पन्न होगा या कहें lungs congestion जैसे लक्षण उत्पन्न हो जायेंगे , देखिये -
"मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15||


गोस्वामी जी इसके आगे ये भी बताते हैं की इनसब के मिलने से "सन्निपात " या टाइफाइड फीवर होगा जिससे लोग बहुत दुःख पायेंगे -
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।16||
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।19||


आज शायद यही कारण है की "Hydroxychloroquine" जो की मलेरिया की दवा है इसका प्रयोग सभी लोग करने लग गए  हैं ...
और इसके आगे लिखते हैं :
"एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121क॥"
जब ऐसी एक बीमारी की वजह से लोग मरने लगेंगे , ऐसी अनेको बिमारियां आने को हैं ऐसे में आपको कैसे शान्ति मिल पाएगी ???


"नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121 ख॥"
नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु इन सब से  ये रोग जाने वाले नहीं  है...

.
इन सब के परिणाम स्वरुप क्या होगा गोस्वामी जी लिखते हैं :-
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व के जीव  जीव रोग ग्रस्त हो जायेंगे , जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और अपनों के वियोग के कारण और दुखी होते जायेंगे । गोस्वामी जी किहते हैं की मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥यानि सबी में थोडा बहुत तो सभी में होगा पर बहुत कम लोगों को  ही ठीक से detect भी हो पायेगा ...


आज हम देख की रहे हैं की इस जगत की बड़ी बड़ी हस्तियाँ भी इस रोग से ग्रसित होती जा रही है , इसमें आम लोगों की बात ही क्या की जाए ..इस विषय के बारे में भी गोस्वामी जी ने पहले से लिख  दिया था -
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।।
प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥2॥
यानी रोग पहचान लिए जाने पर या रोग के लक्षणों द्वारा रोग की पुष्टि हो जाने पर उन लक्षणों का इलाज किये जाते है।
हम यदि देखे तो चाइना में जो लोग ठीक हो कर घर चले गये उनमे भी कुछ दिनों बाद पुनः इस रोग के होने की पुष्टि  हुई वो भी कईयों को तो बिना लक्षणों के ....
अब सभी ये जानना चाहेंगे की इससे महामारी से हमे मुक्ति कैसे  मिलेगी  -- तो इस विषय पर गोस्वामी जी लिखते हैं -
"राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥"
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥


यदि श्रीराम जी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥
श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥
"जय श्री राम "

*"धन्य है प्रभु तेरा इशारा"*

*"धन्य है प्रभु तेरा इशारा"*
++++++++++++++++
. एक झटके में घुटनों पर ला दिया समस्त मानव   जाति को!
उड़े जा रहे थे,
उड़े जा रहे थे 
कोई चाँद   पर कब्जे की तैयारी कर रहा है तो
कोई मंगल पर, 
कोई सूरज  को छूने की कोशिश कर रहा है तो
कोई अंतरिक्ष में आशियाँ ढूँढ रहा है!
चीन पड़ोसी देशों की जमीन हड़पने की तैयारी में था/है
तो रूस और अमेरिका nuclear power   के नशे में पूरे विश्व को ध्वस्त करने की कोशिश में लगे हैं!
कहीं धर्म के नाम पर नरसंहार चल रहा है तो  कहीं जाति के नाम पर अत्याचार!
छोटे-छोटे बच्चों  के बलात्कार किये जा रहे हैं!
मानवता तो जैसे समाप्त ही हो चुकी है!
ईश्वर ने मानो इशारा किया है -
कि,"मैंने तो तुम लोगों को इतनी खूबसूरत धरती पर, स्वर्ग के मानिंद, रहने के लिए भेजा था
मगर, तुम लोगों ने तो इसे नर्क बनाकर रख दिया!
मेरे लिये तो आज भी तुम सभी, एक छोटे से प्यारे से परिवार    की तरह हो।
मुझे नहीं पता कि कहाँ चीन की सीमा खत्म होकर भारत की सीमा शुरू होती है?
कहाँ ईरान है? कहाँ इटली?? और कहाँ जर्मनी???
ये सीमाएँ तुम लोगों ने बनायी हैं!
मुझे नहीं पता कि कौन ईसाई  है? कौन मुस्लिम ? कौन हिन्दू ? कौन यहूदी ?और कौन बौद्ध है?
मुझे नहीं पता कि कौन ऊँची जाति का है? तो कौन नीची जाति का?
मैंने तो सिर्फ़ इंसान बनाया था!
क्यों एक दूसरे को मार रहे हो?
प्यार से क्यों नहीं रह पा रहे हो?
जानते हो कि सब छोड़कर मेरे पास ही आना है!
तब भी छीना-झपटी, नोचा-खसोटी और कत्ले-आम मचा रखा है!
अभी तो मैंने तीसरा नेत्र  थोड़ा सा मिच-मिचाया है!!
संभल जाओ और सुधर जाओ  !
फिर मत कहना कि मैंने मौका नहीं दिया
एक बार *वसुदेव-कुटुम्बकम* की तरह रहकर तो देखो,
सब ठीक हो जाएगा।


बेकार की बातें


जी हां जिन बातों को पहले कभी नहीं कहा गया या उन पर कोई सार्थक चर्चा नहीं की गई इसका मतलब की उन बातों की जीवन में ज्यादा अहमियत नहीं है।   ऐसा भी हो सकता है उन बातों की अहमियत बिल्कुल भी ना हो लेकिन धीरे धीरे जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है अनुभव आते हैं तो बहुत सारी चीजें समझ में आती है कि जिनको हम बेकार समझते थे वह बहुत काम की लगने लगती हैं। जिनको हम बहुत काम की समझते थे वह बेकार लगते लगने लगती हैं ऐसा भी हो सकता है कि यह समय की वजह से हो क्योंकि एक  चीज किसी समय ठीक लगती है और वही दूसरे समय खराब लग सकती है इसलिए यह कहना मुश्किल है कि कोई चीज हमेशा के लिए खराब है या हमेशा के लिए अच्छी है। समय स्थान दशा इत्यादि बहुत से ऐसे कारक हो सकते हैं जिनकी वजह से कोई चीज उपयोगी या अनुपयोगी लगती है। मसलन किसी जमाने में चूहा मिट्टी का चूल्हा बहुत उपयोगी होता था आज के जमाने में शायद उसका उपयोग करना भी बहुत से लोगों को नहीं पता होगा इसका मतलब चूल्हे की उपयोगिता खत्म हो गई ऐसा बिल्कुल नहीं है हां अब क्योंकि बेहतर विकल्प उपलब्ध है इसलिए मिट्टी के चूल्हे की उपयोगिता समझ में नहीं आ रही है। 


मैं आज कुछ ऐसी ही बातों का  जिक्र आप लोगों के बीच करने जा रहा हूं जो मैंने अपने अनुभव से सीखी हैं और वह प्रचलित बातों से भिन्न है बहुत संभव है कि आप मेरी बात से बिल्कुल सहमत ना हो या थोड़ा बहुत सहमत हो लेकिन मेरे यह विचार मेरे अपने हैं और जो मैंने अनुभव किए हैं उन पर आधारित है तो यह निश्चित है अगर आपके अनुभव मेरे अनुभव से भिन्न है  तो आपका मेरे विचार के साथ सहमत होना निश्चित रूप से मुश्किल होगा। आइए एक-एक कर हम लोग इन बातों पर विचार करते हैं।

मूर्ख मकान बनाते हैं और अकल मन उसमें रहते हैं


आज से कोई 100 या 200 बरस पहले यह कहावत कहीं गई।  हम सब लोगों को यह बात विरासत में मिली है मेरा अनुभव है कि इस महंगाई के जमाने में यह बिल्कुल ठीक बात है क्योंकि मकान बनाने में जो लागत लगती है जो समय लगता है जो मेहनत लगती है और उसके बाद जो उस पर रिटर्न मिलता है वह शायद उस अनुपात से भिन्न होता है जिस अनुपात में लागत और मेहनत लगी है। 


लेकिन मकान बनवाना केवल इसलिए मूर्खता समझी जाए कि उस पर लगाए पैसों पर समुचित लाभ नहीं मिलता तो शायद यह कहना बहुत अकल मंदी  का काम नहीं होगा असल में मकान बनाने का संबंध केवल पैसे की  लागत पर मुनाफा या लाभ नहीं होता। मकान के साथ 2-3 बड़ी महत्वपूर्ण बातें जुड़ी होती है।  पहली बात अगर आपने छोटी उम्र में अपना मकान बना लिया तो यह एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है इससे आपको एक  तरीके की सुरक्षा की स्वाभाविक अनुभुति  होती है  यानी कभी किसी समय जीवन के किसी पड़ाव पर अगर आमदनी में कोई समस्या हो तो कम से कम सर के ऊपर एक छत  है यह बात बढ़ा सुख और संतोष देती है। 


लेकिन जब आप इस मकान को  पैसे  उधार लेकर बनाते हैं और 20 साल तक या 25 साल तक अपने ऊपर हर महीने उधारी चुकाने की  एक लायबिलिटी पालते हैं तो इसका बड़ा सीधा परिणाम होता है कि आपको अगले 20- 25 साल लगातार किसी भी स्थिति में किसी भी परिस्थिति में मकान की किस्ते  चुकाने की व्यवस्था तो करनी ही होगी नहीं तो आपने जो मेहनत करके स्कोर खड़ा किया है वह बेकार हो जायेगा।  अतः इस बात का आकलन करना बहुत आवश्यक है की कहीं मकान बनाने के चक्कर में आप अपने को अपनी स्वतंत्रता को गिरवी तो नहीं रख रहे है। 


 जिंदगी के एक पड़ाव पर जो चीजें बहुत सुख देती है जिंदगी के दूसरे पड़ाव पर वही चीजें दुख देती हुई लगती है। यह बात मकान के लिए भी ठीक है जब आप मकान बनाते हैं और उस वजह से आप अपने को अगले 20- 25 साल सुरक्षित  महसूस करते हैं ,चिंता मुक्त महसूस करते हैं तब तक तो यह ठीक है।  फिर जीवन की दूसरी पाली में आपके बच्चे बड़े हो जाते हैं उनकी अपनी आवश्यकताएं आपकी आवश्यकताओं से भिन्न होती हैं उनका काम करने का तरीका काम करने का स्थल भी आप की जगह से फर्क होता है तब यह मकान आपको डैडी की तरह लगता है क्योकीं  आपने इसमें बहुत दिन बताए हैं इसके साथ आपका गहरा भावनात्मक संबंध है इसलिए  इसको बेचना और बेचकर नए शहर में बच्चों के साथ शिफ्ट हो जाना आसान नहीं होता। नए लोग नया शहर नई स्थितियां और आपके बेटे का मकान यानी अब आप अपने बेटे के साथ रह रहे हैं पहले वही  बेटा आपके साथ रह रहा है।  अब यह बात बहुत बार कष्टदायक  भी होती है और आपके स्वाभिमान को भी चोट पहुंचती है। लेकिन यदि आप ऐसा नहीं करते और आप और आपका बेटा अलग अलग रहता है तो दोनों परिवारों के बीच में हमेशा एक चाहत रहती है। माता-पिता चाहते हैं कि बेटा मेरे पास आ जाए और बेटा बहू चाहते हैं माता-पिता मेरे पास आ गए ताकि बिना ज्यादा तकलीफ के पूरा परिवार एक साथ आनंद से रह सके।


इन परिस्थितियों में यह तय करना मुश्किल काम है कि मकान अकलमंद बनवाते हैं या  मूर्ख बनाते हैं मेरा मत है कि रहने के लिए एक मकान आवश्यक है आपने अपना बनाया तो भी ठीक है अगर यह परिवार से आपको मिल रहा है तो भी ठीक है लेकिन एक से ज्यादा मकान बनाना किसी भी हालत में अकल मंदी  का काम नहीं है। 

अजगर करे न चाकरी

अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम
एक कवि हुए हैं  मलूक दास जिनकी यह पंक्ति जन-जन की जुबान पर है अजगर करे ना चाकरी पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम। यह पंक्ति सुभाषित जैसी है मलूक दास के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती यह भी नहीं पता चलता कि इसके अलावा उन्होंने और कुछ लिखा भी है या नहीं।  निश्चय ही वह भक्त कवि रहे होंगे उन्होंने अपने आराध्य राम की प्रशंसा में यह कहा लेकिन सोचिए यह कितनी पिछड़ी हुई और प्रतिक्रियावादी बात है। यह कर्म विरोधी है जो मनुष्य को अकर्मण्य  बनाने वाली है फिर ये वास्तविक रूप से गलत है यह कहना सही नहीं पंछी काम नहीं करते। 


वे अपनी जरूरतों के लिए बहुत मेहनत करते हैं एक-एक दाने के लिए वे दूर-दूर तक जाते हैं घोंसला बनाने के लिए तिनके चुन कर लाते हैं। सच्चाई यह है कि पंछियों की दिनचर्या बिल्कुल मनुष्य की तरह निश्चित होती है वे भी  एक निश्चित जगह दाना पानी के लिए जाते हैं और तय समय पर अपने ठिकाने पर लौटते हैं। यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है गाजियाबाद के वसुंधरा में जहां मैं रहता हूं रोज सुबह आकाश में पंछियों की कतार पूरब की ओर जाती हुई दिखती है फिर शाम में एक कतार पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है। 


मैंने इसे कई दिनों तक गौर किया एक दिन मैं शाम के वक्त कौशांबी इलाके में था जो मेरे घर के पश्चिम में है वहां मैंने देखा कि मेरे इलाके से पक्षी आकर पेड़ों पर चले गए वह सब चीजें थी मैं समझ गया यह वही कतार है जो मुझे सुबह अपने घर के ऊपर दिखती है।  फिर गाजियाबाद में रहने वाले मेरे एक मित्र ने बताया कि वसुंधरा और दूसरे इलाकों से कई पक्षी हिंडन नदी के किनारे आते हैं और यहां दिन भर खाने पीने के बाद लौट जाते हैं। मैं समझ गया कौशांबी के पास के पेड़ों पर रहने वाली चिड़ियाँ  अपने भरण-पोषण के लिए हिंडोन के किनारे जाती है जहां उन्हें मछलियां और मेंढक इत्यादि  मिल जाते होंगे। मेरे मन में सवाल उठा कि यह हिण्डन  के आसपास के पेड़ों पर ही क्यों नहीं रह जाती अब इसका जवाब उन पक्षियों  के पास ही होगा कि उन्होंने अपना घर और दफ्तर जिस आधार पर चुना है।  वैसे लौटते समय यह  परिंदे सीधे नहीं लौटते आकाश में गोल गोल चक्कर काटते हैं कई बार घेरा बनाकर घूमने के बाद उनमें से एक एक छोटा समूह बारी-बारी से बाकी पक्षों से विदा लेता रहता है। कई पक्षी विज्ञानी कहते हैं कि पक्षियों की दिनचर्या केवल भोजन और प्रजनन तक ही सीमित नहीं है इससे परे भी है उनके जीवन में कई चीजें हैं वह भी खेल करते हैं मनोरंजन करते हैं यह बात मेरी समझ में तब आई जब एक तोता मेरे साथ रहने लगा और प्यार और गुस्से  जैसे भाव उसके भीतर भी स्पष्ट दिखते हैं। 


*एक सारगर्भित कविता*

*एक सारगर्भित कविता*
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जो कह दिया वह *शब्द* थे ;
      जो नहीं कह सके
             वो *अनुभूति* थी ।।
और,
     जो कहना है मगर ;
           कह नहीं सकते,
                  वो *मर्यादा* है ।।
*जिंदगी* का क्या है ?
            आ कर *नहाया*,
और,
*नहाकर* चल दिए ।।
*पत्तों* सी होती है
        कई *रिश्तों की उम्र*,
आज *हरे*-------!
कल *सूखे* -------!
क्यों न हम,
*जड़ों* से;
रिश्ते निभाना सीखें ।।
रिश्तों को निभाने के लिए,
कभी *अंधा*,
कभी *गूँगा*,
    और कभी *बहरा* ;
            होना ही पड़ता है ।।
*बरसात* गिरी
  और *कानों* में इतना कह गई कि---------!
*गर्मी* हमेशा
        किसी की भी नहीं रहती ।।
*नसीहत*,
             *नर्म लहजे* में ही
               अच्छी लगती है ।
क्योंकि,
*दस्तक का मकसद*,
    *दरवाजा* खुलवाना होता है;
                         तोड़ना नहीं ।।
*घमंड*-----------!
किसी का भी नहीं रहा,
*टूटने से पहले* ,
*गुल्लक* को भी लगता है कि ;
*सारे पैसे उसी के हैं* ।
जिस बात पर ,
कोई *मुस्कुरा* दे;
बात --------!
बस वही *खूबसूरत* है ।।
थमती नहीं,
     *जिंदगी* कभी,
          किसी के बिना ।।
मगर,
         यह *गुजरती* भी नहीं,
                 अपनों के बिना।


सतत हस्तक्षेप से सहज विकास बाधित हो जाता है


प्रिय मित्रो ,

सन्तान  की परवरिश कर्तव्य भाव से करें , प्रतिफल की आस रहेगी तो जीवन बोझिल हो जाएगा। कार्यस्थल में जिस कुर्सी पर हम बरसों बैठते रहे घर में जिस बिस्तर पर सोए, जिस थाली में भोजन करते रहे, पार्क की बेंच  की जिस पर अक्सर बैठे या जिस वृक्ष या पालतू जानवर पर प्रतिदिन निगाह जाती रही उसके प्रति मोह  होना और उस पर एकाधिकार जताना सहज मानवीय प्रवृत्ति है। इन सब से दुराव उचित नहीं।प्रतिदिन व्यवहार में आती इन वस्तुओं के उपलब्ध न होने पर कुछ व्यक्ति असहज़  है या व्यथित  हो जाते हैं।

जिन माता-पिता ने पूर्व संरक्षण प्रदान करते हुए अपनी सभी साधनों से हमारी परवरिश की, उंगलियां पकड़ कर उठना चलना पढ़ना- लिखना खाना खेलना  आज तक  सिखाया उनसे अथाह   प्रेम व जुड़ाव  तथा वयस्क होने पर उनके प्रति कृतज्ञता का भाव ईश्वरी विधान के अनुरूप है। उसी क्रम में संतान से अपनी तुलना अस्वाभाविक है ना ही अनुचित। किंतु वर्तमान परिपेक्ष मैं इस जुड़ाव की प्रकृति और इसकी सीमा को नहीं समझने से उम्र दारू का भावी जीवन कष्टदायक हो जाएगा। एक धारणा यह है कि अन्य प्राणियों की भांति माता-पिता का दायित्व मात्र संतान उत्पति, बाल काल में संतान की उचित परवरिश और विवेक के अनुसार उन्हें दिशा देना भर है।नवजात पशु पक्षियों को तनिक संभालने के बाद भौगोलिक तथा अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों से स्वयं तालमेल बैठाने और निपटने के लिए छोड़ दिया जाता है ताकि वे जरूरी क्षमताएं स्वयं विकसित करें और सशक्त बने। कमोबेश परिपक़्व  होकर संतान जब आजीविका या कैरियर की एक डगर पर चल पड़े इसके बाद माता-पिता की खास भूमिका नहीं रह जाती है और उनका तटस्थ हो जाना संतान के दीर्घकालीन हित में रहता है।

संतान के जीवन में नियमित हस्तक्षेप से आप उनके सहज विकास को बाधित करेंगे । विशाल वृक्ष के नीचे पौधे नहीं फलते फूलते। बार-बार या प्रत्येक स्तर पर संतान की प्रशंसा या भर्त्सना से आप उनके स्वस्थ स्वतंत्र विकास को बाधित करेंगे।संतान की अधिक वाहवाही से उसमें स्वयं को सब ऊपर समझने की भ्रांति उत्पन्न हो जाती है। इसके विपरीत नियमित दुत्कार उलाहना व रोक टोक से  से उसका मनोबल गिरता है।संतति पर आर्थिक भावनात्मक व अन्य निवेश के दौरान माता-पिता अपेक्षाएं सँजो  लेते हैं की उम्र ढलने पर उन्हें बहुगुनी होकर  फल मिलेगा। यह तो सौदेबाजी हुई।अपने नवनिर्मित परिवार की देखरेख के चलते उम्र दराज  माता-पिता के साथ पूर्ववत  व्यवहार और आचरण बरकरार रखना संतान के लिए कठिन हो सकता है।संतान द्वारा अपेक्षाएं पूरी न करने पर अनेक माता-पिताओं का मोहभंग उनके संताप का कारण बन रहा है। उम्र दारो को सन्तानो  के नव सरोकार समझने होंगे अन्यथा उनका जीवन कष्ट में हो जाएगा।

विद्वान कह गए हैं आपकी संतति आपकी नहीं है वह केवल आपके द्वारा है वह समाज देश के लिए निमित्त है। उसे स्वतंत्र अस्मिता मानते हुए केवल उचित दिशा दिखा कर उसके समृद्धि में भरपूर सहायक बनना है। अपने मोह  को यहीं विराम दीजिए। संतान  के इसी योगदान से आप पितृ ऋण  से भी मुक्त होंगे। संतति के प्रति कर्तव्य वहन  के दौरान हृदय में शुद्ध और परहित भाव होगा तो प्रतिफल की अपेक्षा ना रहेगी। अपेक्षा या प्रतिफल की मंशा से संपन्न कार्य तो स्वार्थ होता है।