Saturday, September 15, 2018

गीता का ग्यारह अध्याय और विश्व समाज







र्जुन कह रहा है कि मैं जो कुछ देख रहा हूं उसकी शक्ति अनन्त है, भुजाएं अनन्त हैं, सूर्य चन्द्र उसके नेत्र हैं, मुंह जलती हुई आग के समान है। वह अपने तेज से सारे विश्व को तपा रहा है। वह सर्वत्र व्याप्त होता दीख रहा है-सर्वत्र विस्तार पाता दीख रहा है। आपके इस तेज स्वरूप को देखकर हे केशव तीनों लोक कांप उठे हैं।

तीन लोक कम्पित हुए देख तेरा विस्तार।

सर्वत्र तू ही भासता हे पावन जगदाधार।।

Read This - गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-85

आप में देवताओं के समूह, महर्षियों के समूह 'स्वस्ति-स्वस्ति' कहते-कहते प्रवेश कर रहे हैं, आपकी स्तुति कर रहे हैं। गन्धर्व यज्ञादि तुम्हें विस्मित होकर निरख रहे हैं। मैं आपके इस रूप को देखकर मारे भय के कांप रहा हूं।

ऐसा अनेकों साधकों के साथ हुआ है और होता रहता है। जब कोई साधक अपनी साधना की गहराई में उतरता है और वह किसी विशेष स्तर पर पहुंचकर जब ऐसी स्थिति को पा लेता है कि उसके और भगवान के बीच कोई नहीं रहता है तो ईश्वर की परमज्योति को अर्थात ज्योतियों की ज्योति को देखकर साधक की मारे भय के चीख निकल जाती है। वह भय से कांपने लगता है। ऐसा तो नहीं है कि अर्जुन को आज उस परमज्योति के पहली बार दर्शन हो रहे होंगे, उसने पहले भी उससे ध्यान तो लगाया होगा-पर आज कुछ खास है। क्योंकि आज उसके साथ श्रीकृष्णजी खड़े हैं, आज वह अपने सारे अनुभवों को बताने लगा है। संसार के लोगों के लिए संदेश दे रहा है कि जब उस परम ज्योति के दर्शन होते हैं तो कौन-कौन सी अनुभूतियां होती हैं?

अर्जुन कह रहा है कि आपके इस विराट स्वरूप को देखकर मेरा अन्तरात्मा व्याकुल हो उठा है। मुझे न तो धीरज मिल रहा है और न शान्ति मिल रही है। न किसी प्रकार का चैन मिल रहा है।

अब प्रश्न है कि जहां व्याकुलता हो, भय हो, बेचैनी हो-वहां आनन्द तो नहीं रह सकता? जब आनंद नहीं तो भक्ति कैसी?-भगवान कैसा? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कभी-कभी प्रसन्नता में हमारे आंसू भी झलक पड़ते हैं, पर फिर भी हम प्रसन्न होते हैं। प्रसन्नता में रोने में और दु:ख में रोने में आकाश-पाताल का अन्तर है। अर्जुन के साथ जो कुछ हो रहा है-वह दु:ख के कारण नहीं हो रहा है, वह तो प्रसन्नता में हो रहा है-मानो उसके जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य उदय हो गये हैं और उसकी साधना सफल हो गयी है। इसलिए भय में भी प्रसन्नता है, उसकी व्याकुलता में भी प्रसन्नता है, और उसकी बेचैनी में भी प्रसन्नता है। आज का उसका अनुभव उसे यह अनुभव करा रहा है कि ऐसा बार-बार होना चाहिए, सदा होना चाहिए और नित्य होना चाहिए। ऐसा न हो कि यह होकर ना रहे। वह चाहता है कि यह ऐसे ही होता रहे और मेरा स्थायी मित्र बनकर मेरे साथ रहने लगे। इस होने पर अर्जुन को गर्व है।

अर्जुन कह रहा है कि यहां जो राजाओं का संघ खड़ा है-उसके सहित धृतराष्ट्र के पुत्र और उनके पक्ष के भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य, कर्ण, हमारी ओर के मुख्य-मुख्य योद्घा तुम्हारे विकराल दाढ़ों वाले भयंकर मुख में धड़ाधड़ घुसे जा रहे हैं, कुछ तुम्हारे दांतों में फंसे दीख रहे हैं तो कुछ की खोपडिय़ां पिसकर चूर-चूर हो गयीं हैं। जैसे नदी समुद्र की ओर दौड़ती जाती है और उसमें जाकर विलीन हो जाती है-वैसे ही ये वीर योद्घा आपके आग उगलते मुंह की ओर भागे आ रहे हैं, इन्हें देखकर ऐसा लग रहा है जैसे पतंगे बड़े वेग से आग की ओर भाग रहे हों जहां उनका विनाश निश्चित है।

सब कुछ तुझसे हो रहा और तुझ में रहा समाय।

जन्म का कारण है तुही और तू ही रहा है खाय।।

अर्जुन अब समझ गया है कि यह संसार स्वयं ही मृत्यु के मुख की ओर दौड़ रहा है। मृत्यु स्वयं धरती पर आ-आकर लोगों को नहीं उठाती अपितु लोग ही मृत्यु के मुख में जा-जाकर समा रहे हैं। मृत्यु मुंह खोले बैठी है, और लोग उसमें जा-जाकर समा रहे हैं, अपनी आहूति दे रहे हैं। सर्वनाश हो रहा है और इस सर्वनाश की ओर लोग स्वेच्छा से भागे जा रहे हैं, पर यह 'स्वेच्छा' अनजाने में हो रही है। सब मृत्यु से तो बचने की युक्तियां खोजते हैं-पर उस विधाता की विभूति तो देखिये, विशेष व्यवस्था तो देखिये कि जिससे बचने का प्रयास किया जाता है-उससे बचा नहीं जाता और हर चतुर से चतुर व्यक्ति उसके मुंह का ग्रास स्वयं ही जा बनता है। अर्जुन जिन भीष्म द्रोणादि को अमृत्य समझ रहा था, वह भी मृत्यु का ग्रास बनते हुए उसे दीख रहे हैं। वह समझ गया है कि मृत्यु अटल है और इससे बचने की कोई सम्भावना नहीं है-यह सबको पटकेगी और इससे भीष्मादि भी बचने वाले नहीं हैं। बस, यही बात श्रीकृष्णजी अर्जुन को समझाना चाह रहे थे और अब यही बात उसकी समझ में आ गयी थी, अर्थात श्रीकृष्णजी का काम बन गया। अर्जुन ऐसे विराट स्वरूप को देख कर ईश्वर को नमन करता है और वह श्रीकृष्णजी से पूछ बैठता है कि आप कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूं। आप विश्व को किधर ले जा रहे हैं?-इसको कोई नहीं जानता।

जब व्यक्ति अपने ज्ञान की सीमाओं को जान लेता है तो उस समय उसके अन्तर्मन में यह प्रश्न आता है कि आप (ईश्वर) विश्व को किधर ले जा रहे हैं? इसे कोई नहीं जानता।-कहकर अर्जुन ने 'नेति-नेति' कहकर ऋषियों की भांति अपनी हार मान ली है। पर आज वह जान गया है कि इस हार से उसकेे कितने बड़े अहंकार का नाश हो गया है? इस हार में उसकी कितनी बड़ी जीत है? वह हारकर भी जीत गया है-इसलिए वह किसी प्रकार के 'अपराध बोध' से ग्रस्त न होकर 'आनन्द बोध' से प्रसन्न है।

श्रीकृष्ण जी द्वारा काल का वर्णन

अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्णजी कहने लगे कि जो कुछ तू देख रहा है, वह मैं काल हूं। मैं विशाल रूप धारणा कर संसार का संहार करने में लगा हूं। मैं इसी में प्रवृत्त रहता हूं। वास्तव में निर्माण के लिए विध्वंस का होना आवश्यक है। श्रीकृष्णजी काल के रूप में अर्जुन को यही बता रहे हैं कि मैं काल रूप में विध्वंस मचा रहा हूं। पर ये वैसे ही है जैसे जब पुष्प सूख जाते हैं और पौधे भी अपनी पत्तियों को छोडक़र क्यारियों में खड़े रह जाते हैं तो उन्हें हटाना ही पड़ता है जिससे कि नये फूलदार पौधे लगाकर उन क्यारियों में फिर से फूल खिलाये जा सकें।

इसलिए श्रीकृष्णजी कहने लगे कि अर्जुन तू उठ खड़ा हो और यश का लाभ ले शत्रुओं को जीतकर (सूखे पौधों को उखाडक़र नये पौधे लगाकर फूल खिलाने का पुरूषार्थ कर) समृद्घिपूर्ण राज्य का उपभोग कर। ये सब तो मरे ही पड़े हैं, तू निमित्त बन और यश कमा। ये जो योद्घा तेरे सामने खड़े हैं ये तो पहले ही मार दिये गये हैं। इन्हें देखकर तू किसी भी प्रकार से भयभीत ना हो। इन सबसे पूर्ण मनायोग से युद्घ कर और यह ध्यान रख कि तू युद्घ में शत्रुओं को जीतेगा। इस भाव से जबकि युद्घ क्षेत्र में उतरेगा तो विजयश्री तेरा साथ देगी और तू संसार में धर्म का साम्राज्य स्थापित करने में सफल होगा।

आलेख 
 राकेश कुमार आर्य 

गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज




स्वामी चिन्मयानन्द जी की बात में बहुत बल है। आज के वैज्ञानिकों ने 'गॉड पार्टीकल' की खोज के लिए अरबों की धनराशि व्यय की और फिर भी वह 'गॉड पार्टीकल' अर्थात ब्रह्मतत्व की वैसी खोज नहीं कर पाये-जैसी हमारे श्री ऋषि-महर्षियों ने हमें युगों पूर्व करा दी थी। उसी परम्परा को बिना पैसे और बिना अधिक परिश्रम कराये श्रीकृष्ण जी युद्घ के मैदान में निर्वाह कर रहे हैं। अर्जुन से कह रहे हैं कि तनिक दिव्यदृष्टि का प्रयोग कर और देख ले 'गॉड पार्टीकल' अर्थात ब्रह्मतत्व।


श्रीकृष्ण जी ने दिव्य दृष्टि को इतना सरल कर दिया है कि जैसे खिडक़ी में हाथ दें और टिकट लेकर जा बैठो गाड़ी में। इससे पता चलता है कि हमारे यहां ज्ञान कितना सहज और सरल उपलब्ध था? पर यह तब था जब यौवन सिनेमाघरों के टिकट खरीदने में नहीं बीतता था, अपितु जब ब्रह्मतत्व को खोजने में ही यौवन बीतता था। आज के शिक्षाविद् तो ब्रह्मतत्व को खोजने की हमारी प्राचीन शिक्षानीति को या तो भगवावादी शिक्षानीति कहकर उसका उपहास उड़ाएंगे या उसे रूढि़वादी कहकर उपेक्षित कर देंगे।

है धन्य भारत देश मेरा धन्य मेरी भारती।

दिशाएं मंगल गीत गातीं दुनिया उतारे आरती।

स्वामी चिन्मयानन्द जी एक और प्रश्न का भी उत्तम समाधान देते हैं। वह कहते हैं कि संसार हमें एक रूप दीखता क्यों नहीं? क्यों यह शतश: सहस्रश: विभक्त है? क्यों यह नाना रूप है? नाना वर्ण हंै, नाना आकृति है, क्यों इसमें आदित्य, वसु, रूद्र, मरूत अलग-अलग दीखते हैं? क्यों यह विश्व हमें एक रूप ही नहीं दीखता? इसका कारण यह है कि हर वस्तु दूसरी वस्तु से देश (स्क्क्रष्टश्व) तथा काल (ञ्जढ्ढरूश्व) से जुदा है। एक वस्तु यहां है, दूसरी वहां है-यह देश के कारण वस्तुओं की भिन्नता है। एक घटना आज हुई दूसरी घटना पहले या पीछे हुई-यह काल के कारण भिन्नता है। इन्हीं दो कारणों से संसार का नानात्व है, इन दोनों कारणों को हटा दिया जाए तो नानात्व समाप्त हो जाता है, सब संसार एक जगह सिमट आता है। श्रीकृष्णजी ने अर्जुन के मन से देश तथा काल की भावना को निकाल दिया। जब देश तथा काल को निकाल दिया तब उसे पास का और दूर का, भूत का और भविष्य का सब एक ही स्थान पर एक ही काल में दर्शन होने लगा। जो दूर से दूर हो रहा था-वह सामने दीखने लगा। जो सृष्टि में अब तक हो चुका था और जो आगे होने वाला था-वह उसी समय दीखने लगा।

विश्व रूप का दर्शन

संजय ने धृतराष्ट्र को बताया कि महाराज ऐसा अपना उपदेश जारी रखते हुए श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को अपना विश्वरूप-ईश्वरीय रूप दिखाया। जिसमें अनेकों मुख, अनेकों नेत्र, अनेकों अदभुत दृश्य थे। वह अनेक दिव्य अलंकारों से सुभूषित था तथा उसने अनेक दिव्य शस्त्र उठा रखे थे। वह दिव्य मालाओं, वस्त्रों से और सुगंधित लेपों से युक्त था, उसके मुख चारों ओर थे। वह आश्चर्यमय था। उसकी आभा हजारों सूर्यों के समान है। उस महात्मा में अर्जुन ने सारे जगत को एक साथ देखा। तब अर्जुन हाथ जोडक़र सिर झुकाकर खड़ा हो गया, पर वह बहुत ही आश्चर्य चकित और रोमांचित था।

संजय ने ईश्वर के दिव्यस्वरूप का या विश्व रूप का उसकी आत्मा के अनुसार ही चित्रण किया है। वह अविनाशी ब्रह्म का मानवीयकरण कर रहा है। याद रहे कि यह उस ब्रह्म का मानवीयकरण है जो इस चराचर जगत का कारण है। अत: जगत के कारण उस ब्रह्म को यूं ही कोई 'ऐरा-गेरा नत्थू खैरा' तो दिखा नहीं सकता। उसमें तो कुछ अनोखापन होना ही चाहिए। यही कारण है कि उसे हजारों सूर्यों के समान तेजस्वी बताया गया है। वास्तव में जो ब्रह्म अनेकों असंख्यों सूर्यो को बनाने वाला है और जिसके असंख्य लोकों में ऐसे कितने ही सूर्य इस सूर्य से भी लाखों गुणा बड़े आकार के हों-वह तो कुछ ऐसा ही होना चाहिए जैसा उसे संजय ने बताया कि वह हजारों सूर्यों के समान तेजस्वी है।

इस विराट ईश्वर को देखकर अर्जुन आश्चर्य चकित और रोमांचित हो उठता है। उसने अपने जीवन में ऐसा दृश्य कभी पूर्व में नहीं देखा था। उसके लिए यह अनुपम, अद्वितीय और अनोखा दृश्य था। जिसके सामने उसका हाथ जोडक़र खड़ा हो जाना ही उचित था।

अर्जुन कहने लगा कि हे देव! मैं आपके इस रूप में, इस देह में सब देवताओं को, सब प्राणियों को ब्रह्मा को, ईश को, विष्णु को और ऋषियों को देख रहा हूं। मैं देख रहा हूं कि आपका न तो आदि है, न अंत है और न ही मध्य है। चारों ओर आप ही आप हैं। आपके अनेक नेत्र और अनेक मुख हैं। मैं आपको मुकुट, गदा और चक्र धारण किये चारों ओर से तेज की राशि से दीप्त होते हुए देख रहा हूं।

जब व्यक्ति के ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं तो उसकी स्थिति वैसी ही हो जाती है जैसी कि अर्जुन की हो गयी है। उसे परमपिता-परमात्मा और उसकी ज्योति सर्वत्र भासने लगती है। उसके अनेक हाथ दीखने का अभिप्राय है कि वह करोड़ों-अरबों नहीं अपितु असंख्य प्राणियों का अन्नदाता है। हर दिन प्रात:काल में वह हर प्राणी के निमित्त का अन्नादि बांटता है। उसकी इस रूप में पूजा करने वाला उसे अनेकों हाथों वाला ही कहेगा। वह दे रहा है और हर दिन दे रहा है, फिर भी उसके भण्डार समाप्त नहीं होते उसे ऐसा मानने वाला परमैश्वर्य संपन्न ही मानेगा और उसका ऐसा ही चित्र बनाएगा। वह परमात्मा शत्रु सन्तापक है, दुष्ट संहारक है, वह अपने भक्तों का त्राता है, उसे ऐसा मानने वाला उसके हाथों में गदा देखेगा, चक्र देखेगा और उसे सेनाओं का सेनापति मानकर मुकुट से सुशोभित हुआ भी देखेगा। उससे छुपकर कोई पाप नहीं किया जा सकता, उसे ऐसा मानने वाला उसके अनेक नेत्रों का दर्शन करेगा, अर्जुन उसे ऐसा ही देख रहा है। उसके अनेक रूप एक साथ प्रकट हो रहे हैं और अर्जुन विस्फारित नेत्रों से उसे देख रहा है। उसके अनेक रूपों को देखने का अभिप्राय है कि अर्जुन को ज्ञान हो गया है और वह यह समझ गया है कि वह परमात्मा हमारी किन-किन रूपों में सहायता करता रहता है? अभ्यास से हम लोग अपने भीतर भी एक ऐसी शक्ति का आभास करने लगते हैं जो हमें भीतर बैठी-बैठी गलत कार्यों से रोकती और टोकती है तो अच्छे कार्यों पर हमें प्रोत्साहित करती है, हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए पिता के रूप में हमारी पीठ थपथपाती है। मां के रूप में हमें छाती से लगाती है। अपने स्थान से जब हम कहीं दूर देश में होते हैं तो वह शक्ति वहां भी हमारे लिए माता-पिता, गुरू, मित्रादि की कमी की पूर्ति करती रहती है। बात साफ है कि जो कुछ अर्जुन के साथ हो रहा था-वह हमारे साथ भी होता है। पर हमने अपने साथ होने को हल्के में ले लिया है और अर्जुन के साथ होने को खास मान लिया है। जबकि श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को जो कुछ दिखाया या गीताकार ने इस होने को जिस प्रकार महिमामंडित किया-वह इसलिए किया कि यह खास होकर भी आम बन जाए, सर्वसुलभ हो जाए। जब कोई चाहे तब बाहर की चर्मचक्षु बन्द करे और भीतर अपने प्रियतम की झलक पा ले। गीताकार के इसी दृष्टिकोण को समझकर हमें अर्जुन बनने की दिशा में कार्य करना चाहिए। गीता के रूप में और वैदिक साहित्य के रूप में श्रीकृष्ण जी हमारे साथ हैं, हमें ही अर्जुन बनना होगा। हमने अर्जुन और कृष्ण को महाभारत का पात्र मानकर उन्हें वहीं तक सीमित कर दिया है। जबकि सनातन ज्ञानपरम्परा का अभिप्राय यह होता है कि वह ज्ञान के प्रतीकों को सनातन ही रखती है

आलेख 
राकेश कुमार आर्य



राम से बड़ा राम का नाम

"एक राम दशरथ घर डोले,
एक राम घट घट में बोले।
एक राम का सकल पसारा,
एक राम त्रिभुवन ते न्यारा।।"

पहला राम रामचंद्र जी महाराज हिंदुस्तान के राजा हुए हैं जो त्रेता युग में आए और अपना काम करके चले गए। दूसरा राम मन है जो अभी यहां है अभी मुंबई चला गया कोलकाता चला गया यह कभी बैठता ही नहीं यह बड़ा चंचल है। तीसरा राम ब्रह्म है जो सारी सृष्टि को पालता है। चौथा राम सतनाम हैं जो खंडों ब्रह्मांडों को बनाता है। जो सभी में रमा हुआ है । वह संतों का राम है। जिस तरह राम चंद्र जी ने राक्षसों को मारा था इसी तरह जो संतों का राम है वह काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार रूपी असुरों यानी राक्षसों को मारता है। मतलब कि वह काल की सारी असुरी शक्तियों यानी नेगेटिव पावर को मारता है। राम लफ्ज़ नहीं बल्कि जो ताकत जर्रे-जर्रे में मौजूद है उसे राम कहते हैं। किसी देश किसी कौम किसी मजहब का कोई भी आदमी हो स्त्री हो या पुरुष वह राम वह शब्द वह नाम वह प्यारी से प्यारी धुन सबके अंदर है।



*प्रकृति, विकृति और संस्कृति*



*एक प्रसिद्ध कहावत है कि अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खा लेना विकृति, तथा अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। इस संबंध में एक पुराना प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे।*

युधिष्ठिर ने एक बार राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ के बाद दूर-दूर से आये विद्वानों को भरपूर दान देकर सम्मान सहित विदा किया गया। सब लोग यज्ञ की सफलता से बहुत प्रसन्न थे। 

*एक दिन सभी परिवारजन बैठे थे कि एक नेवला वहाँ आया। उसे देखकर सब आश्चनर्यचकित रह गये। उसके शरीर का आधा हिस्सा सुनहरा था, जबकि शेष हिस्सा सामान्य नेवले जैसा था। वह नेवला अचानक मनुष्यों जैसी भाषा में बोलने लगा।*

नेवला बोला - *महाराज युधिष्ठिर, यह ठीक है कि आपने यज्ञ में बहुत दान दिया है। यज्ञ भी समुचित विधि-विधान से हुआ है। आपको बहुत पुण्य और यश भी मिला है। फिर भी आपके यज्ञ में वह बात नहीं है, जो उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ में थी।
सब लोग हैरान हो गये।* 

युधिष्ठिर बोले - *तुम किस यज्ञ की बात कर रहे हो। कृपया हमें उसके बारे में कुछ बात बताओ। तुम्हारे शरीर का आघा भाग सुनहरा और शेष सामान्य नेवले जैसा क्यों है ?* 

नेवला बोला - *महाराज, मैं जहाँ से आ रहा हूँ, वहाँ भयानक अकाल पड़ा है। वहाँ एक निर्धन अध्यापक अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। वे घर आये अतिथि का भगवान समझकर सत्कार करते थे। वर्षों से वे इस परम्परा को निभा रहे थे।*

लेकिन अकाल के कारण उन्हें प्राय: कई दिन तक भूखा रहना पड़ता था। एक दिन वह अध्यापक कहीं से थोड़ा आटा लाया। उसकी पुत्रवधू ने उससे पाँच रोटी बनायीं। एक रोटी भगवान को अर्पण कर उन्होंने एक-एक रोटी आपस में बाँट ली। वे खाना प्रारम्भ कर ही रहे थे कि अचानक द्वार पर एक भिक्षुक दिखायी दिया। 

*उसके शरीर को देखकर ही लग रहा था कि कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है।*

अध्यापक ने उसका सत्कार किया और अपनी रोटी उसे दे दी। पर उसकी भूख शांत नहीं हुई। अब अध्यापक की पत्नी ने अपने हिस्से की रोटी भी उसकी थाली में डाल दी। इसी प्रकार क्रमश: पुत्र और फिर पुत्रवघू ने भी अपनी रोटी उन अतिथि महोदय को दे दी। चारों रोटी खाकर वह तृप्त हो गया और आशीर्वाद देकर चला गया।

नेवला बोला - *महाराज, उस भिक्षुक के जाने के बाद मैं वहाँ आया, तो उस धरती पर गिरे कुछ अन्नकण मेरे शरीर से छू गये। बस उसी समय मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। तब से मैं देश-विदेश में भटक रहा हूँ। जहाँ भी कोई बड़ा धार्मिक कार्यक्रम होता है, वहाँ जाता हूँ।* 

आपके यज्ञ की भी मैंने बहुत प्रशंसा सुनी थी; पर यहाँ भी मेरा शेष शरीर सुनहरा नहीं हुआ। इसका अर्थ साफ है कि आपके इस यज्ञ का महत्त्व उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ से कम है।

*यह कहानी हमें प्रकृति, विकृति और संस्कृति का अंतर स्पष्ट करते हुए बताती है कि भारतीय संस्कृति ही अपनी रोटी दूसरे को खिला देने की प्रेरणा देती है

सफलता के 20 मँत्र


1.खुद की कमाई  से कम   खर्च हो ऐसी जिन्दगी   बनाओ..!
2. दिन  मेँ कम  से कम   3 लोगो की प्रशंसा करो..!
3. खुद की भुल स्वीकारने   मेँ कभी भी संकोच मत    करो..!
4. किसी  के सपनो पर  हँसो     मत..!
5. आपके पीछे खडे व्यक्ति    को भी कभी कभी आगे    जाने का मौका दो..!
6. रोज हो सके तो सुरज को   उगता हुए देखे..!
7. खुब जरुरी हो तभी कोई    चीज उधार लो..!
8. किसी के पास  से  कुछ   जानना हो तो विवेक  से   दो बार...पुछो..!
9. कर्ज और शत्रु को कभी    बडा मत होने दो..!
10. खुद पर और खुदा पर पुरा भरोसा   रखो..! 
11. प्रार्थना करना कभी  मत भुलो,प्रार्थना मेँ  अपार शक्ति होती है..!
12. अपने काम  से मतलब    रखो..!
13. समय सबसे ज्यादा   कीमती है, इसको फालतु   कामो  मेँ खर्च मत करो..
14. जो आपके पास है, उसी   मेँ खुश रहना सिखो..!
15. बुराई कभी भी किसी कि  भी मत करो,  क्योकिँ  बुराई नाव  मेँ  छेद समान  है,बुराई,छोटी भी हो बडी नाव तो   डुबो ही देती  है..!
16. हमेशा सकारात्मक सोच   रखो..!
17. हर व्यक्ति एक हुनर  लेकर  पैदा होता है बस   उस हुनर को दुनिया के   सामने लाओ..!
18. कोई काम छोटा नही    होता हर काम बडा होता   है जैसे कि सोचो जो  काम आप कर रहे हो
             अगर वह काम   आप नही करते हो तो    दुनिया पर क्या असर     होता..?
19. सफलता उनको ही   मिलती  है जो कुछ     करते  है
20. कुछ पाने के लिए कुछ   खोना नही बल्कि  कुछ  करना पडता है....!

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,



''तुझे पर्वतों में खोजा तो लिये पताका खड़ा था।

तुझे सागर में  खोजा तो मां के चरणों में पड़ा था।

सर्वत्र तेरे कमाल से विस्मित सा था मैं,

मुझे पता चल गया तू सचमुच सबसे बड़ा था।।''

ईश्वर को खोजने वाली दृष्टि होनी चाहिए-फिर सारी सृष्टि में वही दिखायी देगा। वह देहधारी नहीं है, और ना हो सकता है-पर जब उसे देखने की बात आ जाएगी तो कहीं उसके पैरों का विस्तार दिखायी देगा तो कहीं उसकी बाजुओं का विस्तार दिखायी देगा। कहीं वह हमें माता की भांति दुलार रहा होगा तो कहीं पिता की भांति अपने वात्सल्य की वर्षा कर रहा होगा और कहीं मित्र की भांति हमसे बड़े प्रेम से वात्र्तालाप कर रहा होगा। तब पता चलेगा कि वह कितना विराट है? उसके इस विराट स्वरूप को ही गीताकार ने गीता के ग्यारहवें अध्याय का विषय बनाया है। इसमें अर्जुन की जिज्ञासा जागृत हो गयी है। अब वह ईश्वर की विभूतियों में उसे खोजने की इच्छा से आगे बढ़ गया है। वह चाहता है कि इधर-उधर भागूं-दौडूं और उसकी विभूतियों को खोजता फिरूं, इससे तो बढिय़ा यह होगा कि वह परमात्मा साक्षात ही देखा जाए?


श्रीकृष्ण जी अपने शिष्य के भीतर ऐसी ही आग सुलगा देना चाहते थे और अब उनको इसमें सफलता मिल गयी। उनका शिष्य अर्जुन ग्यारहवें अध्याय में बोल पड़ा-'दृष्टुमिच्छामि ते रूपमं'-अर्थात अभी तक जो कुछ आपने दिखाया या समझाया यह तो बहुत छोटी बात हुई-मेरा काम तेरे इस रूप को देखने से नहीं चलने वाला, मुझे तो तेरे साक्षात दर्शन चाहिए। ईश्वर का विराट रूप मैं देखना चाहता हूं। अब मन को चैन तभी मिलेगा जब उसके विराट स्वरूप के दर्शन होंगे। मैं चाहता हूं कि मेरे सामने वह खड़ा हो, मैं उसे देखूं कि कैसा है वह?

श्रीकृष्णजी भी अर्जुन को इसी पराकाष्ठा पर ले आना चाहते थे। बात भी तभी बनती है-जब दोनों ओर चाह की आग लगी हो। ऐसा नहीं हो सकता कि गुरू तो चाहे कि मेरे शिष्य को मैं ये ज्ञान दे दूं और 'वह' ज्ञान दे दूं-पर शिष्य गुरू से पिण्ड छुड़ाना चाहे या शिष्य तो 'और-और' की रट लगा रहा हो और गुरू 'बस करो-बस करो' -कहकर हाथ उठा रहा हो।

यहां जिस गुरू-शिष्य का संवाद चल रहा है वह कोई साधारण गुरू-शिष्य नहीं हैं, वे दोनों ही असाधारण हैं। अत: शिष्य की किसी भी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए गुरू प्रयोग करके दिखाने को भी तैयार है। 'महाभारत' का युद्घ संसार का अकेला ऐसा युद्घ है जहां युद्घ से पहले और युद्घ के ही मैदान में एक गुरू अपने उस शिष्य को बड़ी प्रयोगशाला में लेकर चल देता है-जिसे अभी बीस मिनट बाद ही युद्घ करना है। 'युद्घ' और 'बुद्घ' (बुद्घिवाद) का अद्भुत संगम हमें कुरूक्षेत्र के मैदान में दिखायी देने लगा है। आज के विश्व के लिए तो ऐसा 'युद्घवाद' और 'बुद्घिवाद' कल्पनातीत हैं-वह सोच भी नहीं सकता कि युद्घ के बादलों के नीचे खड़े होकर भी विवेक और वैराग्य की बातें की जा सकती हैं?

इस अध्याय की शुरूआत ही अर्जुन के इस वाक्य से होती है कि अब मेरा मोह दूर हो गया है। मैंने बड़े ध्यान से आपकी बातों को सुना है। इन सब बातों को सुनने के पश्चात मैं चाहता हूं कि आपका साक्षात दर्शन हो तो अच्छा है, अर्थात ईश्वर के उस विराट स्वरूप का दर्शन कराइये जिसकी अभी तक आपने मुझे विभूतियों के नाम पर हल्की सी झलक दिखायी है। मैं चाहूंगा कि तेरा वह अव्यय अविनाशी रूप मैं देखूं जो इन सभी विभूतियों के लिए जिम्मेदार है।

तेरे अविनाशी स्वरूप को देखन चाहें नैन।

विराट पुरूष को देखकर मिलेगा दिल को चैन।।

अर्जुन की जागी हुई इस जिज्ञासा के गरम लोहे पर श्रीकृष्णजी ने भी तुरन्त ही चोट मारना उचित समझा। अत: वह कहने लगे-

नाना रूप धार के रहते हैं भगवान।

बहुरूपिया है वह कुछ ऐसा ऐसा जान।।

अर्जुन मेरे नाना रूप हैं, नाना आकृति हैं, कितने ही रूपों में होने के कारण ईश्वर 'बहरूपिया' है। उसके दिव्य 'बहुरूपिये' स्वरूप को दिव्यार्थों में ही समझने की आवश्यकता है।

हे भारत! आदित्यों, वसुओं, रूद्रों-दोनों अश्विनी-कुमारों और मरूतों को देख और अदृष्टपूर्व आश्चर्यों को देख-ऐसा आश्चर्य जो पहले कभी देखे ही नहीं गये।

तू यहां मेरे देह में सारे जगत को एक जगह सिमटा हुआ देख, जो कुछ भी तू देखना चाहता है उसे ही देख।

पर ध्यान रखना कि तू मुझे अपनी इन चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकेगा, मैं तुझे दिव्य चक्षु=ज्ञान चक्षु=दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं, क्योंकि मेरे दर्शन दिव्य दृष्टि से ही होने संभव है।

अलौकिक को लौकिक से, अदृश्य को दृश्य से और दिव्य को किसी भौतिक से नहीं देखा जा सकता। जितना बड़ा शिकार हो, वैसे ही हथियार लेकर चलने की आवश्यकता है। जब साधक अपनी साधना की गहराई में पहुंचने लगता है और उसका आसन दृढ़ से दृढ़तर होता जाता है तो ये चर्मचक्षु अपने आप ही बंद होने लगते हैं। इन्हें अपनी शक्ति और सीमा का पता चल जाता है। अत: ये साधक से स्वयं ही कहने लगते हैं कि अब हमारा काम नहीं, अब यहां से आगे तू किसी और का सहारा पकड़। जैसे-जैसे हमारे चर्मचक्षु बंद होते जाते हैं, वैसे-वैसे ही हमारे दिव्य चक्षु खुलने लगते हैं। आश्चर्य की बात ये है कि हम कब चर्म, चक्षुओं से दिव्य- चक्षु या दिव्य-दृष्टि को प्राप्त कर लेते हैं-यह हमें पता ही नहीं चलता।

महाभारत के युद्घ में ऐसा नहीं था कि श्रीकृष्ण जी ने अपने पिटारे में से नये चश्मे निकाले और अर्जुन को लगाकर उससे बोल दिया कि अब तू मेरा तमाशा इन चश्मों से देख। इसके स्थान पर उन्होंने संध्याप्रेमी और भगवद्प्रेमी अर्जुन को यही बताया कि अर्जुन उसके विराट स्वरूप को देखने के लिए तुझे अपने उन्हीं दिव्यचक्षुओं का प्रयोग करना पड़ेगा, जिन्हें हम भगवद्भजन के समय लगाने के अभ्यासी हैं। 'मैं तुझे दिव्य दृष्टि देता हूं'-का अभिप्राय यही है कि मैं तुझे उसी दिव्य दृष्टि का स्मरण कराता हूं, तू उसी को धारण कर और परमात्मा के विराट स्वरूप के दर्शन कर। डा. राधाकृष्णनजी ने भी दिव्य दृष्टि का अर्थ 'एक आध्यात्मिक अनुभूति' ही किया है। स्वामी चिन्मयानन्द जी ने दिव्य दृष्टि का अर्थ 'बौद्घिक ज्ञान' से किया है। वह कहते हैं कि रसायन शास्त्र में कभी कहा जाता था कि संसार के अनन्त पदार्थ प्रयोगशाला में जाकर सिर्फ 92 तत्व रह जाते हैं। किसी समय हमारे वैज्ञानिक लोग इन 92 तत्वों में ही संसार के अनन्त तत्वों के दर्शन कर लेते थे, आज के अणु युग में कहा जाता है कि इलेक्ट्रान, प्रोटान तथा न्यूट्रोन-इन तीन 'ट्रोनों' में विश्व के दर्शन हो जाते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को 'एक ब्रह्मतत्व' में विश्व का दर्शन करा दिया

आलेख 
राकेश आर्य