Saturday, August 29, 2015

कांच और हीरा

दोस्तों,
यह बोध कथा व्हाट्स अप पर प्राप्त हुई थी याद रहे इसलिए इसको यहाँ दे रहा हूँ।

एक राजा का दरबार लगा हुआ था क्योंकि सर्दी का दिन था, इसलिये राजा का दरवार खुले मे बैठा था पूरी आम सभा सुबह की धूप मे बैठी थीl
महाराज ने सिंहासन के सामने एक टेबल जैसी कोई कीमती चीज रखी थी पंडित लोग दीवान आदि सभी दरवार मे बैठे थे राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे उसी समय एक व्यक्ति आया और प्रवेश मागा।           


प्रवेश मिल गया तो उसने कहा मेरे पास दो वस्तुए है मै हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और अपनी बात रखता हूँ।
कोई परख नही पाता सब हार जाते हैंं और मै विजेता बनकर घूम रहा हूँ।
अब आपके नगर मे आया हूँ।
राजा ने बुलाया और कहा क्या बात है।
तब उसने दोनो वस्तुये टेबल पर रख दी बिल्कुल समान आकार, समान रुप रंग, समान प्रकाश सब कुछ नख सिख समान।
राजा ने कहा ये दोनो वस्तुए एक है।
तब उस व्यक्ति ने कहा हाँ दिखाई तो एक सी देती हैं लेकिन हैं भिन्न।
इनमे से एक है बहुत कीमती हीरा है और एक है काँच का टुकडा।
लेकिन रूप रंग सब एक है।
कोइ आज तक परख नही पाया की कौन सा हीरा है और कौन सा काँच।
कोइ परख कर बताये की ये हीरा है या ये काँच।
अगर परख खरी निकली तो मे हार जाउँगा और यह कीमती हीरा मै आपके राज्य की तिजोरी मे जमा करवा दूंगा ।
यदि कोइ न पहचान पाया तो इस हीरे की जो कीमत है उतनी धनराशि आपको मुझे देनी होगी।
इसी प्रकार मे कइ राज्यो से जीतता आया हूँ।
राजा ने कहा मै तो नही परख सकूंगा दीवान बोले हम भी हिम्मत नही कर सकते क्योंकि दोनो बिल्कुल समान है।
कोइ हिम्मत नही जुटा पाया।
हारने पर पैसे देने पडेगे इसका कोई सवाल नही था क्योकि राजा के पास बहुत धन है।
राजा की प्रतिष्ठा गिर जायेगी इसका सबको भय था अगर कोइ व्यक्ति पहचान नही पाया।आखिरकार पीछे थोडी हलचल हुई।
एक अंधा आदमी हाथ मे लाठी लेकर उठा।
उसने कहा मुझे महाराज के पास ले चलो मैने सब बाते सुनी है।
और यह भी सुना कि कोइ परख नही पा रहा है।
एक अवसर मुझे भी दो।
एक आदमी के सहारे वह राजा के पास पहुँचा अौर उसने राजा से प्रार्थना की मै तो जनम से अंधा हूँ फिर भी मुझे एक अवसर दिया जाये।
मैं भी एक बार अपनी बुद्धि को परखू और हो सकता है कि सफल भी हो जाऊ और यदि सफल न भी हुआ तो वैसे भी आप तो हारे ही हैं।
राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे क्या हरज है।
राजा ने कहा ठीक है।
तब उस अंधे आदमी को दोनो चीजे छुआ दी गयी और पूछा गया इसमे कौन सा हीरा है और कौन सा काँच यही परखना है।
कथा कहती है कि उस आदमी ने एक मिनट मे कह दिया कि यह हीरा है और यह काँच जो आदमी इतने राज्यो को जीतकर आया था ।
आदमी नतमस्तक हो गया और बोला सही है।
आपने पहचान लिया, धन्य हो आप अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मै आपके राज्य की तिजोरी मे दे रहा हूँ।
सब बहुत खुश हो गये और जो आदमी आया था वह भी बहुत प्रसन्न हुआ कि कम से कम कोई तो मिला परखने वाला।
वह राजा और अन्य सभी लोगो ने उस अंधे व्यक्ति से एक ही जिज्ञासा जताई कि तुमने यह कैसे पहचाना कि यह हीरा है और वह काँच
उस अंधे ने कहा की सीधी सी बात है।
मालिक धूप मे हम सब बैठे हैं।
मैने दोनो को छुआ।
जो ठंडा रहा वह हीरा जो गरम हो गया वह काँच ।
जीवन मे भी देखना जो बात बात मे गरम हो जाये उलझ जाये वह काँच।
जो विपरीत परिस्थिति मे भी ठंडा रहे वह हीरा है।
 
 और अंत में  
"वीणा के तारों को इतना मत कसो कि वे टूट जांए -
इतना ढीला भी मत छोड़ो कि उनसे स्वर ही न निकलें।
संतुलन ही सफल जीवन का सार है।।"        
महात्मा बुद्ध 
 
 
अजय सिंह "जे एस के "

Wednesday, August 26, 2015

पॉजिटिव और नेगेटिव सोच


 दोस्तों

 निम्न कहानी मुझे व्हाटस अप पर प्राप्त हुयी थी इसको यहाँ पर प्रकाशन का उद्देश्य केवल हर समय याद रह सके है और समय पर इसको बताया जा सके और उपयोग कर जीवन को बेहतर बनाया जा सके है



 एक महान लेखक अपने लेखन कक्ष में बैठा हुआ लिख रहा था।
1) पिछले साल मेरा आपरेशन हुआ और मेरा गालब्लाडर निकाल दिया गया। इस आपरेशन के कारण बहुत लंबे समय तक बिस्तर पर रहना पड़ा।

2) इसी साल मैं 60 वर्ष का हुआ और मेरी पसंदीदा नौकरी चली गयी। जब मैंने उस प्रकाशन संस्था को छोड़ा तब 30 साल हो गए थे मुझे उस कम्पनी में काम करते हुए।
3) इसी साल मुझे अपने पिता की मृत्यु का दुःख भी झेलना पड़ा।
4) और इसी साल मेरा बेटा कार एक्सिडेंट हो जाने के कारण मेडिकल की परीक्षा में फेल हो गया क्योंकि उसे बहुत दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। कार की टूट फूट का नुकसान अलग हुआ।
अंत में लेखक ने लिखा,
**वह बहुत ही बुरा साल था।


जब लेखक की पत्नी लेखन कक्ष में आई तो उसने देखा कि, उसका पति बहुत दुखी लग रहा है और अपने ही विचारों में खोया हुआ है। अपने पति की कुर्सी के पीछे खड़े होकर उसने देखा और पढ़ा कि वो क्या लिख रहा था।
वह चुपचाप कक्ष से बाहर गई और थोड़ी देर बाद एक दूसरे कागज़ के साथ वापस लौटी और वह कागज़ उसने अपने पति के लिखे हुए कागज़ के बगल में रख दिया।
लेखक ने पत्नी के रखे कागज़ पर देखा तो उसे कुछ लिखा हुआ नजर आया, उसने पढ़ा।
1 पिछले साल आखिर मुझे उस गालब्लाडर से छुटकारा मिल गया जिसके कारण मैं कई सालों से दर्द से परेशान था।
2 इसी साल मैं 60 वर्ष का होकर स्वस्थ दुरस्त अपनी प्रकाशन कम्पनी की नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ। अब मैं पूरा ध्यान लगाकर शान्ति के साथ अपने समय का उपयोग और बढ़िया लिखने के लिए कर पाउँगा।
3 इसी साल मेरे 95 वर्ष के पिता बगैर किसी पर आश्रित हुए और बिना गंभीर बीमार हुए परमात्मा के पास चले गए।
4 इसी साल भगवान् ने एक्सिडेंट में मेरे बेटे की रक्षा की। कार टूट फूट गई लेकिन मेरे बच्चे की जिंदगी बच गई। उसे नई जिंदगी तो मिली ही और हाँथ पाँव भी सही सलामत हैं।
अंत में उसकी पत्नी ने लिखा था,
**इस साल भगवान की हम पर बहुत कृपा रही, साल अच्छा बीता।😊😆☺
मित्रो मानव-जीवन में प्रत्येक मनुष्य के समक्ष अनेकों परिस्थितियां आती हैं, उन परिस्थितियों का प्रभाव क्या और कितना पड़ेगा, यह पूरी तरह हमारे सोचने के तरीके पर निर्भर करता है। चीजें वही रहती हैं पर नजरिया बदलने से पूरा परिणाम बदल जाता है।




 अंत में 

किसी की मजबूरियाँ पे न हँसिये,
कोई मजबूरियाँ ख़रीद कर नहीं लाता..!
डरिये वक़्त की मार से,
बुरा वक़्त किसीको बताकर नही आता..!

Wednesday, August 19, 2015

जीवन एक उत्सव

दोस्तों ,
जब किसी घर में कोई नया जीवन आता है अर्थात जन्म लेता है तो घर खुशियों से भर जाता है और इसकी ख़ुशी त्यौहार की तरह ही मानते और मनाते है फिर धीरे धीरे हम ख़ुशी मनाए जाने के लिए अवसर ढूढंते है जैसे जब  बच्चे का नाम रखेंगे, पढ़ना शुरू करेगा अथवा स्कूल जायेगा तब घटना को उत्सव की तरह मनाते है।  इस तरह हम पहले तो अग्रसक्रिय या प्रोएक्टिव होते है फिर सक्रिय या एक्टिव रहते है जैसे जैसे उम्र बढ़ती है तो हम प्रतिक्रियाशील अर्थात रिएक्टिव हो जाते है।  यानि हम  खुश होना तो चाहते है क्योंकि ख़ुशी  ईश्वर का गुण है परन्तु इसके लिये कारण तलाश करते रहते और जब कारण मिल जाता है तब ही हम ख़ुशी मनाते है क्योंकि हमारी मान्यता यह है की ख़ुशी के लिए कुछ कारण जरुरी है। उदहारण के लिये जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी साँस चलती है हमारा दिल धड़कता है हमारा शरीर स्वस्थ है और काम कर रहा है इसको खुशी का कारण न मान कर जब बीमार हो जाते है तो पुनः स्वस्थ होने पर ख़ुशी मनांते है और ईश्वर का धन्यवाद करते है।

क्या  हमारी साँस का चलना अपने आप में ख़ुशी का कारण नही है ?क्या शरीर का स्वस्थ होना और ठीक से अपने नित्य कर्मो को करना ख़ुशी मनाने के लिए आवश्यक और पर्याप्त कारण  नहीं है ? वास्तव में हमने अपने मन का परिसीमन कर दिया है और उसे यह प्रशिक्षण दे दिया है की कुछ विशेष अवसरों पर ही खुश रहना है। जबकि ईश्वरीय व्यस्था यह है की हमारे जीवन हर पल  एक नया अवसर है जिसमे  हमें खुश होकर प्रविष्ट करना है ,जो उस पल में उस क्षण में घटित हो रहा है उसे आश्चर्य से देखना है उसका आनंद लेना है और उसकी सराहना करते हुए ईश्वर का धन्यवाद करना है।  

आप के साथ जो कुछ घटित हो रहा है वह ईश्वर की दिव्य योजना का  हिस्सा है। अतः  प्रसन्नता के साथ धन्यवाद भाव से आनन्द लेते हुये जीवन जीना शुरू करने का अभ्यास करने से जीवन खुद एक उत्सव बन जायेगा। आपके साथ आपके परिवार जन,मित्र  और सहयोगी सभी जीवन में खुश रहने का कारण ढूढ़ने के बजाय खुद ख़ुशी बन जायेंगे और फिर ख़ुशी जिसके पास जाती है उसे खुश ही करेगी।

जब हमारा जीवन  खुद ख़ुशी का सबसे सुन्दर कारण है तो हम फिर दूसरी क्षणिक ख़ुशी को ढूढ़ने में इस बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ क्यों करें। आईये आज से नहीं इसी क्षण से तय करें और इसे इस तरह की प्रशिक्षण दे की हमारे जीवन का हर पल दीपावली मनाने जैसा ही रहेगा इसके लिए हमें किसी अन्य अथवा बाहरी कारण की आवश्यकता है नहीं है। बाहरी कारण तो परिवर्तन शील है और इसलिये यह हर खुशी के बाद गम लाएंगे।  हर पल हर क्षण की ख़ुशी तो अपने अंदर से ही आने वाली है और यह अनन्त है जीवन के शुरू होने पर शुरू हुई है और जीवन के साथ ही खत्म होने वाली है। 

अजय सिंह "जे एस के "


 

Sunday, August 16, 2015

एक बून्द और कर्मवीर कवितायेँ




 दोस्तों ,

मेरे जीवन में जिन बातो ने अत्यधिक प्रभाव डाला है उनमे से एक है अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध " की कविता एक बूंद  जिसे निचे मैं श्रद्धांजलि स्वरूप दे रहा हूँ, यह आप सभी के जीवन को उम्मीद की नई  रह दिखाएगी ऐसा मेरा विश्वास है


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।
दैव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा।
में बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।                                                      
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।
लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।



 कर्मवीर



देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उबताते नही
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी है सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।।

जो कभी अपने समय को यों बिताते है नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते है नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं                                
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिये
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिये।।

व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहां रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कंपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।


लेखक :