Saturday, December 26, 2015

रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच एक दुर्लभ संवाद

 रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच एक दुर्लभ संवाद

स्वामी विवेकानंद     :  मैं समय नहीं निकाल पाता. जीवन आप-धापी से भर गया है.

रामकृष्ण परमहंस   :  गतिविधियां तुम्हें घेरे रखती हैं. लेकिन उत्पादकता आजाद करती है.

स्वामी विवेकानंद     :  आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?

रामकृष्ण परमहंस   :  जीवन का विश्लेषण करना बंद कर दो. यह इसे जटिल बना देता है. जीवन को सिर्फ जिओ.

स्वामी विवेकानंद     :  फिर हम हमेशा दुखी क्यों रहते हैं?

रामकृष्ण परमहंस   :  परेशान होना तुम्हारी आदत बन गयी है. इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते.

स्वामी विवेकानंद     :  अच्छे लोग हमेशा दुःख क्यों पाते हैं?

रामकृष्ण परमहंस   :  हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है. सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है. अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं. इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता.

स्वामी विवेकानंद     :  आपका मतलब है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?

रामकृष्ण परमहंस   :  हां. हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है. पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है.

स्वामी विवेकानंद     :  समस्याओं से घिरे रहने के कारण, हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं...

रामकृष्ण परमहंस   :  अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो. अपने भीतर झांको. आखें दृष्टि देती हैं. हृदय राह दिखाता है.

स्वामी विवेकानंद     :  क्या असफलता सही राह पर चलने से ज्यादा कष्टकारी है?

रामकृष्ण परमहंस   :  सफलता वह पैमाना है जो दूसरे लोग तय करते हैं. संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो.

स्वामी विवेकानंद     :  कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाए रख सकता है?

रामकृष्ण परमहंस   :  हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है. जो कुछ पाया है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका उसे नहीं.

स्वामी विवेकानंद     :  लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?

रामकृष्ण परमहंस   :  जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, "मैं ही क्यों?" जब वे खुशियों में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, "मैं ही क्यों?"



स्वामी विवेकानंद     :  मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूँ?

रामकृष्ण परमहंस   :  बिना किसी अफ़सोस के अपने अतीत का सामना करो. पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो. निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो.

स्वामी विवेकानंद     :  एक आखिरी सवाल. कभी-कभी मुझे  लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं.

रामकृष्ण परमहंस   :  कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती. अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो. जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है. यह कोई समस्या नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है. मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है.

Tuesday, December 22, 2015

अनुलोम-विलोम काव्य

 दोस्तोँ ,

क्या ऐसा सम्भव है कि किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे। 

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ 'राघवयादवीयम् ' ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है।

पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। 

इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है :

राघवयादवीयम। उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जो जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।
राघवयादवीयम के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं
राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्
 
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्या
सावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताके
सा ॥ २॥
कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥
रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥
यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥
मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥
विलोमम्
 
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥
रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगो
रेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सा
रसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥
सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसा
रहा ॥ ८॥

विलोमम्
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्
वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससा
रसा ॥ ८॥
सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥
तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥
वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्
यसौ ॥ ११॥

विलोमम्
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्
वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥
यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥
रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥
यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥
दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्
डदम् ॥ १५॥
सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥
विलोमम्
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रु
तम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥
सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

विलोमम्
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥
तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥
गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥
हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिरा
ः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥
ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ॥ २१॥

विलोमम्
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥
भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥
विलोमम्
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधी
रुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥
हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारु
तम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥
भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥
हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥
सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतो
गजम् ॥ २६॥

विलोमम्
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमा
सतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥
वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥
हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥
नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणा
वरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥
साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्
यसा ॥ ३०॥
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॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री राघव यादवीयं समाप्तम् ॥
....................रामभक्त

Sunday, December 20, 2015

गीता जयन्ती पर विशेष

दोस्तों ,

आज गीता जयन्ती है। धर्म गर्न्थो के मुताबिक मार्ग शीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को गीता जयंती मनाई जाती है। 5151 वर्ष पहले इसी दिन भगवत गीता दुनिया के समक्ष उद्घाटित हुई थी। भगवत गीता के सम्बन्ध में कुछ और रोचक जानकारियाँ दी जा रही है :



  • कर्तव्य से भटके अर्जुन को कर्तव्य पथ पर लाने एवं आने वाली पीढ़ियों को कर्म की प्रधानता बताने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता का सन्देश दिया था। इसका सार निष्काम भावना से कर्म करना है। 
  • भगवत गीता के 18 अध्यायों में 700  श्लोक है। यह महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है। इसमें श्रीकृष्ण ने 574 ,अर्जुन ने 85 ,संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने १ श्लोक उच्चारित किया है। 
  • महाग्रंथ गीता में सर्वाधिक 78 श्लोक अंतिम अध्याय मोक्ष सन्यास योग और न्यूनतम 20 -20 श्लोक भक्ति योग ( 12 वां अध्याय ) और पुरुषोत्तम योग (15 वें अध्याय )में है. 
  • माना जाता है कि चौथाई पहर में ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का सन्देश दिया।  गीता की गिनती हिन्दू धर्म ग्रन्थो के तहत उपनिषदों में होती है। इसका दूसरा नाम गीतोपनिषद है। 
  • आधुनिक युग में कई महापुरषो  ने गीता पर लिखा है। उसमे चर्चित कृतियाँ गीता रहस्य (बाल गंगा धार तिलक ) ,अनाशक्ति योग (महात्मा गांधी),एसेज ओन गीता (श्री अरबिन्दो  घोष) और गीता प्रवचन (विनोदबा भावे )है। 
  • लोक मान्य तिलक ने गीता रहस्य पुस्तक की रचना महज पांच महीने में मांडले जेल (म्यांमार ) में पेंसिल से की थी। इसमें उन्होंने गीता के कर्म योग की वृहद व्याख्या की है। 
  • तिलक का मानना था कि मूल गीता निवृति प्रधान नहीं है। वह तो कर्म प्रधान है। महात्मा गाँधी ने गीता रहस्य पढ़ कर कहा था की गीता पर तिलक की यह टीका उनका शास्वत स्मारक है।
 महात्मा गाँधी ,गीता के बड़े प्रशंसक थे। ग्रन्थ को वह अपनी माता कहते थे। महात्मा गांधी ने इसके श्लोकों का सरल अनुवाद करके अनाशक्ति योग का नाम दिया। कर्म करते समय निस्पृह भाव में चले जाना ही अनशक्त भाव है। राग और द्वेष से असंतृप्त हो जाना ही अनाशक्ति है।  
                                       श्री गीता जयंती का महत्व.....
ब्रह्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का बहुत बड़ा महत्व है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके बारे में कहा गया है कि यह एकादशी मोह का क्षय करनेवाली है। इस कारण इसका नाम मोक्षदा रखा गया है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण मार्गशीर्ष में आने वाली इस मोक्षदा एकादशी के कारण ही कहते हैं मैं महीनों में मार्गशीर्ष का महीना हूँ। इसके पीछे मूल भाव यह है कि मोक्षदा एकादशी के दिन मानवता को नई दिशा देने वाली गीता का उपदेश हुआ था।
                                                                         अंत  में 
जीवन में जो भी करो,
     पूरे समर्पण के साथ करो...।
    प्रेम करो तो मीरा की तरह....
    प्रतीक्षा करो तो शबरी की तरह...
    भक्ति करो तो हनुमान की तरह...
    शिष्य बनो तो अर्जुन के समान...
    और
    मित्र बनो तो स्वयं कृष्ण के  समान ।
        ।।जय श्री राधेकृष्णा।।
 
अजय सिंह "जे एस के "

Friday, December 4, 2015

भगवत गीता में है जीवन की समस्या समाधान

 दोस्तों,   

क्या आपके पास भगवद-गीता है ?
अगर नहीं है तो जरुर लीजिये, ये आपके जीवन से जुडी कई समस्याओं और प्रश्नों को हल कर सकती है ।
गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक जो आपके कई प्रश्नों को सुलझा सकते हैं ?
१. हम चिंता और शोक से कैसे छुटकारा पा सकते हैं ? - भ.गी. 2.22
२. शांति प्राप्त करने के लिए स्थिर मन और अलौकिक बुद्धि कैसे प्राप्त किया जाये ? - भ.गी.2.66
३. भगवान को अर्पित भोजन ही क्यों खाया जाये ? - भ.गी. 3.31
४. अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करते हुए भक्ति कैसे की जाये ? - भ.गी. 3.43
५. जीवन की पूर्णता को कैसे पाया जाये ? - भ.गी. 4.9
६. धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को कैसे पाएं ? - भ.गी. 4.11
७. आध्यात्मिक गुरु का आश्रय कैसे लें ? - भ.गी. 4.34
८. क्या एक पापी भी दुखों के सागर को पार सकता है ? - भ.गी. 4.36
९. मनुष्य दुखों के जाल में क्यों फंसा हुआ है ? - भ.गी. 5.22
१०. शान्ति का सूत्र क्या है ? - भ.गी. 5.29
११. मन किसका मित्र है और किसका शत्रु ? - भ.गी. 6.6
१२. क्या मन को नियंत्रित करके शांति प्राप्त की जा सकती है ? - भ.गी. 6.7
१३. चंचल मन को कैसे नियंत्रित करें ? - भ.गी. 6.35
१४. पूर्ण ज्ञान क्या है ? - भ.गी. 7.2
१५. मुक्ति कैसे पाएं ? - भ.गी. 7.7
१६. माया को वश में करने का रहस्य क्या है ? - भ.गी. 7.14
१७. पाप-कर्म क्या हैं ? उन्हें कैसे हटाया जाये ? - भ.गी. 9.2
१८. हमारा परम-लक्ष्य क्या होना चाहिए ? - भ.गी. 9.18
१९. क्या कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के ग्रह पर पहुँच सकता है ? - भ.गी. 9.25
२०. क्या भगवान हमारे द्वारा अर्पित भोजन ग्रहण करते हैं ? - भ.गी. 9.26
२१. इस भौतिक संसार में आनंद पाने के माध्यम क्या हैं ? - भ.गी. 9.34
२२. इस मनुष्य जन्म की पूर्णता क्या है ? - भ.गी. 10.10
२३. हमारे हृदयों में संचित मल को कैसे साफ़ किया जाये ? - भ.गी. 10.11 
२४. परम पुरुषोत्तम भगवान कौन हैं ? - भ.गी. 10.12-13
२५. भगवान कृष्ण ने अर्जुन को विश्व-रूप क्यों दिखाया ? - भ.गी. 11.1
२६. भगवद-गीता का सार क्या है और हमारे दुखों का कारण क्या है ? - भ.गी. 11.55
२७. रजोगुण एवं तमोगुण पर विजय कैसे प्राप्त करें ? - भ.गी. 14.26
२८. क्या हम भगवान को देख, सुन और उनसे बात कर सकते हैं ? - भ.गी. 15.7
२९. जीव शरीर छोड़ते समय साथ में क्या ले जाता है ? - भ.गी. 15.8 
३०. भगवान को कैसे पाया जाये ? - भ.गी. 18.66
गीता-जयंती पर भगवद-गीता वितरण करने वाले सभी भक्त इस सन्देश को सुरक्षित रखें ।
हरे कृष्ण

Thursday, November 12, 2015

क्यों करे गौवर्धन पूजा ?

दोस्तों,
दीपावली के मुख्य पर्व के बाद अगले दिन गोवर्धन पूजा का विधान है। इसका आध्यात्मिक महत्व तो है ही जिसके कारण यह त्यौहार पूरे उत्तर भारत ही नहीं  देश के अन्य क्षेत्रों में भी मनाया जाता है। किन्तु इस प्रथा का मनोवैज्ञानिक तथा मैनेजेरिअल कारण भी है।  आइये जरा इस पर विचार करते है की गोवर्द्धन पूजा हमें क्या रिमाइंड करवाती है और इससे प्राप्त सीख का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है। आइए जरा विचार करें। 
 आध्यात्मिक कथा 

गोवर्धनलीला के संदर्भ में श्रीकृष्ण की मूलचिंता थी ईश्वर के नाम पर मानवता का शोषण। ब्रज का तत्कालीन समाज तब जल और कृषि में समृद्धि के लिए इंद्र की पूजा करता था। पूजा के नाम पर तब पाखंड रचा जाता।

श्रीकृष्ण ने ब्रजवासी जनों से कहा कि वे मुख्यतः ग्राम/वनों में निवास और विचरण करते हैं। अतः उन्हें अपने पर्यावरण का ही पूजन करना चाहिए। यह भी बताया कि वर्षा का जल इंद्र से न आकर वृक्ष, पर्वतों की कृपा से उपलब्ध होता है।

ब्रजवासियों ने पर्यावरण के देवता श्री गोवर्धन को सम्मानित का उत्सव प्रारंभ किया। इस उत्सव का एक और गहरा महत्व है। श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाओं के द्वारा भक्ति अर्थात् सेवा को ही प्रमुख साधन स्वीकार किया। अतः उनका यह संकल्प था कि आध्यात्म जगत में भी भक्त की प्रतिष्ठा सर्वोपरि होनी चाहिए।

श्री कृष्ण की परम उपासिक ब्रज गोपिकागण गोवर्धन महाराज को ही श्रीकृष्ण का सर्वश्रेष्ठ भक्त कहकर संबोधित करते हैं। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा कि ‘मैं भक्तन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’। अतः दीपावली के दूसरे दिन इंद्र के स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों के द्वारा भक्त शिरोमणि गोवर्धन महाराज का विधिवत् पूजन अर्चन कराया।

इतना ही नहीं पूजन के समय गोवर्धन की प्रत्येक पावन शिला में ब्रजवासियों को श्रीकृष्ण के मुखारबिंद के ही दर्शन हुए। इसका तात्पर्य है कि गोवर्धन पूजन भक्त और भगवान के पूर्ण एकाकार और तादाद में होने का उत्सव है। 

मनोवैज्ञानिक कारण 
श्रीकृष्ण जी ने बृज वासिओं को पर्यावरण के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के लिये उन्हें यह समझाया की हवा और पानी उन्हें इन्द्र देव कृपा से  प्राप्त नहीं होता है  बल्कि वन,नदियाँ एवं पर्वत इत्यादि इसका साधन है अतः हमें इनकी पूजा करनी चाहिये। इस बात से कुपित होकर इन्द्र ने वर्षा करनी शुरू कर दी तो श्री कृष्ण जी ने सभी बृजवासियों को बुला कर गोवर्द्धन पर्वत को ऊँगली पर उठा कर उसके नीचे शरण ली। इस कार्य में उन्होंने सभी का सहयोग सुनिश्चित किया इससे एक तो टीम भावना का प्रकटीकरण हुआ और सभी कुछ समाज का एक कोई शक्तिशाली व्यक्ति करेगा इसको भी  दिमाग से निकालने  में सफल हुए। यह हमारा काम है सब सहयोग करेंगे तो पर्यावरण सुधरेगा बचेगा इस बात को भी समझाने में श्रीकृष्ण जी सफल हुए। 
मैनेजेरियल कारण 

कोई भी प्रोजेक्ट अथवा काम टीम भावना से करने से सफल होता है यह बात श्रीकृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत को उठाने में सब का सहयोग ले कर सिद्ध की और साथ ही यह भी की सबका साथ ही सबकी रक्षा की गारण्टी हो सकता है। एक और महत्व पूर्ण बात है की जो सदियों से इन्द्र की पूजा का क्रम चल रहा था उसको लॉजिकली बन्द करवाया एवम जो अच्छे पर्यावरण के घटक थे उनको महत्व दिलाने का काम शुरू करवाया। अर्थात यदि कोई प्रथा सदियों से भी चली आ रही हो तो भी उसका अन्धानुशरण करने के बजाय उस पर विचार कर जो सत्य है उस पर पहुंचे और उसका पालन करे। दिखावटी सत्य का पालन करने से बचे । 



अजय सिंह "जी एस के "
 

 
 

Tuesday, October 13, 2015

क्या है थाट अटैक? और कैसे करे बचाव ?

दोस्तो ,
यदि  आप सोच रहे है की स्पेलिंग मिस्टेक के कारण हार्ट अटैक  को थाट  अटैक लिखा है, क्यों की हार्ट अटैक तो सुना है लेकिन थाट अटैक कभी सुना नहीं,तो आप बिलकुल गलत है। क्योंकि मैं आज आपसे थाट अटैक के बारे में ही बात करने जा रहा हूँ। इसके बारे में आपकी  जिज्ञासा शांत करने के बाद इससे बचने के उपाय के बारे में भी बात करेंगे। मेडिकल साइंस का कहना है की किसी भी आदमी की जिन्दगी में ज्यादा से ज्यादा तीन हार्ट अटैक होते है, इससे ज्यादा यह शरीर नहीं सह सकता है। किन्तु थाट अटैक के साथ ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। एक दिन में तीन थाट अटैक भी हो सकते है और शरीर कितने भी थाट अटैक सह सकता है और  एक थाट अटैक आपको पागल बना सकता है,अवसाद अर्थात डिप्रेसन दे सकता है इसके अलावा पता नहीं कितनी ही  बिमारिओं की जड़ है थाट अटैक। 

जरा कल्पना कीजिये रविवार की सुबह आप अख़बार पढ़ते हुए चाय पी रहे है और मन में शाम को परिवार के साथ कही बाहर जाकर कही घूमने का प्लान आप घर में डिसकस करने ही जा रहे थे की आपके बॉस का फ़ोन आ  गया और उसने कुछ जरुरी कामों को आज ही   खतम करने का जिम्मा आप को सौप दिया। साथ ही यह भी बता दिया की  उसे आज अपने परिवार के साथ आउटिंग पर जाना था जिसका  वादा उसने कई दिन पहले किया था,इसलिए वह अभी ऑफिस जा कर काम पूरा कर दे  साथ ही यह भी बता दिया की यह जरुरी काम इसलिए दे रहा है की वही उसका सबसे विश्वास पात्र है अतः उसे अपनी जिम्मेदारी निभानी  चाहिए।

अब  जरा दूसरी स्तिथि देखिये। आप ऑफिस में आराम से अपना काम कर रहे है की अचानक एक फ़ोन आया की   बेटा स्कूल से अभी तक नहीं आया है जबकि उसे निर्धारित समय के हिसाब से २ घंटे पहले आ जाना  चाहिए था। फोन के आते ही मन में तरह तरह की शंकायें  किसी अनहोनी के डर से उठ रही है। इस बीच कोई अनजाना फोन आपके पास आता है और आप किसी अनहोनी की आशंका से बड़े चिंतित मन से फोन सुनते है, फोन पर आपके नए जॉब में चुनाव हो जाने की खुशखबरी है किन्तु आपके ऊपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और आप शिष्टाचारवश  उसको धन्यवाद देकर फोन बंद करते है और फिर बच्चे की होनी अनहोनी की चिंता में डूब जाते है। तभी  एक घंटे के बाद पता चलता है की आपका बच्चा स्कूल की फुटबॉल टीम में सेलेक्ट हुआ है इसलिए उसे स्कूल में प्रैक्टिस के लिए रोका गया था,स्कूल ने इसकी सूचना भी दी थी लेकिन भूल वश वह सूचना  कही खो गयी और आपको समय से सूचना नहीं मिल सकी। इसलिए यह सारी  चिंता शुरू हुई थी और फिर समय के साथ ठीक हो गयी। 

ऐसी स्थितियाँ जीवन में अक्सर आती रहती है ,यह अपना प्रभाव १-२ घंटे  से ५-७ घंटे तक  या उससे भी ज्यादा समय तक डाले  रहती है।  कभी -कभी तो हफ्तों या महीनो तक इस तरह के थाट अटैक का प्रभाव देखा और महसूस किया जा सकता है। यह  थाट अटैक  हमेशा बाहर से आई किसी समाचार से ही होगा ऐसा जरुरी नहीं।  पुरानी घटना या दुर्घटना की यादो के आधार पर  कोई बात जो अंदर दबे हुए दुःख को जिन्दा करने का कारण बन जाती है थाट  अटैक दे सकती है। इसका प्रभाव हार्ट अटैक के जैसा प्रबल हो सकता है और यह किसी की मृत्यु का कारण तक बन सकता है। 

इसके दुष्प्रभाव से बचने के क्या उपाय है इस पर यदि विचार करे तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझ है की हम विचार नहीं है इसलिये विचार को देख सकते है महसूस कर सकते है।  विचार को देख पाने की कला आने से आप अपने आप को विचार से अलग कर पाएँगे, पहला कदम सफलता पूर्वक समझने और व्यहार में लाने  के बाद आपको एक प्रश्न अपने आप से पूछना है। प्रश्न है की इस विचार (जो आपको अभी अटैक की तरह आया है और परेशान कर रहा है ) के आने के पहले मै  कैसा था केवल इस स्थिति को याद करने से आपको  समझ  आयेंगा कि आप और  और विचार अलग -अलग है तथा उसका प्रभाव आप पर उतना ही होगा जितना आप अनुमति देंगे।

इसके  बाद आपको एक और प्रश्न पूछना है की इस विचार या इस घटना के बारे में आप १-२ वर्षो के बाद  क्या कहने वाले है क्या वही आप अभी कह सकते है। यदि आप स्मृती पर जोर डाल  कर सोचेंगे तो आप को पता चलेगा की जीवन में घटी ज्यादातर  घटनाये जो जीवन में घटित हुई है उनके बारे में आपकी राय यह है की जो हुआ था अच्छा हुआ  था उससे कुछ नई राह निकली है।जीवन भी बेहतर हुआ है तात्पर्य यह है ज्यादातर जीवन में घटने वाली घटनाएँ सुखद परिणाम ले कर आई है परन्तु आने के समय अत्यधिक दुःख और अवसाद देने वाली रही है। इसका प्रमुख कारण यह है  की भविष्य के बारे में तो पता बाद में ही चलता है।

 ऐसा नहीं है की थाट अटैक हमेशा  नेगेटिव प्रभाव ही पैदा करेगा। कई बार यह ऐसे नए घटना क्रम का भी सूत्र धार बन सकता है जो आपको नई दिशा दे सकता ,प्रेरक कामों को करने की रह दिखा सकता है। असल में थाट अटैक नेगटिव और पॉजिटिव दोनों दशा में जीवन को नई दिशा देने का ही काम करता है शर्त केवल इतनी है की आप इसे पहचान ले और सीमा से ज्यादा प्रभाव अपने ऊपर न पड़ने दे।

इस प्रयोग को लगा तार करते रहने से आप दुःख के विचारों को अपने मन पर गहरा असर छोड़ने से रोक पाएंगे और थाट अटैक से अपने को बचा पाएंगे जो हार्ट अटैक की तरह ही नुकसानदायक है किन्तु अज्ञानता के कारण विचार करने का अवसर नहीं हुआ। अब संज्ञान में आने के बाद इसके प्रभाव को कम करना आसान है।

अजय सिंह "जे एस के "

Wednesday, September 30, 2015

जीवन नहीं मरा करता है

जीवन नहीं मरा करता है
छिप छिप अश्रु बहाने बालो,
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुया आंख का पानी
और टूटना है उसको ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने बालो, डूबे बिना नहाने बालो
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।
माला विखर गई तो क्या है,
खुद ही हल हो गयी समस्या
आंसू गर नीलाम हुये तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालो, फटी कमीज सिलाने वाले
कुछ दीपक के वुझ जाने से आंगन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहॉ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चॉदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वाले, चाल बदलकर जाने वालो
चंद खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
लाखों बार गगरिया फूटीं
शिकन न आयी पर पन्घट पर
लाखों वार किश्तियॉ डूबीं
चहल पहल वो ही है घट पर
तम की उमर वढाने वालो लौ की उमर घटाने वालो
लाख करे पतझड़ कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन
लूटी न लेकिन गन्ध फूल की
तूफानों तक ने छेड़ा पर
खिड़की बन्द न हुई धूल की
नफरत गले लगाने वालों सब पर धूल उड़ाने वालो
कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है।

—श्री गोपाल दास नीरज  
(Shri Gopal Das Neeraj)

भगवतगीता के बारे में पूछे जाने वाले प्रश्न और उनके उत्तर





A Few facts of Bhagavad Gita  to help start the journey of awareness  !!!:

🚩What is the Bhagavad-Gita?

The Bhagavad-Gita is the eternal message of spiritual wisdom from ancient India. The word Gita means song and the word Bhagavad means God, often the Bhagavad-Gita is called the Song of God.

🚩Why is the Bhagavad-Gita called a song if it is spoken?

Because its rhyming meter is so beautifully harmonic and melodious when spoken perfectly.

🚩What is the name of this rhyming meter?

It is called Anustup and contains 32 syllables in each verse.

🚩Who originally spoke the Bhagavad-Gita?

Lord Krishna originally spoke the Bhagavad-Gita.

🚩Where was the Bhagavad-Gita originally spoken?

In India at the holy land of Kuruksetra.

🚩Why is the land of Kuruksetra so holy?

Because of benedictions given to King Kuru by Brahma that anyone dying in Kuruksetra while performing penance or while fighting in battle will be promoted directly to the heavenly planets.

🚩Where is the Bhagavad-Gita to be found?

In the monumental, historical epic Mahabharata written by Vedavyasa.

🚩What is the historical epic Mahabharta?

The Mahabharata is the most voluminous book the world has ever known. The Mahabharata covers the history of the earth from the time of creation in relation to India. Composed in 100,000 rhyming quatrain couplets the Mahabharata is seven times the size of the Illiad written by Homer.

🚩Who is Vedavyasa?

Vedavyasa is the divine saint and incarnation who authored the Srimad Bhagavatam, Vedanta Sutra, the 108 Puranas, composed and divided the Vedas into the Rik, Yajur, Artharva and Sama Vedas, and wrote the the great historical treatise Mahabharata known as the fifth Veda. His full name is Krishna Dvaipayana Vyasa and he was the son of sage Parasara and mother Satyavati.

🚩Why is the Mahabharata known as the fifth Veda?

Because it is revealed in the Vedic scripture Bhavisya Purana III.VII.II that the fifth Veda written by Vedavyasa is called the Mahabharata.

🚩What are the special characteristics of the Mahabharata?

The Mahabharata has no restrictions of qualification as to who can hear it or read it. Everyone regardless of caste or social position may hear or read it at any time. Vedavyasa wrote it with the view not to exclude all the people in the worlds who are outside of the Vedic culture. He himself has explained that the Mahabharata contains the essence of all the purports of the Vedas. This we see is true and it is also written in a very intriguing and dramatically narrative form.

🚩What about the Aryan invasion theory being the source of the Bhagavad-Gita?

The Aryan invasion theory has been proven in the 1990s not to have a shred of truth in it. Indologists the world over have realized that the Aryans are the Hindus themselves.

🚩What is the size of the Bhagavad-Gita?

The Bhagavad-Gita is composed of 700 Sanskrit verses contained within 18 chapters, divided into three sections each consisting of six chapters. They are Karma Yoga the yoga of actions. Bhakti Yoga the yoga of devotion and Jnana Yoga the yoga of knowledge.

🚩When was the Bhagavad-Gita spoken?

The Mahabharata confirms that Lord Krishna spoke the Bhagavad-Gita to Arjuna at the Battle of Kuruksetra in 3137 B.C.. According to specific astrological references in the Vedic scriptures, the year 3102 B.C. is the beginning of kali yuga which began 35 years after the battle 5000 years ago. If calculated accurately it goes to 5151years from today.

🚩What is the opinion of western scholars from ancient times?

According to the writings of both the Greek and the Romans such as Pliny, Arrian and Solinus as well as Megastathanes who wrote a history of ancient India and who was present as an eyewitness when Alexander the Great arrived in India in 326 B.C. was that before him were 154 kings who ruled back to 6777 B.C. This also follows the Vedic understanding.

🚩When was the Bhagavad-Gita first translated into English?

The first English edition of the Bhagavad-Gita was in 1785 by Charles Wilkins in London, England. This was only 174 years after the translation of the King James Bible in 1611.

🚩Was the Bhagavad-Gita also translated into other languages?

Yes. The Bhagavad-Gita was translated into Latin in 1823 by Schlegel. It was translated into German in 1826 by Von Humbolt. It was translated into French in 1846 by Lassens and it was translated into Greek in 1848 by Galanos to mention but a few.

🚩What was the original language of the Bhagavad-Gita?

The original language of the Bhagavad-Gita was classical Sanskrit from India.

🚩Why is Srimad often written before the Bhagavad-Gita?
The word Srimad is a title of great respect. This is given because the Bhagavad-Gita reveals the essence of all spiritual knowledge.

🚩Is history aware of the greatness of Srimad Bhagavad-Gita?

Historically many very extraordinary people such as Albert Einsten, Mahatma Gandhi, Dr. Albert Schweitzer, Herman Hesse, Ralph Waldo Emerson, Aldous Huxley, Rudolph Steiner and Nikola Tesla to name but a few have read Srimad Bhagavad-Gita and were inspired by its timeless wisdom.

🚩What can be learned by the study of Srimad Bhagavad-Gita?

Accurate, fundamental knowledge about God, the ultimate truth, creation, birth and death, the results of actions, the eternal soul, liberation and the purpose as well as the goal of human existence.

Sunday, September 20, 2015

आप कैसे है ?

दोस्तों,
जब भी हमारी मुलाकात किसी से होती है तो पहला स्वाभाविक वाक्य बातचीत शुरू करने के लिये क्या होता है, कभी सोचा है आपने? साधारणतया यह एक सवाल होता है  "आप कैसे है " और आम तौर पर इसका जवाब भी वही मिलता है "सब ठीक है" या "ईश्वर की कृपा है ". इंग्लिश में "गॉड इज काइंड" या "आल वेल" और मुस्लिम तहजीब में भी "अल्लाह का शुक्र है" अथवा "ऊपर वाले की रहमत है" का जवाब मिलता है। यानि यह सार्वभौमिक है और इसका किसी विशेष जाती या सम्प्रदाय से कोई विरोध या समर्थन  नहीं है। मनुष्य मात्र में  एक व्यक्ति की दूसरे से मुलाकात होने पर ईश्वर का धन्यवाद प्रगट करने से ज्यादा अच्छा कोई  अवसर नहीं हो सकता। 
यह धन्यवाद प्रकट करना क्या केवल एक परम्परा है जिसका निर्वाह हम बिना सोचे समझे सदियों से करते चले आ रहे है अथवा  यह हमारी समझ  है जिसे हम ईश्वर से प्राप्त उसकी हर कृपा के लिए उपयुक्त अवसर मिलते है कर देना  चाहते है, इस पर यदि विचार करे तो हमें यह ध्यान आयेगा की मनुष्य का जन्म एक सौभाग्य है जो बहुत से सद्कर्मो के बाद प्राप्त होता है।  मनुष्य योनि में हुआ यह जन्म भव सागर अर्थात पृथ्वी पर आवागमन से मुक्ति का साधन भी बन सकता है जिसका एक मात्र उपाय भक्ति मार्ग पर चलना अर्थात प्रार्थना करना अथवा इससे भी श्रेष्ठ मार्ग समझ के साथ प्रार्थना करना यानि ज्ञान मार्ग पर चलना है। 

श्री मद भगवत गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण  अर्जुन को यही  बात समझाते हुये कहते है "अनन्याश्चिन्तयन्तो  माँ ये  जनाः पर्युपासते, तेषाम् नित्याभियुक्तानां , योगक्षेमं  वहाम्यहम् " अर्थात जो पूर्ण निष्ठा के साथ हर समय मेरा ध्यान करते है ऐसे लोगो को में वह सबकुछ देता हूँ जो उनके पास नहीं है, और जो उन्हें प्राप्त है उसकी रक्षा करता हूँ। 

यदि मनुष्य जीवन का प्रत्येक क्षण ईश्वर की कृपाओं का गान करने का अवसर बन जाये, हर पल हर क्षण उसकी कृपा के दर्शन होने लगे और उसकी उपस्थिति का अनुभव कर सके तो हमारी सारी ऊर्जा आभार बनकर प्रकट होगी और हमारा जीवन धन्यवाद प्रदान करने का उत्सव बन जायेगा। तब जीवन और प्रार्थना दो चीजे न हो कर जीवन खुद प्रार्थना बन जायेगा। यही तो है आत्मा का परमात्मा के साथ एकाकार ,यही है परमानन्द की स्थित। यही है हमारे जीवन का परम लक्ष्य। 

अजय सिंह "जे एस के"



 

Thursday, September 17, 2015

सुख नहीं आनन्द

दोस्तों ,

जीवन में हम क्या पाना चाहते है सुख या आनंद ?दोनों में फर्क बहुत महीन है ,कई बार तो दोनों शब्द पर्यायवाची की तरह भी इस्तेमाल हो जाते है परन्तु फर्क समझ में आने पर पता चलेगा की दोनों बिलकुल अलग अलग अनुभव है। सुख का अनुभव भौतिक है और आनंद का अनुभव तो पारलौकिक अर्थात केवल अनुभव के स्तर पर हो सकता है। जैसे हिरन की कस्तूरी उसे दिखाई नहीं देती और उसे ढूढ़ने के लिए हिरन जंगल में ढूंढता फिरता है ऐसे ही है आनंद। जो जीवन के साथ तो है परन्तु दिखाई न देने के कारण केवल अनुभव किया जा सकता है।

जिंदगी में सुख कभी अकेला नहीं आता सुख के साथ दुःख भी आता है और यह क्रम से आते जाते है। वैसे ही जैसे  दिन के बाद रात क्योकि भौतिक चीजे द्वैत  होती है और पारलौकिक अनुभव अद्वैत है। हमारे व्यक्तित्व के साथ जो पांच तत्व है उनमे पहला शरीर पूरा भौतिक तत्व

है दूसरा इन्द्रिया भौतिक अनुभव करवाने में सहायक है और खुद आंशिक रूप से भौतिक है तीसरा तत्व मन इन्द्रियों और बुद्धि के बीच में सहयोग करता है  और बुद्धि आत्मा से जोड़ती है। इस प्रकार यह स्थूल शरीर अस्थूल आत्मा तक पहुँचती है।


मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दुख की है; एक अनुभूति सुख की है; एक अनुभूति आनंद की है। सुख की और दुख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। बाहर हम कुछ चाहते हैं, मिल जाए, सुख होता है। बाहर हम कुछ चाहते हैं, मिले, दुख होता है। बाहर प्रिय को निकट रखना चाहते हैं, सुख होता है ; प्रिय से विछोह हो, दुख होता है। अप्रिय से मिलना हो जाए, दुख होता है; प्रिय से बिछुड़ना हो जाए, तो दुख होता है। बाहर जो जगत है उसके संबंध में हमें दो तरह की अनुभूतियां होती हैं--या तो दुख की, या सुख की।

आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती।  आनंद और सुख में अंतर है। सुख दुख का अभाव है; जहां दुख नहीं है वहां सुख है। दुख सुख का अभाव है; जहां सुख नहीं है वहां दुख है। आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है; जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, वैसी चित्त की परिपूर्ण शांत स्थिति आनंद की स्थिति है। आनंद का अर्थ है: जहां बाहर से कोई भी क्रिया हमें प्रभावित नहीं कर रही -- दुख की  और सुख की । सुख भी एक संवेदना है, दुख भी एक संवेदना है। सुख भी एक पीड़ा है, दुख भी एक पीड़ा है। सुख भी हमें बेचैन करता है, दुख भी हमें बेचैन करता है। दोनों अशांतियां हैं। इसे थोड़ा अनुभव करें, सुख भी अशांति है, दुख भी अशांति है। दुख की अशांति अप्रीतिकर है, सुख की अशांति प्रीतिकर है। लेकिन दोनों उद्विग्नताएं हैं, दोनों चित्त की उद्विग्न, उत्तेजित अवस्थाएं हैं। सुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं। अगर बहुत सुख हो जाए तो मृत्यु तक हो सकती है। अगर आकस्मिक सुख हो जाए तो मृत्यु हो सकती है, इतनी उत्तेजना सुख दे सकता है . 

 
दुख भी उत्तेजना है, सुख भी उत्तेजना है। एक बार किसी गरीब की बड़ी लाटरी निकल गयी और उससे किसी ने पूछा की अगर तुम्हारी लाटरी निकल आये   तो क्या करोगे तो उस गरीब आदमी ने अपनी योजना बड़े आराम से बता दी क्योकि तबतक मामला केवल बातों तक था  उत्तेजना नहीं कोई लगाव नहीं किन्तु जैसे ही उसे पता चला की लाटरी वास्तव में निकली है उत्तेजना इतनी बाद गयी की उसे हार्ट अटैक आ गया।

अनुत्तेजना आनंद है। जहां कोई उत्तेजना नहीं, जहां चेतन पर बाहर का कोई कंपन, प्रभाव काम नहीं कर रहा, जहां चेतना बाहर से बिलकुल पृथक और अपने में विराजमान है। उत्तेजना का अर्थ है: अपने से बाहर संबंधित होना, अपने से बाहर विराजमान होना। उत्तेजना का अर्थ है: अपने से बाहर विराजमान होना। जैसे कि झील पर लहरें उठती हैं, लहरें झील में नहीं उठती हैं, लहरें हवाओं में उठती हैं और झील में कंपित होती हैं। हवाओं के प्रभाव में, हवाओं के फर्क में झील पर लहरें उठती हैं। लहरों के उठने का अर्थ है: झील अपने से बाहर किसी चीज से प्रभावित हो रही है। अगर झील अपने से बाहर की किसी चीज से प्रभावित हो तो क्या हो? तो झील परिपूर्ण शांत होगी, उसमें कोई लहरें नहीं होंगी। हमारा चित्त बाहर से प्रभावित होता है तो लहरें उठती हैं सुख की, और दुख की और जब हमारा चित्त बाहर से अप्रभावित होता है...नहीं होता। तब जो स्थिति है उस स्थिति का नाम आनंद है। सुख और दुख अनुभूतियां हैं बाहर से आई हुईं, आनंद वह अनुभूति है जब बाहर से कुछ भी नहीं आता। आनंद बाहर का अनुभव होकर अपना अनुभव है। 


इसलिए सुख और दुख छीने जा सकते हैं, क्योंकि वे बाहर से प्रभावित हैं, अगर बाहर से हटा लिए जाएंगे तो सुख और दुख बदल जाएंगे। जो आदमी सुखी था, किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, दुखी हो जाएगा। जो आदमी दुखी था, किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, सुखी हो जाएगा। आनंद निःकारण है, इसलिए आनंद को छीना नहीं जा सकता। आपका सुख छीना जा सकता है, आपके दुख छीने जा सकते हैं, आपका आनंद नहीं छीना जा सकता। जो भी बाहर पर निर्भर है वह छीना जा सकता है। इसलिए सुख भी क्षण स्थायी है, दुख भी क्षण स्थायी है, आनंद नित्य है। सुख भी परतंत्रता है, दुख भी परतंत्रता है, क्योंकि दूसरे का उसमें हाथ है। आनंद स्वतंत्रता है। दुख भी बंधन है, सुख भी बंधन है, आनंद मुक्ति है।

तो आनंद मनुष्य का अपने चैतन्य में स्थित होने का नाम है। सुख मिलता है, दुख मिलता है, आनंद मिलता नहीं है। आनंद मौजूद है, केवल जानना होता है। सुख को पाना होता है, दुख को पाना होता है, आनंद को पाना नहीं होता, केवल आविष्कार करना होता है, डिस्कवरी करनी होती है। वह मौजूद है। क्योंकि जो चीज पाई जाएगी वह खो सकती है। इसे स्मरण रखें, जो चीज पाई जा सकती है वह खो भी सकती है। आनंद खो नहीं सकता, इसलिए वह पाया ही नहीं जा सकता। वह मौजूद है, केवल जाना जाता है।
आनंद के संबंध में दो स्थितियां हैं: आनंद के प्रति अज्ञान और आनंद के प्रति ज्ञान। आनंद की और निरानंद की स्थितियां नहीं हैं, यानी मनुष्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि एक आनंद की स्थिति है और एक निरानंद की। वह दो स्थितियों में होता है: आनंद के प्रति ज्ञान की स्थिति, आनंद के प्रति अज्ञान की स्थिति। आनंद तो मौजूद है। महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को जो आनंद मिला वह आपमें भी मौजूद है। आपमें और उनमें आनंद की दृष्टि से भेद नहीं है, भेद ज्ञान की दृष्टि से है। आनंद की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। महावीर को जो आनंद मिला वह आपमें भी उतना ही मौजूद है, जरा कण भर भी कम नहीं है। फिर भेद कहां है? वे आनंद को देख रहे हैं, आप आनंद को नहीं देख रहे। वे आनंद को जान रहे, आप आनंद को नहीं जान रहे हैं। भेद ज्ञान का है, भेद अवस्था का, स्थिति का, स्टेट ऑफ बीइंग नहीं है, स्टेट ऑफ नोइंग का है। ज्ञान भेद है, स्थिति भेद नहीं है। फिर हमें क्यों उसका बोध नहीं हो रहा है जिसका महावीर को हो रहा है? जो आदमी सुख-दुख का बोध कर रहा है वह आनंद का बोध नहीं कर सकेगा। क्योंकि सुख और दुख बाहर हैं, जो उनमें उलझा है वह बाहर उलझा है, उसके भीतर जाने की उसे फुर्सत नहीं है। सुख-दुख का उलझाव मनुष्य को अपने से बाहर किए है। तो जिसको भीतर जाना हो, उसे सुख-दुख के उलझाव से पीछे सरकना होगा। स्मरणीय है सुख से कोई भी हटना नहीं चाहता है,दुख से तो कोई भी हटना चाहता है, समस्त प्राणी-जगत हटना चाहता है, लेकिन जो सुख से हटने में लग जाएगा वह आनंद पर पहुंच जाएगा। दुख से तो कोई भी हटना चाहता है। वह साधना नहीं है, वह सामान्य चित्त का भाव है। जो सुख से हटना चाहेगा, वह आनंद में पहुंच जाएगा। दुख से जो हटना चाहता है उसकी आकांक्षा सुख की है, जो सुख से हट रहा है उसकी आकांक्षा आनंद की है।


जब सुख आपको पीड़ित करने लगे, खींचने लगे, तब असहयोग करें इस वृत्ति से। और जाने कि ठीक है, सुख की आकांक्षा पैदा हो रही, मैं केवल जानूंगा, इस आकांक्षा से आंदोलित नहीं होऊंगा। सुख की आकांक्षा को जानना और सुख की आकांक्षा से आंदोलित हो जाना, दो अलग-अलग बातें हैं। जाने कि मेरे भीतर सुख की कामना पैदा होती है, लेकिन मैं इससे आंदोलित नहीं होऊंगा। मैं कोशिश करूंगा, कांशस एफर्ट करूंगा, सचेतन, सजग प्रयास करूंगा कि मैं इससे प्रभावित होऊं, अप्रभावित होने का प्रयत्न करूंगा। इस माध्यम से अगर धीरे-धीरे सुख की आकांक्षा से कोई अप्रभावित होने का विचार करे, सुख से तो मुक्त हो ही जाएगा। जो सुख से मुक्त हुआ, वह दुख से मुक्त हो गया। सुख की आकांक्षा ही दुख देने का कारण है। जो दुख से मुक्त होना चाहता है वह दुख से कभी मुक्त नहीं होगा, क्योंकि वह सुख की आकांक्षा करता है। जो सुख की आकांक्षा करता है उसके पीछे दुख मौजूद हो जाता है। क्योंकि जिनसे सुख मिलता है वही कारण दुख देने के बन जाते हैं। जो सुख से पीछे हटेगा, सुख से असहयोग करेगा, सुख के प्रति अनासक्ति के भाव की उदभावना करेगा, वह सुख से तो मुक्त होगा, तत्क्षण दुख से भी मुक्त हो जाएगा।

दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। दुख से बचने की चेष्टा करने वाले लोग, वे कभी दुख से मुक्त नहीं होते हैं। सुख से बचने की चेष्टा करने वाले लोग, वे दुख से भी मुक्त हो जाते हैं, सुख से भी मुक्त हो जाते हैं। तब जो शेष रह जाता है, वह जो दुख और सुख दोनों के छूटने से शेष रह जाता है, वह आनंद है। वह कौन शेष रह जाता होगा? जब दुख भी नहीं है, सुख भी नहीं है, तो फिर कौन शेष रहेगा? जब दुख नहीं, सुख नहीं, तो वह शेष रह जाएगा जो दुख को जानता था और सुख को जानता था। जब दुख भी नहीं है, सुख भी नहीं है, फिर कौन शेष रह जाएगा पीछे? वह शेष रह जाएगा, जो दुख को जानता था, सुख को जानता था। वह ज्ञात, वह ज्ञान, वह ज्ञाता। वह ज्ञान की शक्ति मात्र शेष रह जाएगी। वही ज्ञान की शक्ति आनंद है। भेद आनंद का नहीं, ज्ञान का है,समझ का है ।  

 

                                                                     अन्त में 

हे कान्हा..........ज़िंदगी लहर थी
आप साहिल हुए,
न जाने कैसे हम आपके काबिल हुए,
न भूलेंगे हम उस हसीन पल को,
जब आप हमारी छोटी सी ज़िंदगी में शामिल हुए !!
जय श्री कृष्णा

 

अजय सिंह "जे एस के "