Saturday, September 15, 2018

*प्रकृति, विकृति और संस्कृति*



*एक प्रसिद्ध कहावत है कि अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खा लेना विकृति, तथा अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। इस संबंध में एक पुराना प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे।*

युधिष्ठिर ने एक बार राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ के बाद दूर-दूर से आये विद्वानों को भरपूर दान देकर सम्मान सहित विदा किया गया। सब लोग यज्ञ की सफलता से बहुत प्रसन्न थे। 

*एक दिन सभी परिवारजन बैठे थे कि एक नेवला वहाँ आया। उसे देखकर सब आश्चनर्यचकित रह गये। उसके शरीर का आधा हिस्सा सुनहरा था, जबकि शेष हिस्सा सामान्य नेवले जैसा था। वह नेवला अचानक मनुष्यों जैसी भाषा में बोलने लगा।*

नेवला बोला - *महाराज युधिष्ठिर, यह ठीक है कि आपने यज्ञ में बहुत दान दिया है। यज्ञ भी समुचित विधि-विधान से हुआ है। आपको बहुत पुण्य और यश भी मिला है। फिर भी आपके यज्ञ में वह बात नहीं है, जो उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ में थी।
सब लोग हैरान हो गये।* 

युधिष्ठिर बोले - *तुम किस यज्ञ की बात कर रहे हो। कृपया हमें उसके बारे में कुछ बात बताओ। तुम्हारे शरीर का आघा भाग सुनहरा और शेष सामान्य नेवले जैसा क्यों है ?* 

नेवला बोला - *महाराज, मैं जहाँ से आ रहा हूँ, वहाँ भयानक अकाल पड़ा है। वहाँ एक निर्धन अध्यापक अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। वे घर आये अतिथि का भगवान समझकर सत्कार करते थे। वर्षों से वे इस परम्परा को निभा रहे थे।*

लेकिन अकाल के कारण उन्हें प्राय: कई दिन तक भूखा रहना पड़ता था। एक दिन वह अध्यापक कहीं से थोड़ा आटा लाया। उसकी पुत्रवधू ने उससे पाँच रोटी बनायीं। एक रोटी भगवान को अर्पण कर उन्होंने एक-एक रोटी आपस में बाँट ली। वे खाना प्रारम्भ कर ही रहे थे कि अचानक द्वार पर एक भिक्षुक दिखायी दिया। 

*उसके शरीर को देखकर ही लग रहा था कि कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है।*

अध्यापक ने उसका सत्कार किया और अपनी रोटी उसे दे दी। पर उसकी भूख शांत नहीं हुई। अब अध्यापक की पत्नी ने अपने हिस्से की रोटी भी उसकी थाली में डाल दी। इसी प्रकार क्रमश: पुत्र और फिर पुत्रवघू ने भी अपनी रोटी उन अतिथि महोदय को दे दी। चारों रोटी खाकर वह तृप्त हो गया और आशीर्वाद देकर चला गया।

नेवला बोला - *महाराज, उस भिक्षुक के जाने के बाद मैं वहाँ आया, तो उस धरती पर गिरे कुछ अन्नकण मेरे शरीर से छू गये। बस उसी समय मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। तब से मैं देश-विदेश में भटक रहा हूँ। जहाँ भी कोई बड़ा धार्मिक कार्यक्रम होता है, वहाँ जाता हूँ।* 

आपके यज्ञ की भी मैंने बहुत प्रशंसा सुनी थी; पर यहाँ भी मेरा शेष शरीर सुनहरा नहीं हुआ। इसका अर्थ साफ है कि आपके इस यज्ञ का महत्त्व उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ से कम है।

*यह कहानी हमें प्रकृति, विकृति और संस्कृति का अंतर स्पष्ट करते हुए बताती है कि भारतीय संस्कृति ही अपनी रोटी दूसरे को खिला देने की प्रेरणा देती है

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