Monday, June 1, 2020

*एक सारगर्भित कविता*

*एक सारगर्भित कविता*
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जो कह दिया वह *शब्द* थे ;
      जो नहीं कह सके
             वो *अनुभूति* थी ।।
और,
     जो कहना है मगर ;
           कह नहीं सकते,
                  वो *मर्यादा* है ।।
*जिंदगी* का क्या है ?
            आ कर *नहाया*,
और,
*नहाकर* चल दिए ।।
*पत्तों* सी होती है
        कई *रिश्तों की उम्र*,
आज *हरे*-------!
कल *सूखे* -------!
क्यों न हम,
*जड़ों* से;
रिश्ते निभाना सीखें ।।
रिश्तों को निभाने के लिए,
कभी *अंधा*,
कभी *गूँगा*,
    और कभी *बहरा* ;
            होना ही पड़ता है ।।
*बरसात* गिरी
  और *कानों* में इतना कह गई कि---------!
*गर्मी* हमेशा
        किसी की भी नहीं रहती ।।
*नसीहत*,
             *नर्म लहजे* में ही
               अच्छी लगती है ।
क्योंकि,
*दस्तक का मकसद*,
    *दरवाजा* खुलवाना होता है;
                         तोड़ना नहीं ।।
*घमंड*-----------!
किसी का भी नहीं रहा,
*टूटने से पहले* ,
*गुल्लक* को भी लगता है कि ;
*सारे पैसे उसी के हैं* ।
जिस बात पर ,
कोई *मुस्कुरा* दे;
बात --------!
बस वही *खूबसूरत* है ।।
थमती नहीं,
     *जिंदगी* कभी,
          किसी के बिना ।।
मगर,
         यह *गुजरती* भी नहीं,
                 अपनों के बिना।


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