Sunday, December 24, 2017

नारी का स्वरुप

द्रोपदी का सत्यभामा को नारी-धर्म का उपदेश



देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृत: ।
द्रव्यवानभिरुपोवा न मेऽन्य: पुरुषोमत: ।।
भावार्थ― देवता, मनुष्य, गन्धर्व, युवक अच्छी सज धज वाला धनवान अथवा परम सुन्दर कैसा ही पुरुष क्यों न हो, मेरा मन भर्ता (पति) को छोड़कर कहीं नहीं जाता।

दुर्व्याह्रताच्छंकमाना दु:स्थिताद् दुखेक्षिताद् ।
दुरासिताद् दुर्व्रजितादिङ्गिताघ्यासितादपि ।।
भावार्थ―मेरे मुख से कभी कोई बुरी बात न निकल जाय।इस बात से सदा सावधान रहती हूं। असभ्य की भांति कहीं खड़ी नहीं होती। निर्लज्ज के समान इधर उधर कभी दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर अथवा असभ्यतापूर्ण से कभी नहीं बैठती। दुराचरण से बचती तथा चलने-फिरने में असभ्यता न हो जाये इसके लिए सदा सावधान रहती हूं। इशारे, भावभंगिमा तथा अत्यन्त आग्रह (किसी बात पर अड़ जाना) आदि से भी कतराती हूं।

नाभुक्तवति नास्ताते नासंविष्टे च भर्तरि ।
न सदिशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि ।।
भावार्थ― पति और अपने सेवकों को भोजन कराये बिना में कभी भोजन नहीं करती, उनको स्नान कराये बिना मैं कभी स्नान नहीं करती और जब तक वे (पति) सो नहीं जाते  तब तक मैं कभी नहीं सोती हूं।

अतिरस्कृतं सम्भाषा दु:स्त्रियो नानु सेयती ।
अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा ।।
भावार्थ―अपनी बोल-चाल या बात-चीत में कभी किसी का मैं तिरस्कार नहीं करती हूं। दुष्ट स्त्रियों के सम्पर्क से सदा बचती हूं। नित्य अनुकूल बर्ताव करती हूं और आलस्य को कभी अपने पास फटकने नहीं देती।

अनर्म चापि हसितं द्वारि स्थानमभीक्ष्णश: ।
अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये ।।
भावार्थ― पति के साथ हास-परिहास के सिवा मैं कभी अनवसर हंसी नहीं करती। बार बार दरवाजे पर जाकर कभी खड़ी नहीं होती। घर के पास लगे बगीचों में अकेले देर तक घूमते रहने से भी बचती हूं।

अन्त्यालापमसन्तोषं परव्यापारसंकथाम् ।
अतिहासातिरोषो च क्रोधस्थानं वर्जये ।।
भावार्थ― नीच पुरुषों के साथ कभी बात नहीं करती, अपने मन में कभी असन्तोष को नहीं आने देती, पराये कार्यों की चर्चा से सदा बचती हूं। न कभी अधिक हँसती हूं। न रोष करती हूं। क्रोध से बचती हूं।

यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित् ।
सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी ।।
भावार्थ― जब कभी मेरे पति परिवार के किसी भी कार्य से प्रवास पर प्रदेश चले जाते हैं, उन दिनों मैं न फूलों का श्रृङ्गार धारण करती हूं और न अङ्गराग लगाती तथा निरन्तर व्रत व संयम का आचरण करती हूं।

पत्याश्रयोहि मे धर्मों मत: स्त्रीणां सनातन: ।
स देव: सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत् ।।
भावार्थ― मैं इस बात को मानती हूं कि पति के आश्रय में रहना ही स्त्रियों का सदा से चला आया धर्म है। क्योंकि पति ही उसका देवता है। पति ही उसकी गति है। पति के अतिरिक्त कोई दूसरा उसका सहारा नहीं है। ऐसे पतिदेव का कौन स्त्री अप्रिय करेगी।

अहं पतिन् नातिशये नित्यश्ने नाति भूषये ।
नापिश्वश्रूं परिवदे सर्वदा परियन्त्रिता ।।
भावार्थ―पतिदेव के सोने से पहले कभी शयन नहीं करती, उसके भोजन करने से पहले कभी भोजन नहीं करती, उसकी इच्छा के विपरित कभी अपने आपको अलंकृत नहीं करती, अपनी सास की कभी निन्दा नहीं करती, अपने को सदा नियन्त्रण में रखती हूं।

प्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं सांवशामि च ।
नित्यकाल महं सत्ये ! एतत् संवननं मम ।।
भावार्थ― हे सत्यभामा ! प्रतिदिन मैं सबसे पहले जागती हूं और बाद में सोती हूं। यह पति-भक्ति और सेवा ही मेरा वशीकरण मन्त्र है।

एतज्जानाम्यहं कर्त्तव्यं भर्तु सवननमहत् ।
असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्या न कामये ।।
भावार्थ― पति को वश में करने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय यही मैं जानती हूं। दुराचारिणी स्त्रियाँ जिन उपायों का आचरण करती हैं, न तो मैं उन्हें करती हूं और न करने की कामना ही करती हूं।

नैतादृशं दैवतमस्ति सत्ये सर्वेषु लोकेषु सदेवकेषु ।
यथा पतिस्तस्यतु सर्वकामा लभ्य: प्रसादात् कुपितश्चहन्यात् ।।
भावार्थ― हे सत्यभामा ! देवताओं सहित सम्पूर्ण लोकों में स्त्रियों के लिये अपने पति के समान कोई अन्य देवता नहीं है। पति की प्रसन्नता से नारी की सम्पूर्ण कामना सफल हो सकती हैं और यदि पति कुपति हो जाय तो वह नारी की समस्त आशाओं को नष्ट कर सकता है।

इसीलिये तो मानव धर्मशास्त्र प्रणेता मनु ने कहा―

दाराधीनस्तथा स्वर्ग ।
अर्थात् स्वर्ग (गृहस्थ जीवन की सुख-शान्ति) नारी के आधीन है।

"नारी का स्वरुप" पुस्तक से,लेखक-स्वामी भूमानन्द सरस्वती

अजय सिंह "जे एस के "

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