Sunday, February 18, 2018

गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज

गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज


वह इनके बीच में रहता है, पर इनके बीच रहकर भी इनके दुष्प्रभाव से या पाप पंक से स्वयं को दूर रखने में सफल हो जाता है। श्रीकृष्णजी अर्जुन से कह रहे हैं कि जो कर्मयोगी नहीं है, वह कामना के वशीभूत होकर फल की आसक्ति के फेर में पड़ जाता है और उसे कर्मबन्धन अपने शिकंजे में कस लेता है। अभिप्राय ये है कि संसार में रहने वाले लोगों को मन से कर्म त्याग के लिए तैयारी करनी चाहिए। उन्हें मन से कर्मफल की कामना का त्याग करना सीखना होगा। जो कर्मयोग की इस शर्त को पूरा कर देता है। वह महान साधक कहलाता है, वह ज्ञानयोगादि से भी श्रेष्ठ हो जाता है। ऐसा महान साधक इस (आठ चक्रों वाली और) नौ द्वारों वाली (अयोध्यापुरी) नगरी में आनन्दपूर्वक वास करता है। ऐसा व्यक्ति संसार को एक सराय मानता है। इस सराय को वह साक्षी भाव से या दृष्टा भाव से देखता है और इसी भाव से इसका उपभोग करता है। तब उसे इस सराय में कोई आसक्ति इसलिए नहीं होती कि वह अपने अहम को या अहंकार को मार चुका होता है। यह अहंकार ही उसे चैन से नहीं रहने देता और इसी के कारण पर वह कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। वह स्वयं को कत्र्ता मानता रहता है। जबकि परमपिता परमेश्वर ने न तो किसी को कत्र्ता बनाया है और ना ही कोई कर्म बनाया है। ईश्वर ने कर्मफल के साथ संयोग अर्थात उसके प्रति आसक्ति भी नहीं बनायी है। मनुष्य अपने स्वभाव और अज्ञान के कारण अपने आपको कत्र्ता मान बैठता है। यदि संसार के लोग स्वयं को कत्र्ता न मानें तो कर्म अपने आप ही निष्काम हो जाता है।


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