Saturday, September 15, 2018

उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना

                
गो-स्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित श्री राम चरित मानस की एक चौपाई में भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं “ उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना ” अर्थात केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है बाकी इस जगत में सभी कुछ केवल स्वप्न के समान है।

जैसे अर्ध निद्रा की अवस्था में जब आप कोई स्वप्न देखते हैं तो, स्वप्न की स्थिति के अनुसार आप सुख या दुःख की अनुभूति करते हैं, किन्तु जैसे ही आप जाग्रत अवस्था में आते है तो वह सभी सुख और दुःख की अनुभूति समाप्त हो जाती है।

ठीक इसी प्रकार जब आप भगवान के नाम जाप के महत्व को समझ जाते हैं तो आप इस स्वप्न के संसार की वास्तविकता को समझ जाते हैं और आपका हृदय एक ऐसे आनंद की अनुभूति की और अग्रसर होता है जिसका कभी अंत नहीं हो सकता।

ऐसा नहीं है की इस जगत के क्षणिक होने के आभास, हमें अपने जीवन में नहीं होता है लेकिन हम वास्तविकता की और अपना ध्यान केन्द्रित ही नहीं करते हैं, हिन्दी के पृसिद्ध कवि जय शंकर प्रसाद ने कहा है “ श्मशान संसार का सबसे बड़ा मुक शिक्षक है।

श्मशान ही वह स्थल है जो हमें जीवन के सत्य से परिचित करवाता है किन्तु हम पुनः इसको नकार कर इस स्वप्नवत संसार में रम जाते हैं | जीवन में सबसे बड़ा भय मृत्यु का होता है यदि आप इस भय से मुक्त होना चाहते हैं तो अपने आप को पहचानने की आवश्यकता है।

जिस दिन यह विश्वास आपके हृदय में अपनी पैठ बना लेगा की “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” और इस अंश का वास्तविक लक्ष्य उस अंश से मिलना है तो आपके हृदय में बैठा मृत्यु का भय आपसे कोसो दूर होगा, जिस दिन आप प्रभु के उस मनोहारी रूप सौंदर्य में खो जाएंगे और निरंतर उसका स्मरण करते रहेंगे तो आप उस आनंद की ओर अग्रसर होगे जिसको सचिदानंद सत चित आनंद कहा गया है|

मेरे राघवेंद्र सरकार तो बिना कारण ही अपनी करुणा बरसाते ऐसे में यदि उनकी कृपा मिल जाए तो जीवन में कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाएगा।

गो-स्वामी तुलसी दास जी ने श्री रामचरित्र मानस में लिखा है की जो प्रभु राम का नाम दुर्भावना के साथ भी लेता है उसका भी प्रभु कल्याण करते हैं, अजामिल ने जीवन भर दुष्कर्म किए किन्तु यमदूतों को देख कर भय वश अपने पुत्र नारायण को पुकारने लगा तो केवल इतने पर ही प्रभु ने उसको अपना लोक प्रदान किया।

ऐसे करुणामय प्रभु का एक क्षण भी विस्मरण क्या उचित है ? सोचिए समय तीव्र गति के साथ भागा जा रहा है; ऐसा न हो की जब आपकी चेतना जाग्रत हो तब तक समय समाप्त हो चुका हो।

इसलिए “ उठत बैठत सोवत जागत जपो निरंतर नाम | हमारे निर्बल के बल राम” ||

* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥


श्री हरी आपका दिन मंगलमय् करें - 🌅👏

*ज्योतिर्विद पं० शशिकान्त पाण्डेय (दैवज्ञ)*
9930421132

गीता का नौवां अध्याय और विश्व समाज अन्य देवोपासक और भक्तिमार्गी


पीछे हम कह रहे थे कि गीता बहुदेवतावाद की विरोधी है और एकेश्वरवाद की समर्थक है। यहां पुन: उसी बात को श्रीकृष्ण जी दोहरा रहे हैं, पर शब्द कुछ दूसरे हैं। जिन्हें सुनकर लगता है कि वे बहुदेवतावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। वह कह रहे हैं कि जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं-वे भी मेरी ही पूजा करते हैं। भले ही उनकी यह पूजा विधिपूर्वक नहीं होती है। सब प्रकार के यज्ञों का अर्थात पूजाओं का भोगने वाला तो मैं हूं। ये लोग मेरे सच्चे स्वरूप को नहीं पहचानते इसलिए गिर जाते हैं।


अत: जड़ को ईश्वर मानना गलत है। ऐसी पूजा गिराती है। ईश्वर के सच्चे परम चेतन स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। जितना ही हम ईश्वर के सच्चे परम चेतन स्वरूप को समझते जाते हैं उतना ही हमारा अज्ञानान्धकार मिटता जाता है। पर फिर भी ऐसी पतनोन्मुखी पूजा को जितना वेद संगत और श्रद्घापूर्वक किया जाता है वह तो ईश्वर का भोग बन ही जाता है।


जैसी जिसकी पूजा होती है-उसे वैसा ही इष्ट मिलता है। देवों की पूजा करने वाले देवों को पाते हैं, पितरों की पूजा करने वाले पितरों को पाते हैं, और भूतों की पूजा करने वाले भूतों को पाते हैं। (भूत का अभिप्राय जो बीत गया-उससे है, दूसरा अर्थ अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश-इन पंचमहाभूतों से भी है) पितर का अभिप्राय अपने माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों से है। इसमें प्राचीन संस्कृति का गुणगान भी सम्मिलित है।


अन्त में राजविद्या की प्राप्ति का साधन योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्ण समर्पण को बता रहे हैं। जो लोग भक्तिभाव से सब कुछ करते हैं-उनकी भेंट मैं ग्रहण कर लेता हूं। पूर्ण समर्पण के साथ जो अपने इष्ट को बुलाता है, पुकारता है, उसका इष्ट उसके वश में हो जाता है। वश में होने का अभिप्राय उसे अपना गुलाम बना लेना नहीं है, अपितु अपनी आत्मा को इतना पवित्र और परिष्कृत कर लेना है कि भक्त के शुद्घ अन्त:करण से वही प्रार्थना निकले जिसे ईश्वर स्वाभाविक रूप से मान ले।


श्रीकृष्णजी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने प्रत्येक कार्य को मुझे समर्पित करके करना चाहिए। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अन्त समय में अपने जीवन-व्यापार को समेटते समय भी यही कहा था कि-'प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण हो।' कहने का अभिप्राय है कि उन्होंने अपना नाशवान चोला भी प्रभु को ही समर्पित कर दिया था। भक्ति ऐसी ही होनी चाहिए-जिसमें सर्वस्व समर्पण का भाव निहित हो। ऐसा करते रहने से साधक अपने भगवान को पा जाता है। उस परमेश्वर को किसी से न तो राग है और न ही द्वेष है। वह सबके लिए समान है, एक सा है। जो उसे भजते हैं-उनके लिए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूं। दुराचारी से दुराचारी व्यक्ति भी जिस दिन से सत्संकल्प लेकर ईश्वर को भजन आरम्भ कर देता है-उस दिन से योगेश्वर श्रीकृष्ण उसे भी साधु ही मानते हैं। इसका अभिप्राय है कि सही रास्ते पर आने के लिए कोई घड़ी मुहूत्र्त दिखाने की आवश्यकता नहीं है। जब और जहां से हृदय परिवर्तन हो जाए प्रभु वहीं से हमें गले लगा लेते हैं। यही कारण है कि परमपिता परमेश्वर को लोग नितांत दयालु और कृपालु कहते हैं। कुछ लोग उसे अज्ञानवश भोला कहते हैं-यदि उसे भोला भी मान लिया जाए तो भी सचमुच वह इतना भोला है कि हमारी पवित्र भक्ति से तुरन्त हमारे वश में हो जाता है। उसकी पाठशाला में उसी क्षण प्रवेश मिल जाता है। संसार के विद्यालयों में ऐसा नहीं है। पर प्यारे प्रभु के यहां ऐसा है, क्योंकि संसार के विद्यालय आपके अपने यहां प्रवेश के लिए संदेश नहीं भेजते, पर प्यारा पिता को सुधरने के और सही रास्ते पर आने के संदेश सदा भेजता रहता है। जैसे आग कोयले में घुसकर उसके कालेपन को मिटा देती है, वैसे ही भक्त भगवानमय होकर अपने दुराचारी स्वभाव को त्याग देता है।

कोयले में घुसे आग तो मिट जाए काला रंग।

पवित्र दुराचारी भयो पा भगवन को संग।।

ऐसे व्यक्ति को चिरस्थायी शान्ति प्राप्त होती है। ऐसा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। भगवान ऐसे भक्त के भार को उठाकर चल देते हैं। वह चाहे किसी भी वंश में या कुल में उत्पन्न हुआ हो और चाहे वह स्त्री हो या वैश्य या शूद्र हो। ऐसे लोग जब अनन्य भाव से प्यारे प्रभु को भजने लगते हैं तो मोक्ष को प्राप्त करते हैं।


जो लोग शूद्र और स्त्रियों को वेद के पढऩे या भगवान की आराधना करने पर रोक लगाते हैं उन्हें गीता के इस अध्याय के इस प्रकरण को ध्यान से पढऩा चाहिए। उन्हें पता चल जाएगा कि गीताकार स्त्रियों एवं शूद्रों को सारे अधिकार देकर समतामूलक समाज की संरचना को ही बलवती कर रहा है। अत: जीवन के कल्याण की इच्छा करने वाले हर नरनारी को अनन्य भाव से परमपिता-परमात्मा की आराधना करनी चाहिए।


संसार के छोटे से छोटे पदार्थ को या चीज को द्वेषभाव से नहीं देखना चाहिए, अपितु उन सबमें सर्वव्यापक परमात्मा की सत्ता और कलाकारी के दर्शन करने चाहिएं। सर्वत्र उसका प्रकाश अनुभव करना चाहिए। इससे हर पदार्थ का मूल्य बढ़ेगा और उससे हमारा आत्मिक लगाव पैदा होगा। आत्मिक लगाव के वातावरण से संसार का परिवेश उत्तम बनेगा। गीता इसी भाव को संसार का संस्कार बना देना चाहती है।


डा. राधाकृष्णन जी कहते है-''अपने मन को मुझ में स्थिर कर, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा कर, मुझे प्रणाम कर-यह कथन व्यक्ति रूप कृष्ण का नहीं है, जिसके प्रति हमें अपने आपको समर्पित कर देना है-अपितु अजन्मा अनादि और नित्य ब्रह्म का है, जो कृष्ण के मुंह से बोल रहा है।'' इस पर सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी कहते हैं कि हमारी सम्मति में डा. राधाकृष्णन का यह विचार अत्यन्त युक्तिसंगत है। इस विचार को सम्मुख रखकर गीता का अध्ययन करते हुए जहां भगवान ने कहा-ये शब्द आये हैं-उनका यही अर्थ समझना चाहिए कि श्रीकृष्ण ने भगवान के अभिप्राय को इस प्रकार प्रकट किया। ठीक उसी प्रकार जैसे महर्षि वेद व्यास ने अपनी बात को अपने नाम से न कहकर श्रीकृष्ण के नाम से कह दिया।''


योगेश्वर श्रीकृष्णजी को बार-बार भगवान कहने की परम्परा भी गीता के व्याख्याकारों और टीकाकारों ने अपना रखी है। भगवान का एक अर्थ परमैश्वर्यशाली भी है। श्रीकृष्णजी निश्चित रूप से ऐश्वर्यसम्पन्न थे। इस अर्थ में और इस सीमा तक उन्हें भगवान कहा जा सकता है। परन्तु संसार में लोग यौगिक अर्थ को न समझकर रूढिग़त अर्थ को शीघ्र पकडऩे का प्रयास करते हैं। जिससे श्रीकृष्णजी को भगवान समझने कहने वालों में उन्हें वह ब्रह्म समझ लिया जो इस जगत का कारण है। जबकि श्रीकृष्णजी गीता में कहीं पर भी ऐसा संकेत तक भी नहीं दे रहे हैं कि मैं वही ब्रह्म हूं जो इस चराचर जगत का कारण है। अत: श्रीकृष्णजी को इस अर्थ में भगवान कहना अनुचित होगा। गीता स्वयं हमारे मत की पुष्टि कर रही है।

लेखक 
राकेश कुमार आर्य

Sunday, February 18, 2018

भारत के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर

भारत के प्रसिद्ध  हनुमान मंदिर :


                  भारत के  विभिन्न हिस्सों में स्थित *प्रसिद्ध हनुमानजी* मंदिर है। इनमे से हर मंदिर की अपनी एक विशेषता है कोई मंदीर अपनी प्राचीनता की लिये प्रसिद्ध है तो कोई मंदीर अपनी भव्यता के लिए।

              जबकि कई मंदिर अपनी अनोखी हनुमान मूर्त्तियों के लिए जैसे की "इलाहबाद" का हनुमान मंदीर जहां की भारत की एक मात्र लेटे हुए हनूमान जी की प्रतिमा है। जबकि इंदौर के उलटे हनुमान मंदिर में भारत कि एक मात्र उलटे हनुमान कि प्रतिमा हैं।
रामनगर में विश्व का पहला ऐसा हनुमान मंदिर है जिसमें हनुमान जी के नौ स्वरूप और 12 दिलाओ के एक साथ दर्शन है 
इसी तरह रतनपुर के गिरिजाबंध हनुमान मंदिर में स्त्री रुप में हनुमान प्रतिमा है। इन सबसे अलग गुजरात के जामनगर के बाल हनूमान मंदीर का नाम एक अनोखे रिकॉर्ड क़े कारण "गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड" में दर्ज है।
👐⛳हनुमान धाम रामनगर नैनीताल (उत्तराखंड)       
                जिम कॉर्बेट पार्क, रामनगर से 6 किलोमीटर दूर नैनीताल रोड पर छुई गांव में 8 एकड़ जमीन पर एक ऐसा भव्य हनुमान धाम का नवनिर्माण हुआ है जिसमें हनुमान जी के सभी नौ स्वरूप और 12 लीलाओं के एक साथ दर्शन हैं उत्तराखंड की जमीन पर इस भव्य हनुमान धाम का जब से निर्माण हुआ है लाखों हनुमान जी के भक्तों ने इसके दर्शन करे हैं तथा इस मंदिर के मुख्य मूर्ति पर एक प्रार्थना के रूप में सभी भक्त अपनी अर्जी लगाते हैं और भक्तों का ऐसा मानना है कि उनकी अर्जी यहां पर पूरी होती है तथा उनके द्वारा मांगी गई सभी इच्छाएं हनुमान जी के द्वारा पूरी करी जाती है ऐसा इन पहाड़ों में यहां के लोगों में मान्यता है कि यह वह जमीन है जहां पर हनुमान जी ने विश्राम किया था यह वह स्थान है जहां पर लव और कुश के साथ सीता जी निवास करती थी
*🚩 हनुमान मंदिर...* *इलाहाबाद – (उत्तर प्रदेश):*

इलाहाबाद किले से सटा यह मंदिर लेटे हुए हनुमान जी की प्रतिमा वाला एक छोटा किन्तु प्राचीन मंदिर है। यह सम्पूर्ण भारत का केवल एकमात्र मंदिर है जिसमें हनुमान जी लेटी हुई मुद्रा में हैं। यहां पर स्थापित हनुमान जी की प्रतिमा *२० फीट* लम्बी है। जब वर्षा के दिनों में बाढ़ आती है और यह सारा स्थान जलमग्न हो जाता है, तब हनुमानजी की इस मूर्ति को कहीं ओर ले जाकर सुरक्षित रखा जाता है। उपयुक्त समय आने पर इस प्रतिमा को पुन: यहीं लाया जाता है।

*🚩 हनुमानगढ़ी मंदिर...**अयोध्या – (उत्तर प्रदेश):*

धर्म ग्रंथों के अनुसार अयोध्या भगवान श्रीराम की जन्मस्थली है। यहां का सबसे प्रमुख श्रीहनुमान मंदिर हनुमानगढ़ी के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर राजद्वार के सामने ऊंचे टीले पर स्थित है। इसमें "६०" सीढिय़ां चढऩे के बाद श्री हनुमान जी का मंदिर आता है। यह मंदिर काफी बड़ा है। मंदिर के चारों ओर निवास योग्य स्थान बने हैं, जिनमें साधु-संत रहते हैं। हनुमानगढ़ी के दक्षिण में सुग्रीव टीला व अंगद टीला नामक स्थान हैं। इस मंदिर की स्थापना लगभग "३००" साल पहले स्वामी अभया रामदास जी ने की थी।

*🚩 सालासर बालाजी हनुमान मंदिर...**सालासर (राजस्थान):*

हनुमानजी का यह मंदिर राजस्थान के चूरू जिले में है। गांव का नाम सालासर है, इसलिए सालासर वाले बालाजी के नाम यह मंदिर प्रसिद्ध है। हनुमानजी की यह प्रतिमा दाड़ी व मूंछ से सुशोभित है। यह मंदिर पर्याप्त बड़ा है। चारों ओर यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनी हुई हैं। दूर-दूर से श्रद्धालु यहां अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं और मनचाहा वरदान पाते हैं। इस मंदिर के संस्थापक श्री मोहनदासजी बचपन से श्री हनुमान जी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। माना जाता है कि हनुमान जी की यह प्रतिमा एक किसान को जमीन जोतते समय मिली थी, जिसे सालासर में सोने के सिंहासन पर स्थापित किया गया है। यहाँ हर साल "भाद्रपद, आश्विन, चैत्र एवं वैशाख की पूर्णिमा" के दिन विशाल मेला लगता है।

*🚩 हनुमान धारा मंदिर...**चित्रकूट – (उत्तर प्रदेश):*

उत्तर प्रदेश के सीतापुर नामक स्थान के समीप यह हनुमान मंदिर स्थापित है। सीतापुर से हनुमान धारा की दूरी तीन मील है। यह स्थान पर्वतमाला के मध्यभाग में स्थित है। पहाड़ के सहारे हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति के ठीक सिर पर दो जल के कुंड हैं, जो हमेशा जल से भरे रहते हैं और उनमें से निरंतर पानी बहता रहता है। इस धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है।इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं।धारा का जल पहाड़ में ही विलीन हो जाता है। उसे लोग प्रभाती नदी या पातालगंगा कहते हैं। इस स्थान के बारे में एक कथा इस प्रकार प्रसिद्ध है -
              *श्री राम* के अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद एक दिन हनुमानजी ने भगवान *श्रीरामचंद्र* से कहा- हे भगवन। मुझे कोई ऐसा स्थान बतलाइए, जहां लंका दहन से उत्पन्न मेरे शरीर का ताप मिट सके। तब भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को यह स्थान बताया।

*🚩 श्री संकटमोचन मंदिर...**वाराणसी – (उत्तर प्रदेश):*

यह मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में स्थित है। इस मंदिर के चारों ओर एक छोटा सा वन है। यहां का वातावरण एकांत, शांत एवं उपासकों के लिए दिव्य साधना स्थली के योग्य है। मंदिर के प्रांगण में श्री हनुमानजी की दिव्य प्रतिमा स्थापित है। श्री संकटमोचन हनुमान मंदिर के समीप ही भगवान श्रीनृसिंह का मंदिर भी स्थापित है। ऐसी मान्यता है कि हनुमानजी की यह मूर्ति गोस्वामी तुलसीदासजी के तप एवं पुण्य से प्रकट हुई स्वयंभू मूर्ति है।इस मूर्ति में हनुमानजी दाएं हाथ में भक्तों को अभयदान कर रहे हैं एवं बायां हाथ उनके ह्रदय पर स्थित है। प्रत्येक कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमानजी की सूर्योदय के समय विशेष आरती एवं पूजन समारोह होता है। उसी प्रकार चैत्र पूर्णिमा के दिन यहां "श्री हनुमान जयंती" महोत्सव होता है। इस अवसर पर श्रीहनुमानजी की बैठक की झांकी होती है और चार दिन तक रामायण सम्मेलन महोत्सव एवं संगीत सम्मेलन होता है।

*🚩 हनुमान दंडी मंदिर...**बेट द्वारका – (गुजरात):*

बेट द्वारका से चार मील की दूरी पर मकर ध्वज के साथ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। कहते हैं कि पहले मकरध्वज की मूर्ति छोटी थी परंतु अब दोनों मूर्तियां एक सी ऊंची हो गई हैं। अहिरावण ने भगवान *श्री राम लक्ष्मण* को इसी स्थान पर छिपा कर रखा था।
               जब हनुमानजी *श्री राम - लक्ष्मण* को लेने के लिए आए, तब उनका मकरध्वज के साथ घोर युद्ध हुआ। अंत में हनुमानजी ने उसे परास्त कर उसी की पूंछ से उसे बांध दिया। उनकी स्मृति में यह मूर्ति स्थापित है। कुछ धर्म ग्रंथों में मकरध्वज को हनुमानजी का पुत्र बताया गया है, जिसका जन्म हनुमानजी के पसीने द्वारा एक मछली से हुआ था।

*🚩 मेहंदीपुर बालाजी मंदिर...* *मेहंदीपुर – (राजस्थान):*

राजस्थान के दौसा जिले के पास दो पहाडिय़ों के बीच बसा हुआ मेहंदीपुर नामक स्थान है। यह मंदिर जयपुर-बांदीकुई-बस मार्ग पर जयपुर से लगभग ६५ किलोमीटर दूर है। दो पहाडिय़ों के बीच की घाटी में स्थित होने के कारण इसे घाटा मेहंदीपुर भी कहते हैं। जनश्रुति है कि यह मंदिर करीब १ हजार साल पुराना है। यहां पर एक बहुत विशाल चट्टान में हनुमान जी की आकृति स्वयं ही उभर आई थी। इसे ही श्री हनुमान जी का स्वरूप माना जाता है।
इनके चरणों में छोटी सी कुण्डी है, जिसका जल कभी समाप्त नहीं होता। यह मंदिर तथा यहाँ के हनुमान जी का विग्रह काफी शक्तिशाली एवं चमत्कारिक माना जाता है तथा इसी वजह से यह स्थान न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में विख्यात है। कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य में इस मंदिर को तोडऩे के अनेक प्रयास हुए परंतु चमत्कारी रूप से यह मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां ऊपरी बाधाओं के निवारण के लिए आने वालों का तांता लगा रहता है। मंदिर की सीमा में प्रवेश करते ही ऊपरी हवा से पीडि़त व्यक्ति स्वयं ही झूमने लगते हैं और लोहे की सांकलों से स्वयं को ही मारने लगते हैं। मार से तंग आकर भूत प्रेतादि स्वत: ही बालाजी के चरणों में आत्मसमर्पण कर देते हैं।

*🚩 डुल्या मारुति मंदिर...* *पूना – (महाराष्ट्र):*

पूना के गणेशपेठ में स्थित यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। श्रीडुल्या मारुति का मंदिर संभवत: ३५० वर्ष पुराना है। संपूर्ण मंदिर पत्थर का बना हुआ है, यह बहुत आकर्षक और भव्य है। मूल रूप से डुल्या मारुति की मूर्ति एक काले पत्थर पर अंकित की गई है। यह मूर्ति पांच फुट ऊंची तथा ढाई से तीन फुट चौड़ी अत्यंत भव्य एवं पश्चिम मुख है। हनुमानजी की इस मूर्ति की दाईं ओर *श्री गणेश* भगवान की एक छोटी सी मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति की स्थापना *श्रीसमर्थ रामदास स्वामी* ने की थी, ऐसी मान्यता है। सभा मंडप में द्वार के ठीक सामने छत से टंगा एक पीतल का घंटा है, इसके ऊपर शक संवत् १७०० अंकित है।

*🚩 श्री कष्टभंजन हनुमान मंदिर...* *सारंगपुर – (गुजरात):*

हमदाबाद-भावनगर रेलवे लाइन पर स्थित बोटाद जंक्शन से सारंगपुर लगभग १२ मील दूर है। यहां एक प्रसिद्ध मारुति प्रतिमा है। महायोगिराज गोपालानंद स्वामी ने इस शिला मूर्ति की प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १९०५ आश्विन कृष्ण पंचमी के दिन की थी। जनश्रुति है कि प्रतिष्ठा के समय मूर्ति में श्री हनुमान जी का आवेश हुआ और यह हिलने लगी। तभी से इस मंदिर को कष्टभंजन हनुमान मंदिर कहा जाता है। यह मंदिर स्वामीनारायण सम्प्रदाय का एकमात्र हनुमान मंदिर है।

*🚩 यंत्रोद्धारक हनुमान मंदिर...**हंपी – (कर्नाटक):*

बेल्लारी जिले के हंपी नामक नगर में एक हनुमान मंदिर स्थापित है। इस मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमानजी को यंत्रोद्धारक हनुमान कहा जाता है। विद्वानों के मतानुसार यही क्षेत्र प्राचीन किष्किंधा नगरी है। वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस में इस स्थान का वर्णन मिलता है। संभवतया इसी स्थान पर किसी समय वानरों का विशाल साम्राज्य स्थापित था। आज भी यहां अनेक गुफाएं हैं। इस मंदिर में श्रीराम नवमी के दिन से लेकर तीन दिन तक विशाल उत्सव मनाया जाता है।

*🚩 गिरजाबंध हनुमान मंदिर...* *रतनपुर – (छत्तीसगढ़):*

बिलासपुर से २५ कि. मी. दूर एक स्थान है रतनपुर। इसे महामाया नगरी भी कहते हैं। यह देवस्थान पूरे भारत में सबसे अलग है। इसकी मुख्य वजह मां महामाया देवी और गिरजाबंध में स्थित हनुमानजी का मंदिर है। खास बात यह है कि विश्व में हनुमान जी का यह अकेला ऐसा मंदिर है जहां हनुमान नारी स्वरूप में हैं। इस दरबार से कोई निराश नहीं लौटता। भक्तों की मनोकामना अवश्य पूरी होती है।

*🚩 उलटे हनुमान का मंदिर...**साँवरे, इंदौर – (मध्यप्रदेश):*

भारत की धार्मिक नगरी उज्जैन से केवल ३० किमी दूर स्थित है यह धार्मिक स्थान जहाँ भगवान हनुमान जी की उल्टे रूप में पूजा की जाती है। यह मंदिर साँवरे नामक स्थान पर स्थापित है इस मंदिर को कई लोग रामायण काल के समय का बताते हैं। मंदिर में भगवान हनुमान की उलटे मुख वाली सिंदूर से सजी मूर्ति विराजमान है। सांवेर का हनुमान मंदिर हनुमान भक्तों का महत्वपूर्ण स्थान है यहाँ आकर भक्त भगवान के अटूट भक्ति में लीन होकर सभी चिंताओं से मुक्त हो जाते हैं। यह स्थान ऐसे भक्त का रूप है जो भक्त से भक्ति योग्य हो गया।

*उलटे हनुमान कथा :—*🚩
भगवान हनुमान के सभी मंदिरों में से अलग यह मंदिर अपनी विशेषता के कारण ही सभी का ध्यान अपनी ओर खींचता है। साँवेर के हनुमान जी के विषय में एक कथा बहुत लोकप्रिय है। कहा जाता है कि जब रामायण काल में भगवान *श्री राम* व रावण का युद्ध हो रहा था, तब अहिरावण ने एक चाल चली. उसने रूप बदल कर अपने को राम की सेना में शामिल कर लिया और जब रात्रि समय सभी लोग सो रहे थे,तब अहिरावण ने अपनी जादुई शक्ति से *श्री राम एवं लक्ष्मण जी* को मूर्छित कर उनका अपहरण कर लिया। वह उन्हें अपने साथ पाताल लोक में ले जाता है। जब वानर सेना को इस बात का पता चलता है तो चारों ओर हडकंप मच जाता है। सभी इस बात से विचलित हो जाते हैं। इस पर हनुमान जी भगवान *श्री राम व लक्ष्मण जी* की खोज में पाताल लोक पहुँच जाते हैं और वहां पर अहिरावण से युद्ध करके उसका वध कर देते हैं तथा *श्री राम एवं लक्ष्मण जी* के प्राँणों की रक्षा करते हैं। उन्हें पाताल से निकाल कर सुरक्षित बाहर ले आते हैं। मान्यता है की यही वह स्थान था जहाँ से हनुमान जी पाताल लोक की और गए थे। उस समय हनुमान जी के पाँव आकाश की ओर तथा सर धरती की ओर था जिस कारण उनके उल्टे रूप की पूजा की जाती है।

*🚩 प्राचीन हनुमान मंदिर...**कनॉट प्लेस – (नई दिल्ली):*

यहां महाभारत कालीन श्री हनुमान जी का एक प्राचीन मंदिर है। यहाँ पर उपस्थित हनुमान जी स्वंयम्भू हैं। बालचन्द्र अंकित शिखर वाला यह मंदिर आस्था का महान केंद्र है। दिल्ली का ऐतिहासिक नाम इंद्रप्रस्थ शहर है, जो यमुना नदी के तट पर पांडवों द्वारा महाभारत-काल में बसाया गया था। तब पांडव इंद्रप्रस्थ पर और कौरव हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। ये दोनों ही कुरु वंश से निकले थे। हिन्दू मान्यता के अनुसार पांडवों में द्वितीय भीम को हनुमान जी का भाई माना जाता है। दोनों ही वायु-पुत्र कहे जाते हैं। इंद्रप्रस्थ की स्थापना के समय पांडवों ने इस शहर में पांच हनुमान मंदिरों की स्थापना की थी। ये मंदिर उन्हीं पांच में से एक है।

*🚩 श्री बाल हनुमान मंदिर, *जामनगर – (गुजरात):*

सन् १५४० में जामनगर की स्थापना के साथ ही स्थापित यह हनुमान मंदिर, गुजरात के गौरव का प्रतीक है। यहाँ पर सन् १९६४ से “श्री राम धुनी” का जाप लगातार चलता आ रहा है, जिस कारण इस मंदिर का नाम गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल किया गया है।

*🚩 महावीर हनुमान मंदिर...* *पटना, (बिहार):*

पटना जंक्शन के ठीक सामने महावीर मंदिर के नाम से श्री हनुमान जी का मंदिर है। उत्तर भारत में माँ वैष्णों देवी मंदिर के बाद यहाँ ही सबसे ज्यादा चढ़ावा आता है। इस मंदिर के अन्तर्गत महावीर कैंसर संस्थान, महावीर वात्सल्य हॉस्पिटल, महावीर आरोग्य हॉस्पिटल तथा अन्य बहुत से अनाथालय एवं अस्पताल चल रहे हैं। यहाँ श्री हनुमान जी संकटमोचन रूप में विराजमान हैं।

*🚩 श्री पंचमुख आंजनेयर हनुमान...**( तमिलनाडू):*

तमिलनाडू के कुम्बकोनम नामक स्थान पर श्री पंचमुखी आंजनेयर स्वामी जी (श्री हनुमान जी) का बहुत ही मनभावन मठ है। यहाँ पर श्री हनुमान जी की “पंचमुख रूप” में विग्रह स्थापित है, जो अत्यंत भव्य एवं दर्शनीय है।
यहाँ पर प्रचलित कथाओं के अनुसार जब अहिरावण तथा उसके भाई महिरावण ने *श्री राम जी* को लक्ष्मण सहित अगवा कर लिया था, तब *प्रभु श्री राम* को ढूँढ़ने के लिए हनुमान जी ने पंचमुख रूप धारण कर इसी स्थान से अपनी खोज प्रारम्भ की थी। और फिर इसी रूप में उन्होंने उन अहिरावण और महिरावण का वध भी किया था। यहाँ पर हनुमान जी के पंचमुख रूप के दर्शन करने से मनुष्य सारे दुस्तर संकटों एवं बंधनों से मुक्त हो जाता है

गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज


गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज


उत्तरायण प्रकाश है दक्षिणायन अंधकार।

शुक्लपक्ष प्रकाश है कृष्णपक्ष अंधकार।।

उत्तरायण प्रकाशकाल है तो दक्षिणायन अंधकारकाल है। इन दोनों प्रकार के मार्गों को जीवन पर लाकर तोलते समय ध्यान देना चाहिए कि शुक्ल पक्ष और उत्तरायण काल का अर्थ प्रकाशमान से है। अत: जिसका जीवन शुभ कार्मों से प्रकाशमान है-वह लौटकर नहीं आता। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन काल अंधकार के प्रतीक हैं। अत: जिसके जीवन में अशुभ कार्यों का प्राबल्य रहा- वह संसार से जाता है तो लौटकर भी आता है। इस रहस्य को समझने की आवश्यकता है। सत्यार्थ स्वयं ही समझ आ जाएगा, साथ ही हमारे ऋषियों का विज्ञानवाद भी स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा। आज के संसार को भारत के इस विज्ञान को भी समझने की आवश्यकता है, जिससे कि अशुभ कर्मों से लोगों की अप्रीति और शुभ कर्मों में उनकी प्रीति बढ़े और यह संसार पुन: स्वर्ग बन सके। संसार को नरक बनाना ही कृष्ण पक्ष है और इसे स्वर्ग बनाना ही शुक्ल पक्ष है।

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,


श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि जो योगी जीवन और संसार के इन दोनों मार्गों के रहस्य को और वास्तविकता को जान जाता है -वह कभी भी मोह या भ्रम में नहीं पड़ता। इसीलिए वह संसार के कल्याण के लिए और संसार के लोगों को भारत की सनातन योग परम्परा के साथ जुड़े रहने की प्रेरणा देते हुए अर्जुन से कह रहे हैं कि तू सब कालों में योग से जुड़ा रह और योग में जुटा रह। ईश्वर के प्रति ऐसा समर्पण अथवा भक्तियोग ही जीवन नैया को पार लगाएगा। यह सब जान लेने पर वेदों के अध्यापन से, यज्ञों को करने से, तपों की तपने से, दानों को देने से, जो पुण्य फल प्राप्त होने की बात कही जाती है-योगी उस सबको पार कर जाता है और सबसे पहला और परम स्थान प्राप्त कर लेता है।


'गीता' का यह आठवां अध्याय सांसारिक व्यक्तियों को याद दिला रहा है कि प्रभु भक्ति में रोज डूबे रहो। उससे हटो नहीं। उसी में ठहरे रहो। इससे यह होगा कि उस प्रभु से हमारी मित्रता के संस्कार प्रगाढ़ होंगे और ये प्रगाढ़ संस्कार यहां से जाते समय हमारे काम आएंगे। यही वह पूंजी होगी जो हमारा अगला लोक बनाएगी अगला महल बनाएगी। काम ऐसे करो कि बना बनाया महल मिले और तिनका-तिनका न चुनना पड़े। जाते समय प्रभु की गोद मिले और हम दुख में विलीन ना होकर आनंद में लीन हो जायें। ऐसे शुभ कर्मों के करने से यह जीवन सफल हो जाता है और मनुष्य मोक्षपद का पात्र बन जाता है। गीता का आठवां अध्याय यहीं पर समाप्त होता है। इस अध्याय में श्रीकृष्णजी ने जीवन के उत्तरायण और दक्षिणाययन दो मार्गों का बड़ी सुंदरता और उत्तमता से वर्णन किया है। इस वर्णन को समझकर साधारण से साधारण व्यक्ति भी लाभान्वित हो सकता है। उत्तरायण और दक्षिणायन का समीकरण शुक्लपक्ष और कृष्ण्पक्ष के साथ जिस उत्तमता से स्थापित किया गया है-वह भी बहुत ही वैज्ञानिक और तार्किक आधार पर बनाया गया है। आधुनिक भौतिक विज्ञान और पश्चिमी जगत का ज्ञान-विज्ञान इस बात को समझ नहीं पाया है।


गीता का नौवां अध्याय


गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण जी ने शुक्ल मार्ग और कृष्ण मार्ग की बात कही है। उसी को 'प्रश्नोपनिषद' के ऋषि ने (प्रथम प्रश्न 9-15) में भी वर्णन किया है। उसके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है जिसे हम उत्तरायण कह रहे हैं-वही प्राण मार्ग, देवयान मार्ग और निवृति मार्ग कहा गया है। इसी प्रकार जिसे हम कृष्ण मार्ग कह रहे हैं वही दक्षिणायन मार्ग है, रयि मार्ग है, पितृयाण मार्ग है, प्रवृत्ति मार्ग है। कृष्ण मार्ग वास्तव में अंधकार का काल और शुक्ल मार्ग ज्ञान के प्रकाश का मार्ग है। संसार के लोगों को चाहिए कि वे दक्षिणायन मार्ग के पथिक न बनकर उत्तरायण मार्ग के पथिक बनें। इसके लिए वे संसार के प्रति दृष्टिकोण अपनायें कि यहां उपद्रवकारी व उग्रवादी शक्तियों का अंत हो और सज्जन शक्ति का प्राबल्य हो।


योगेश्वर श्री कृष्णजी संसार को नरक या मृत्युलोक के रूप में देखने की निराशावादी प्रवृत्ति के विरोधी हैं। वे इसे स्वर्ग बनाना चाहते हैं और इसीलिए एक आशावादी प्रेरणास्पद उपदेश कर रहे हैं कि हे संसार के लोगों! तुम उत्तरायण मार्ग के या शुक्लमार्ग के पथिक बनो। उत्तरायण मार्ग का पथिक बनने का अभिप्राय है कि जीवन में विज्ञानवाद के प्रकाश को स्थान दो और वैज्ञानिकता के उपासक बनो। गीता आशावाद का संचार करने वाला ग्रथ है, तभी तो वह निराशा निशा के प्रतीक अज्ञानान्धकार के काल को व्यक्ति के लिए त्याज्य और ज्ञानप्र्रकाश के काल को 'गेय' बनाकर चलती है। वह भूले भटकों को राह दिखाना चाहती है और भवसागर से पार लगाने का उपाय बता रही है।


मानो संसार एक नदिया है और संसार के लोग इस नदिया के एक किनारे पर खड़े इसे पार करने की युक्ति खोज रहे हैं। तब गीता उस युक्ति को देने का मार्ग बता रही है और कह रही है कि अपने वेद को और वैदिक संस्कृति के सनातन ज्ञान को भूलो मत, उसकी शरण में जाओ और अपना कल्याण कर लो। गीता ने अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ नहीं माना है, अपितु उसने वेद की सनातनता को नमस्कार करते हुए आर्ष ग्रन्थों का निचोड़ हमें देकर यह बता दिया है कि यदि मोक्ष चाहते हो तो अपनी उड़ान को ऊंचा करो, अपने दृष्टिकोण को व्यापकता दो, कल्याण हो जाएगा। इसलिए गीता अन्त में वेदों की ओर संकेत कर देती है। इस संकेत को समझने की आवश्यकता है। याद रहे कि गीता तक स्वयं को मत रोको, अपितु गीता के स्रोत अर्थात वेद तक स्वयं को ले चलो। वहां जाकर जो स्नान किया जाएगा-वह अमृत स्नान होगा।

सबसे बड़ी विद्या अर्थात राजविद्या

विद्या के विषय में विद्यादान करने वाला गुरू कैसा होना चाहिए? इस पर विचार प्रकट करते हुए ऋग्वेद (4/2/12) का ऋषि कहता है कि वह 'अदब्धा' अर्थात न दबने वाला होना चाहिए। अभिप्राय है कि गुरू शिष्य से दबने वाला न हो, उसका व्यक्तित्व ऐसा हो जो अपने शिष्यों को प्रभावित कर सके और उन्हें अपने आभामण्डल के तेज के सामने झुकने के लिए प्रेरित कर सके। यहीं पर वेद का ऋषि कहता है कि गुरू दर्शनीय और अद्भुत होना चाहिए। गुरू के दर्शन करने से उसकी दिव्याभा का प्रभाव उसके छात्रों पर पड़े और उसकी सौम्यता व शालीनता उन्हें सहज रूप से आकर्षित करने वाली हों। गुरू अभूतपूर्व (अद्भुत) हो। उसके ज्ञान की थाह पाने की चाह में चाहे जितनी चेष्टा की जाए, पर उसे कोई पा न सके-ऐसा व्यक्तित्व गुरू का होना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि गुरू किसी भी प्रकार से पाखण्डी, ठोंगी, व्यभिचारी या आडम्बरी न होकर दिव्य आभा से युक्त सच्चरित्र और महान गुणों से भूषित होना चाहिए। ऐसा गुरू ही विद्याओं में उत्तम और धर्मानुकूल विद्या अपने छात्र छात्राओं को दे सकता है। श्रीकृष्ण जी सौभाग्य से अर्जुन को ऐसे ही गुरू मिल गये हैं। उनका व्यक्तित्व बड़ा ही विशाल है और ज्ञान गाम्भीर्य तो ऐसा है कि आज तक कोई उसकी थाह नहीं ले सका।

गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज


गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज

श्री कृष्णजी की बात का अभिप्राय है कि बाहरी शत्रु यदि बढ़ जाते हैं तो योगी भी भयभीत हो उठते हैं। ये बाहरी शत्रु ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों को शान्तिपूर्ण जीवन जीने नहीं देते हैं। उनके भीतर उपद्रव होता रहता है तो उनके जीवन में भी उपद्रव ही उपद्रव दिखायी देने लगते हैं, ऐसे लोगों का सफाया किया जाना आवश्यक होता है। यही काम दुर्योधनादि कर रहे हैं। अत: अर्जुन के लिए यह उचित है कि वह उपद्रवकारियों और उन्मादियों या उग्रवादियों के विरूद्घ उठ खड़ा हो। जब तक ये बाहरी शत्रु अर्जुन के लिए खड़े हैं तब तक वह आंख बन्द करके नहीं बैठ सकता। उसके क्षात्र धर्म का तकाजा है कि वह अपने बाहरी शत्रुओं की सेना को समाप्त करे और फिर निश्चिन्त होकर अपने भीतरी जगत के शत्रुओं को मारकर शान्ति का अनुभव करे।

                                  गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

योगी की स्थिति की चर्चा करते श्रीकृष्ण जी आगे कहते हैं कि अपनी पीठ, सिर और गर्दन को सीधा करके और अचल रखकर अर्थात बिना हिले-डुले स्थिर होता हुआ नासा के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर अन्य किसी दिशा में न देखते हुए वह प्रशान्त मन वाला होकर भयरहित, ब्रह्मचर्य के व्रत में टिका हुआ, मन का संयम करके ईश्वर में ही चित्त गाड़ कर बैठता है। ऐसी अवस्था में ही योगी को परमशान्ति का अनुभव होता है। उस अवस्था में योगी का बाहरी जगत से सम्पर्क कट जाता है और वह भीतरी जगत में जाकर आनन्द लेने लगता है। श्रीकृष्णजी कहते हैं कि जो व्यक्ति अर्थात योगी इस प्रकार मेरे साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और अपने आपको इस प्रकार मुझे समर्पित कर देता है, जिसका मन उसके वश में हो गया है, ऐसा योगी परमशान्ति को प्राप्त कर लेता है।

कहने का अभिप्राय है कि ऐसे योगी के लिए पाने के लिए शेष कुछ भी नहीं रहता। यही तो है भारत की संस्कृति-जिसमें सब कुछ पाने का सरल उपाय हर व्यक्ति को बता दिया गया है। इस संस्कृति की सुरक्षा करना प्रत्येक भारतीय का कत्र्तव्य है। अब सुरक्षा के दो रास्ते हैं-एक तो यह कि स्वयं भी ऐसी ही पवित्रात्मा बनो और बनकर इस संस्कृति का प्रचार-प्रसार करो। दूसरे, जो लोग पवित्रात्माओं के मार्ग को रोकें या उन्हें किसी प्रकार से उत्पीडि़त करें, उनका सफाया करो। अर्जुन को दोनों ही काम करने हैं। उसे पवित्रात्मा योगी भी बनना है और योगियों के या पवित्रात्माओं के मार्ग को बाधित करने वालों का सफाया भी करना है।

श्रीकृष्ण जी का कहना है कि हे अर्जुन! जिस व्यक्ति का आहार-विहार नियमित और सन्तुलित हो, जिसकी सारी चेष्टाएं सन्तुलित व नियमित हों, जिसका सोना, जागना नियमित हो, अर्थात जिसकी दिनचर्या पूर्णत: नियमों में ढली हो और सारे कार्य और सारी चेष्टाएं नियमों के अन्तर्गत रहकर अनुशासित और मर्यादित ढंग से पूर्ण होती हों ऐसे व्यक्ति के योग दु:ख दूर कर देता है।

आहार-विहार हो सन्तुलित मर्यादित व्यवहार।

दिनचर्या हो नियमित गीत गाये संसार।।

भारत के योगियों ने अपनी दिनचर्या और जीवनचर्या को इसलिए संयमित, नियमित और मर्यादित बनाया कि उन्होंने ईश्वरीय व्यवस्था को, प्रकृति के नियमों को बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया और पाया कि वहां सारा कुछ एक निश्चित नियम प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्पन्न हो रहा है। अत: मनुष्य के लिए भी उचित है कि वह भी ईश्वरीय व्यवस्था और प्रकृति के नियमों के अनुरूप स्वयं को चलाये। यही अवस्था ईश्वर और प्रकृति से मित्रता कर लेने वाली अवस्था होती है। ईश्वर और प्रकृति के गुण आत्मा और शरीर वाला होने से मनुष्य के भीतर आने भी चाहिएं। ईश्वर हमारे आत्मा का मित्र है तो प्रकृति हमारे शरीर का मित्र है। अत: हमारे स्वभाव में भी इनके नियम रम जाने चाहिएं। योग का अभिप्राय ईश्वरीय व्यवस्था में स्वयं को स्थिर कर लेना है और प्रकृति के नियमों को पढक़र उनके ही अनुसार अपनी दिनचर्या और जीवनचर्या को बना लेना है।

युक्ताहार-विहार का अभिप्राय इन्द्रियसंयम से है। यहां पर युक्ताहार-विहार कहा गया है। जिसका अभिप्राय है कि इन्द्रियों से उचित नपा तुला काम तो लेना है। अपेक्षा से न थोड़ा सा अधिक और न थोड़ा सा भी कम। जैसे मिताहारी का अर्थ नपा-तुला (मित) खाने वाला है और मितभाषी का अर्थ नपा-तुला (मित) बोलने वाला है। वैसे ही हर इन्द्रिय से उतना काम लेना चाहिए-जितना आवश्यक है। जैसे मिताहारी का अभिप्राय कम खाने वाला या कतई न खाने वाला नहीं है, और मितभाषी का अर्थ जैसे कम बोलने वाला या कतई न बोलने वाला नहीं है-वैसे ही युक्ताहारी-विहारी का अर्थ इन्द्रियों को भूखा मारना या घरबार छोडक़र जंगलों में भाग जाना नहीं है। संसार समर में से भगाना या व्यक्ति को कायर बना देना गीता का विषय ही नहीं है-वह तो संसार समर से भागते हुए अर्जुन को रोकने के लिए अपनी बात कह रही है। अत: जिन लोगों ने गीता के 'युक्ताहार-विहार' का अर्थ घरबार छोड़ देने से या जंगलों में जाकर रहने से लगा लिया या इन्द्रियों को जिन्होंने भूखा मारना आरम्भ कर दिया उन्होंने भी गीता के मर्म को समझा नहीं है। वह स्वयं 'अर्जुन' हो गये और उसके उपरान्त भी मैदान छोडक़र भागने वाले अर्जुन को मैदान में डटे रहने का उपदेश दे रहे हैं। यह तो एक प्रकार का उपहास ही हुआ। श्रीकृष्ण जी संसार समर में डटे रहने वाले योगी थे। अत: वह दूसरों को भी ऐसा ही उपदेश देंगे कि जीवन को कमल की भांति बनाओ। संसार की कीचड़ में रखकर भी उसे कीचड़ से सनने मत दो। यह है गीता का उपदेश।

गीता का 'कर्मयोग' तभी सफल होता है-जब हम ध्यान की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। ध्यान के साधनों का नाम ही 'ध्यानयोग' है। वास्तव में 'ध्यानयोग' का अभिप्राय शरीर की शक्तियों को अन्तर्मुखी बना देना है। हमारे ऋषियों ने अध्यात्म के क्षेत्र में महान सफलता की प्राप्ति के लिए ऊध्र्वरेता होने की अवस्था का अभिप्राय वीर्य (रेटस) को ऊपर की ओर चढ़ा लेना है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य की घोर साधना ही ऊध्र्वरेता होना है। इस अवस्था में जाकर व्यक्ति को जिस आनन्द की अनुभूति होती है वही सच्ची स्वतन्त्रता होती है। इस अवस्था में मनुष्य इन्द्रियों की दासता से मुक्त हो जाता है और जो मन उसे अब तक पटक पटक मार रहा था उसकी सारी तानाशाही और नादिरशाही भी शान्त हो जाती है। अब मन आत्मा के आधीन हो जाता है और आत्मस्वरूप में मग्न रहने का अभ्यासी बन जाता है। अत: उसके द्वारा जितने भर भी कार्य निष्पादित किये जाते हैं-वे सबके सब बहुत शुद्घ और पवित्र होते हैं। श्रीकृष्णजी का कर्मयोग इसी अवस्था में फलता-फूलता है। इसी अवस्था में प्रस्फुटित होता है और इसी अवस्था में वह मुखर होता है। इसी अवस्था को श्रीकृष्ण जी अनुशासित जीवन कह रहे हैं। श्रीकृष्ण जी व्यक्ति की चेतना को निरन्तर जाग्रत किये रखना चाहते हैं। इसीलिए उसे कर्मयोगी बनाये रखना अपना धर्म मानते हैं।

संसार के जागरूक अर्थात जाग्रत लोगों को अपनी जागृत चेतना के माध्यम से ऐसे प्रयास करने ही चाहिएं कि अन्य लोगों का जीवन भी कल्याण से ओतप्रोत हो जाए, उनकी चेतना जागृत हो जाए और वे भी ऊध्र्वरेता बनकर आत्म कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ हो जाएं? इसके लिए सतत साधना अर्थात निरन्तर ध्यान करते रहने का अभ्यास और वह भी एकान्त में करते रहने की आवश्यकता है। इसके लिए विद्वानों ने एकाकी ध्यान, इन्द्रिय निग्रह, वासना त्याग, अपरिग्रह, एकाग्रता, आसन, निर्भयता, ब्रह्मचर्य, भगवान में चित्त लगाना और नियमित जीवनशैली को अपनाने की आवश्यकता मानी है।

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,



आत्म कल्याण कैसे सम्भव है 

संसार के लोग अपने आप पर अपनी ही नजरें नहीं रखते। मैं क्या कर रहा हूं? मुझे क्या करना चाहिए? ऐसी दृष्टि उनकी नहीं होती। वह ये सोचते हैं कि मैं जो कुछ कर रहा हूं-उसे कोई नहीं देख रहा और मैं उसे किसी को नहीं देखने दे रहा हूं, इसलिए मैं बहुत ही चतुर चालाक हूं? जिन लोगों की अपने विषय में ऐसी सोच होती है-वे आत्मछल करते हैं। जिसके कारण वे कब नीचे गिर जाएं, और कब उनका दिखावटी बड़प्पन मिट्टी में मिल जाए?-इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। संसार के लोग बड़प्पन का झूठा महल चिनते हैं और वह अक्सर थोड़ी सी विपरीत स्थिति-परिस्थिति के आते ही भर भराकर गिर जाता है।

                              गीता का कर्मयोग और आज का विश्व

श्रीकृष्णजी आत्मकल्याण का रास्ता बताते हुए अर्जुन को समझा रहे हैं कि सुनो अर्जुन! मनुष्य अपना उद्घार या आत्मकल्याण स्वयं ही कर सकता है। वह अपने आप पर स्वयं नजर रखे और कभी भी स्वयं को नीचे ना गिरने दे। सदा यह वचन याद रखे कि हर व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है। एकान्त में मनुष्य अपना अन्तरावलोकन स्वयं करे, स्वयं अपनी गलतियां देखे, अपने चरित्र की स्वयं समीक्षा करे। अपने आपसे स्वयं प्रश्न पूछे और बड़ी ईमानदारी से उनका उत्तर दे तो वह उन्नतिगामी होने लगता है। उसका आत्मकल्याण होने लगता है। जब करने वाला 'मैं' हूं तो यह भी ध्यान रहे कि टोकने वाला भी 'मैं' ही होना चाहिए। 'मैं' से 'मैं' का वात्र्तालाप होता रहेगा तो 'मैं' (अहंकार) नष्ट हो जाएगा। यह भीतरी जगत का खेल है, जिससे 'मैं' और 'मैं' मिलकर 'मैं' को ही मार डालती हैं। बाहरी जगत में एक और एक मिलकर दो होते हैं पर भीतरी जगत में एक और एक मिलकर शून्य हो जाते हैं। जी, हां वही शून्य जिससे यह जगत उपजता है। इस खेल को जरा खेलकर तो देखो बड़ा आनंद आएगा।

'मैं' और 'मैं' मिलकर करें 'मैं' का सत्यानाश।

'मैं' के सत्यानाश में छुप रहा आत्मविकास।।

आत्मकल्याण का इससे उत्तम और इससे सस्ता कोई मार्ग नहीं है। 'मैं' के अर्थात अहंकार के विनाश होते ही व्यक्ति के आत्मविकास के मार्ग खुल जाते हैं। जो व्यक्ति ईमानदारी से अपने आपसे अपने आपको नहीं छुपाता वह अपने दोषों को पहचान लेता है और उन्हें दूर करने के लिए भी सचेष्ट हो उठता है।

इसी बात को श्रीकृष्ण जी हमारे लिए उत्तम बता रहे हैं। वह कहते हैं कि हे अर्जुन! जो व्यक्ति योग की सीढिय़ों को तय कर लेता है और योगी कहा जाने लगता है, वह एकान्त में अकेला बैठकर अपने चित्त और आत्मा को वश में रखकर उच्चता की साधना करता है, ऐसा व्यक्ति वासना से मुक्त हो जाता है। वासना के सारे साधन उपलब्ध होते हुए भी वह उससे मुंह फेर लेता है, अर्थात एक योगी को वासना सताना बंद कर देती है। वह अपरिग्रहवादी बनकर संसार के भौतिक ऐश्वर्यों को भी लात मार देता है और अपने मन को सदा परमात्मा के साथ जोड़े रखता है। उसके लिए संसार के सारे स्वाद और सारे रस फीके हो जाते हैं। ऐसे योगी को आत्मरस का लपका पड़ जाता है और वह समय मिलते ही उसी में लगा रहता है। उसके इस आनन्द को कोई दूसरा व्यक्ति न तो जान सकता है और न ही बखान कर सकता है।

योगी के लिए सदा एकान्त स्थान ही उपयोगी होता है, और योगी के लिए ही क्यों?- संसार की समस्याओं का समाधान खोजने वाले सामाजिक चिन्तकों, लेखकों, कवियों, दार्शनिकों, राजनीतिशास्त्रियों और राष्ट्रसाधकों के लिए भी एकान्त ही उपयोगी होता है। एकान्त में अर्थात ध्यान की अवस्था में ही समस्याओं के समाधान निकला करते हैं। एकान्त में रहकर ही लोग बड़े आविष्कार करते हैं, बड़े-बड़े चमत्कार करते हैं और एकान्त में रहकर ही आत्मसाक्षात्कार करते हैं।

एक योगी तो जीवन और जगत दोनों की अबूझ पहेलियों का समाधान खोजता है-अत: उसके लिए तो एकान्त और भी आवश्यक है। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि संसार के अन्य लोगों के एकान्तसेवन और योगी के एकान्तसेवन में भारी अंतर होता है। योगी की साधना सात्विकता में प्रवाहित होती है और वह सात्विकता के सकारात्मक परिवेश का ही निर्माण कर संसार को लाभान्वित करती है। जबकि संसार के लोगों से एकान्त में कई बार चूक भी हो सकती है वह कोई ऐसा निर्णय ले सकते हैं जो विश्व के लिए हानिकारक हो। परमाणु बम की खोज किसी वैज्ञानिक की बड़ी साधना का फल है, परन्तु यह संसार के लिए भय का कारण बनी है और इसने अतीत में भारी विनाश भी मचाया है। ऐसे और भी उदाहरण हो सकते हैं, जिन्होंने संसार को लाभ के स्थान पर हानि ही दी है। इसका कारण ये है कि संसार के लोगों का चित्त और आत्मा वश में नहीं होती, ना ही वासना पर उनका नियंत्रण होता है, यह भी आवश्यक नहीं कि वह अपरिग्रहवादी हो गये हों और ऐषणाओं से उन्होंने स्वयं को मुक्त कर लिया हो, और यह भी नहीं कि उनका मन ईश्वर के साथ निरन्तर जुड़ा रहता हो। बस, यही वह अन्तर है जो योगी को संसार के सब लोगों से श्रेष्ठ बनाता है। भारत की संस्कृति श्रेष्ठ की ही उपासना करती है, वह घटिया माल को हाथ भी नहीं लगाती, यद्यपि सम्मान सभी का करती है, पर चाहिए उसे एकदम अव्वल माल ही।

श्रीकृष्ण जी इसी अव्वल माल की ओर ही संकेत करते हुए अर्जुन को बता रहे हैं कि हे पार्थ! ऐसे योगीजन स्वच्छ स्थान पर अपना स्थिर आसन बिछाकर और ऐसे स्थान का चयन कर जो न तो अधिक ऊंचा हो और न ही अधिक नीचा हो, उस पर कुशा, फिर मृगछाला और उस पर स्वच्छ वस्त्र बिछाकर अपने मन को एकाग्र कर चित्त तथा इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर अपनी साधना करते हैं और आत्मशुद्घि के लिए योग में जुट जाते हैं। उनका योग उन्हें संसार के भोग और रोग से दूर कर देता है।

श्रीकृष्ण जी यहां एक प्रकार से योगी की दिन चर्या पर प्रकाश डाल रहे हैं। उसकी दिनचर्या में योग का क्या स्थान है और उसके प्रति उसकी निष्ठा किस स्तर की होती है?- इस पर प्रकाश डाल रहे हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण जी जिस प्रकार के योगी का चित्रण कर रहे हैं-उसका संसार अलग है, उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं और उसकी मान्यताएं व जीवन के प्रति दृष्टिकोण अलग है। वह संसार में अपने शत्रु नहीं खोजता अपितु अपने भीतर काम, क्रोध, मद, मोह लोभादि के शत्रुओं को खोजता रहता है और उन्हें पटक-पटक कर मारता रहता है। उसका अभियान आत्म विजयी होने का है। वह जानता है कि बाहरी शत्रु मेरे भीतर के शत्रुओं की प्रतिच्छाया हैं। भीतर के शत्रु जब तक समाप्त नहीं होंगे, तब तक बाहरी जगत के शत्रुओं का सफाया होना असम्भव है। अत: एक योगी की सारी दिनचर्या भीतरी जगत के शत्रुओं के सफाये के लिए बनती है। वह आंखें इसलिए बन्द कर लेता है कि उसे भीतर के जगत में अपने शत्रु खोजने होते हैं, जो आंख बन्द करके ही खोजे जाने संभव हैं। दूसरे, उसे बाहरी शत्रुओं का कोई भय नहीं रहता और ना ही बाहर उसका कोई शत्रु होता है, इसलिए बाहरी शत्रुओं का उसे भय न होने के कारण वह आंखें बन्द करके बैठ जाता है। जिसने बाहरी संसार में शत्रुओं की लम्बी पंक्ति तैयार कर ली है-वह आंख बन्द करके भी नहीं बैठ सकत

★★★ हमारे सात चक्र★★★


 1. मूलाधार चक्र :

यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह "आधार चक्र" है। 99.9% लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है, उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : "लं"

कैसे जाग्रत करें : 

मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है.! इसीलिए भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्यािन लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : 

इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतरवीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।

2. स्वाधिष्ठान चक्र -

यह वह चक्र लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है, जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है, वह आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : "वं"

कैसे जाग्रत करें : 

जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती. लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : 

इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो, तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3. मणिपुरक चक्र :

नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत "मणिपुर" नामक तीसरा चक्र है, जो दस कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : "रं"

कैसे जाग्रत करें:

 आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव :

 इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।

4. अनाहत चक्र

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही "अनाहत चक्र" है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं.

मंत्र : "यं"

कैसे जाग्रत करें : 

हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और "सुषुम्ना" इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : 

इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है। इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है। व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5. विशुद्धि चक्र:

कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां "विशुद्ध चक्र" है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है, तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : "हं"

कैसे जाग्रत करें : 

कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र Iजाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : 

इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

6. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में "आज्ञा-चक्र" है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां ज्यादा सक्रिय है, तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। "बौद्धिक सिद्धि" कहते हैं।

मंत्र : "ॐ"

कैसे जाग्रत करें :

 भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : 

यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस "आज्ञा चक्र" का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं, व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7. सहस्रार चक्र :

"सहस्रार" की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें :

 "मूलाधार" से होते हुए ही "सहस्रार" तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह "चक्र" जाग्रत हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : 

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही "मोक्ष" का द्वार है।