Saturday, September 15, 2018

राम से बड़ा राम का नाम

"एक राम दशरथ घर डोले,
एक राम घट घट में बोले।
एक राम का सकल पसारा,
एक राम त्रिभुवन ते न्यारा।।"

पहला राम रामचंद्र जी महाराज हिंदुस्तान के राजा हुए हैं जो त्रेता युग में आए और अपना काम करके चले गए। दूसरा राम मन है जो अभी यहां है अभी मुंबई चला गया कोलकाता चला गया यह कभी बैठता ही नहीं यह बड़ा चंचल है। तीसरा राम ब्रह्म है जो सारी सृष्टि को पालता है। चौथा राम सतनाम हैं जो खंडों ब्रह्मांडों को बनाता है। जो सभी में रमा हुआ है । वह संतों का राम है। जिस तरह राम चंद्र जी ने राक्षसों को मारा था इसी तरह जो संतों का राम है वह काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार रूपी असुरों यानी राक्षसों को मारता है। मतलब कि वह काल की सारी असुरी शक्तियों यानी नेगेटिव पावर को मारता है। राम लफ्ज़ नहीं बल्कि जो ताकत जर्रे-जर्रे में मौजूद है उसे राम कहते हैं। किसी देश किसी कौम किसी मजहब का कोई भी आदमी हो स्त्री हो या पुरुष वह राम वह शब्द वह नाम वह प्यारी से प्यारी धुन सबके अंदर है।



*प्रकृति, विकृति और संस्कृति*



*एक प्रसिद्ध कहावत है कि अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खा लेना विकृति, तथा अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। इस संबंध में एक पुराना प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे।*

युधिष्ठिर ने एक बार राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ के बाद दूर-दूर से आये विद्वानों को भरपूर दान देकर सम्मान सहित विदा किया गया। सब लोग यज्ञ की सफलता से बहुत प्रसन्न थे। 

*एक दिन सभी परिवारजन बैठे थे कि एक नेवला वहाँ आया। उसे देखकर सब आश्चनर्यचकित रह गये। उसके शरीर का आधा हिस्सा सुनहरा था, जबकि शेष हिस्सा सामान्य नेवले जैसा था। वह नेवला अचानक मनुष्यों जैसी भाषा में बोलने लगा।*

नेवला बोला - *महाराज युधिष्ठिर, यह ठीक है कि आपने यज्ञ में बहुत दान दिया है। यज्ञ भी समुचित विधि-विधान से हुआ है। आपको बहुत पुण्य और यश भी मिला है। फिर भी आपके यज्ञ में वह बात नहीं है, जो उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ में थी।
सब लोग हैरान हो गये।* 

युधिष्ठिर बोले - *तुम किस यज्ञ की बात कर रहे हो। कृपया हमें उसके बारे में कुछ बात बताओ। तुम्हारे शरीर का आघा भाग सुनहरा और शेष सामान्य नेवले जैसा क्यों है ?* 

नेवला बोला - *महाराज, मैं जहाँ से आ रहा हूँ, वहाँ भयानक अकाल पड़ा है। वहाँ एक निर्धन अध्यापक अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। वे घर आये अतिथि का भगवान समझकर सत्कार करते थे। वर्षों से वे इस परम्परा को निभा रहे थे।*

लेकिन अकाल के कारण उन्हें प्राय: कई दिन तक भूखा रहना पड़ता था। एक दिन वह अध्यापक कहीं से थोड़ा आटा लाया। उसकी पुत्रवधू ने उससे पाँच रोटी बनायीं। एक रोटी भगवान को अर्पण कर उन्होंने एक-एक रोटी आपस में बाँट ली। वे खाना प्रारम्भ कर ही रहे थे कि अचानक द्वार पर एक भिक्षुक दिखायी दिया। 

*उसके शरीर को देखकर ही लग रहा था कि कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है।*

अध्यापक ने उसका सत्कार किया और अपनी रोटी उसे दे दी। पर उसकी भूख शांत नहीं हुई। अब अध्यापक की पत्नी ने अपने हिस्से की रोटी भी उसकी थाली में डाल दी। इसी प्रकार क्रमश: पुत्र और फिर पुत्रवघू ने भी अपनी रोटी उन अतिथि महोदय को दे दी। चारों रोटी खाकर वह तृप्त हो गया और आशीर्वाद देकर चला गया।

नेवला बोला - *महाराज, उस भिक्षुक के जाने के बाद मैं वहाँ आया, तो उस धरती पर गिरे कुछ अन्नकण मेरे शरीर से छू गये। बस उसी समय मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। तब से मैं देश-विदेश में भटक रहा हूँ। जहाँ भी कोई बड़ा धार्मिक कार्यक्रम होता है, वहाँ जाता हूँ।* 

आपके यज्ञ की भी मैंने बहुत प्रशंसा सुनी थी; पर यहाँ भी मेरा शेष शरीर सुनहरा नहीं हुआ। इसका अर्थ साफ है कि आपके इस यज्ञ का महत्त्व उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ से कम है।

*यह कहानी हमें प्रकृति, विकृति और संस्कृति का अंतर स्पष्ट करते हुए बताती है कि भारतीय संस्कृति ही अपनी रोटी दूसरे को खिला देने की प्रेरणा देती है

सफलता के 20 मँत्र


1.खुद की कमाई  से कम   खर्च हो ऐसी जिन्दगी   बनाओ..!
2. दिन  मेँ कम  से कम   3 लोगो की प्रशंसा करो..!
3. खुद की भुल स्वीकारने   मेँ कभी भी संकोच मत    करो..!
4. किसी  के सपनो पर  हँसो     मत..!
5. आपके पीछे खडे व्यक्ति    को भी कभी कभी आगे    जाने का मौका दो..!
6. रोज हो सके तो सुरज को   उगता हुए देखे..!
7. खुब जरुरी हो तभी कोई    चीज उधार लो..!
8. किसी के पास  से  कुछ   जानना हो तो विवेक  से   दो बार...पुछो..!
9. कर्ज और शत्रु को कभी    बडा मत होने दो..!
10. खुद पर और खुदा पर पुरा भरोसा   रखो..! 
11. प्रार्थना करना कभी  मत भुलो,प्रार्थना मेँ  अपार शक्ति होती है..!
12. अपने काम  से मतलब    रखो..!
13. समय सबसे ज्यादा   कीमती है, इसको फालतु   कामो  मेँ खर्च मत करो..
14. जो आपके पास है, उसी   मेँ खुश रहना सिखो..!
15. बुराई कभी भी किसी कि  भी मत करो,  क्योकिँ  बुराई नाव  मेँ  छेद समान  है,बुराई,छोटी भी हो बडी नाव तो   डुबो ही देती  है..!
16. हमेशा सकारात्मक सोच   रखो..!
17. हर व्यक्ति एक हुनर  लेकर  पैदा होता है बस   उस हुनर को दुनिया के   सामने लाओ..!
18. कोई काम छोटा नही    होता हर काम बडा होता   है जैसे कि सोचो जो  काम आप कर रहे हो
             अगर वह काम   आप नही करते हो तो    दुनिया पर क्या असर     होता..?
19. सफलता उनको ही   मिलती  है जो कुछ     करते  है
20. कुछ पाने के लिए कुछ   खोना नही बल्कि  कुछ  करना पडता है....!

गीता का कर्मयोग और आज का विश्व,



''तुझे पर्वतों में खोजा तो लिये पताका खड़ा था।

तुझे सागर में  खोजा तो मां के चरणों में पड़ा था।

सर्वत्र तेरे कमाल से विस्मित सा था मैं,

मुझे पता चल गया तू सचमुच सबसे बड़ा था।।''

ईश्वर को खोजने वाली दृष्टि होनी चाहिए-फिर सारी सृष्टि में वही दिखायी देगा। वह देहधारी नहीं है, और ना हो सकता है-पर जब उसे देखने की बात आ जाएगी तो कहीं उसके पैरों का विस्तार दिखायी देगा तो कहीं उसकी बाजुओं का विस्तार दिखायी देगा। कहीं वह हमें माता की भांति दुलार रहा होगा तो कहीं पिता की भांति अपने वात्सल्य की वर्षा कर रहा होगा और कहीं मित्र की भांति हमसे बड़े प्रेम से वात्र्तालाप कर रहा होगा। तब पता चलेगा कि वह कितना विराट है? उसके इस विराट स्वरूप को ही गीताकार ने गीता के ग्यारहवें अध्याय का विषय बनाया है। इसमें अर्जुन की जिज्ञासा जागृत हो गयी है। अब वह ईश्वर की विभूतियों में उसे खोजने की इच्छा से आगे बढ़ गया है। वह चाहता है कि इधर-उधर भागूं-दौडूं और उसकी विभूतियों को खोजता फिरूं, इससे तो बढिय़ा यह होगा कि वह परमात्मा साक्षात ही देखा जाए?


श्रीकृष्ण जी अपने शिष्य के भीतर ऐसी ही आग सुलगा देना चाहते थे और अब उनको इसमें सफलता मिल गयी। उनका शिष्य अर्जुन ग्यारहवें अध्याय में बोल पड़ा-'दृष्टुमिच्छामि ते रूपमं'-अर्थात अभी तक जो कुछ आपने दिखाया या समझाया यह तो बहुत छोटी बात हुई-मेरा काम तेरे इस रूप को देखने से नहीं चलने वाला, मुझे तो तेरे साक्षात दर्शन चाहिए। ईश्वर का विराट रूप मैं देखना चाहता हूं। अब मन को चैन तभी मिलेगा जब उसके विराट स्वरूप के दर्शन होंगे। मैं चाहता हूं कि मेरे सामने वह खड़ा हो, मैं उसे देखूं कि कैसा है वह?

श्रीकृष्णजी भी अर्जुन को इसी पराकाष्ठा पर ले आना चाहते थे। बात भी तभी बनती है-जब दोनों ओर चाह की आग लगी हो। ऐसा नहीं हो सकता कि गुरू तो चाहे कि मेरे शिष्य को मैं ये ज्ञान दे दूं और 'वह' ज्ञान दे दूं-पर शिष्य गुरू से पिण्ड छुड़ाना चाहे या शिष्य तो 'और-और' की रट लगा रहा हो और गुरू 'बस करो-बस करो' -कहकर हाथ उठा रहा हो।

यहां जिस गुरू-शिष्य का संवाद चल रहा है वह कोई साधारण गुरू-शिष्य नहीं हैं, वे दोनों ही असाधारण हैं। अत: शिष्य की किसी भी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए गुरू प्रयोग करके दिखाने को भी तैयार है। 'महाभारत' का युद्घ संसार का अकेला ऐसा युद्घ है जहां युद्घ से पहले और युद्घ के ही मैदान में एक गुरू अपने उस शिष्य को बड़ी प्रयोगशाला में लेकर चल देता है-जिसे अभी बीस मिनट बाद ही युद्घ करना है। 'युद्घ' और 'बुद्घ' (बुद्घिवाद) का अद्भुत संगम हमें कुरूक्षेत्र के मैदान में दिखायी देने लगा है। आज के विश्व के लिए तो ऐसा 'युद्घवाद' और 'बुद्घिवाद' कल्पनातीत हैं-वह सोच भी नहीं सकता कि युद्घ के बादलों के नीचे खड़े होकर भी विवेक और वैराग्य की बातें की जा सकती हैं?

इस अध्याय की शुरूआत ही अर्जुन के इस वाक्य से होती है कि अब मेरा मोह दूर हो गया है। मैंने बड़े ध्यान से आपकी बातों को सुना है। इन सब बातों को सुनने के पश्चात मैं चाहता हूं कि आपका साक्षात दर्शन हो तो अच्छा है, अर्थात ईश्वर के उस विराट स्वरूप का दर्शन कराइये जिसकी अभी तक आपने मुझे विभूतियों के नाम पर हल्की सी झलक दिखायी है। मैं चाहूंगा कि तेरा वह अव्यय अविनाशी रूप मैं देखूं जो इन सभी विभूतियों के लिए जिम्मेदार है।

तेरे अविनाशी स्वरूप को देखन चाहें नैन।

विराट पुरूष को देखकर मिलेगा दिल को चैन।।

अर्जुन की जागी हुई इस जिज्ञासा के गरम लोहे पर श्रीकृष्णजी ने भी तुरन्त ही चोट मारना उचित समझा। अत: वह कहने लगे-

नाना रूप धार के रहते हैं भगवान।

बहुरूपिया है वह कुछ ऐसा ऐसा जान।।

अर्जुन मेरे नाना रूप हैं, नाना आकृति हैं, कितने ही रूपों में होने के कारण ईश्वर 'बहरूपिया' है। उसके दिव्य 'बहुरूपिये' स्वरूप को दिव्यार्थों में ही समझने की आवश्यकता है।

हे भारत! आदित्यों, वसुओं, रूद्रों-दोनों अश्विनी-कुमारों और मरूतों को देख और अदृष्टपूर्व आश्चर्यों को देख-ऐसा आश्चर्य जो पहले कभी देखे ही नहीं गये।

तू यहां मेरे देह में सारे जगत को एक जगह सिमटा हुआ देख, जो कुछ भी तू देखना चाहता है उसे ही देख।

पर ध्यान रखना कि तू मुझे अपनी इन चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकेगा, मैं तुझे दिव्य चक्षु=ज्ञान चक्षु=दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं, क्योंकि मेरे दर्शन दिव्य दृष्टि से ही होने संभव है।

अलौकिक को लौकिक से, अदृश्य को दृश्य से और दिव्य को किसी भौतिक से नहीं देखा जा सकता। जितना बड़ा शिकार हो, वैसे ही हथियार लेकर चलने की आवश्यकता है। जब साधक अपनी साधना की गहराई में पहुंचने लगता है और उसका आसन दृढ़ से दृढ़तर होता जाता है तो ये चर्मचक्षु अपने आप ही बंद होने लगते हैं। इन्हें अपनी शक्ति और सीमा का पता चल जाता है। अत: ये साधक से स्वयं ही कहने लगते हैं कि अब हमारा काम नहीं, अब यहां से आगे तू किसी और का सहारा पकड़। जैसे-जैसे हमारे चर्मचक्षु बंद होते जाते हैं, वैसे-वैसे ही हमारे दिव्य चक्षु खुलने लगते हैं। आश्चर्य की बात ये है कि हम कब चर्म, चक्षुओं से दिव्य- चक्षु या दिव्य-दृष्टि को प्राप्त कर लेते हैं-यह हमें पता ही नहीं चलता।

महाभारत के युद्घ में ऐसा नहीं था कि श्रीकृष्ण जी ने अपने पिटारे में से नये चश्मे निकाले और अर्जुन को लगाकर उससे बोल दिया कि अब तू मेरा तमाशा इन चश्मों से देख। इसके स्थान पर उन्होंने संध्याप्रेमी और भगवद्प्रेमी अर्जुन को यही बताया कि अर्जुन उसके विराट स्वरूप को देखने के लिए तुझे अपने उन्हीं दिव्यचक्षुओं का प्रयोग करना पड़ेगा, जिन्हें हम भगवद्भजन के समय लगाने के अभ्यासी हैं। 'मैं तुझे दिव्य दृष्टि देता हूं'-का अभिप्राय यही है कि मैं तुझे उसी दिव्य दृष्टि का स्मरण कराता हूं, तू उसी को धारण कर और परमात्मा के विराट स्वरूप के दर्शन कर। डा. राधाकृष्णनजी ने भी दिव्य दृष्टि का अर्थ 'एक आध्यात्मिक अनुभूति' ही किया है। स्वामी चिन्मयानन्द जी ने दिव्य दृष्टि का अर्थ 'बौद्घिक ज्ञान' से किया है। वह कहते हैं कि रसायन शास्त्र में कभी कहा जाता था कि संसार के अनन्त पदार्थ प्रयोगशाला में जाकर सिर्फ 92 तत्व रह जाते हैं। किसी समय हमारे वैज्ञानिक लोग इन 92 तत्वों में ही संसार के अनन्त तत्वों के दर्शन कर लेते थे, आज के अणु युग में कहा जाता है कि इलेक्ट्रान, प्रोटान तथा न्यूट्रोन-इन तीन 'ट्रोनों' में विश्व के दर्शन हो जाते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को 'एक ब्रह्मतत्व' में विश्व का दर्शन करा दिया

आलेख 
राकेश आर्य 






उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना

                
गो-स्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित श्री राम चरित मानस की एक चौपाई में भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं “ उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना ” अर्थात केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है बाकी इस जगत में सभी कुछ केवल स्वप्न के समान है।

जैसे अर्ध निद्रा की अवस्था में जब आप कोई स्वप्न देखते हैं तो, स्वप्न की स्थिति के अनुसार आप सुख या दुःख की अनुभूति करते हैं, किन्तु जैसे ही आप जाग्रत अवस्था में आते है तो वह सभी सुख और दुःख की अनुभूति समाप्त हो जाती है।

ठीक इसी प्रकार जब आप भगवान के नाम जाप के महत्व को समझ जाते हैं तो आप इस स्वप्न के संसार की वास्तविकता को समझ जाते हैं और आपका हृदय एक ऐसे आनंद की अनुभूति की और अग्रसर होता है जिसका कभी अंत नहीं हो सकता।

ऐसा नहीं है की इस जगत के क्षणिक होने के आभास, हमें अपने जीवन में नहीं होता है लेकिन हम वास्तविकता की और अपना ध्यान केन्द्रित ही नहीं करते हैं, हिन्दी के पृसिद्ध कवि जय शंकर प्रसाद ने कहा है “ श्मशान संसार का सबसे बड़ा मुक शिक्षक है।

श्मशान ही वह स्थल है जो हमें जीवन के सत्य से परिचित करवाता है किन्तु हम पुनः इसको नकार कर इस स्वप्नवत संसार में रम जाते हैं | जीवन में सबसे बड़ा भय मृत्यु का होता है यदि आप इस भय से मुक्त होना चाहते हैं तो अपने आप को पहचानने की आवश्यकता है।

जिस दिन यह विश्वास आपके हृदय में अपनी पैठ बना लेगा की “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” और इस अंश का वास्तविक लक्ष्य उस अंश से मिलना है तो आपके हृदय में बैठा मृत्यु का भय आपसे कोसो दूर होगा, जिस दिन आप प्रभु के उस मनोहारी रूप सौंदर्य में खो जाएंगे और निरंतर उसका स्मरण करते रहेंगे तो आप उस आनंद की ओर अग्रसर होगे जिसको सचिदानंद सत चित आनंद कहा गया है|

मेरे राघवेंद्र सरकार तो बिना कारण ही अपनी करुणा बरसाते ऐसे में यदि उनकी कृपा मिल जाए तो जीवन में कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाएगा।

गो-स्वामी तुलसी दास जी ने श्री रामचरित्र मानस में लिखा है की जो प्रभु राम का नाम दुर्भावना के साथ भी लेता है उसका भी प्रभु कल्याण करते हैं, अजामिल ने जीवन भर दुष्कर्म किए किन्तु यमदूतों को देख कर भय वश अपने पुत्र नारायण को पुकारने लगा तो केवल इतने पर ही प्रभु ने उसको अपना लोक प्रदान किया।

ऐसे करुणामय प्रभु का एक क्षण भी विस्मरण क्या उचित है ? सोचिए समय तीव्र गति के साथ भागा जा रहा है; ऐसा न हो की जब आपकी चेतना जाग्रत हो तब तक समय समाप्त हो चुका हो।

इसलिए “ उठत बैठत सोवत जागत जपो निरंतर नाम | हमारे निर्बल के बल राम” ||

* एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

भावार्थ:-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥


श्री हरी आपका दिन मंगलमय् करें - 🌅👏

*ज्योतिर्विद पं० शशिकान्त पाण्डेय (दैवज्ञ)*
9930421132

गीता का नौवां अध्याय और विश्व समाज अन्य देवोपासक और भक्तिमार्गी


पीछे हम कह रहे थे कि गीता बहुदेवतावाद की विरोधी है और एकेश्वरवाद की समर्थक है। यहां पुन: उसी बात को श्रीकृष्ण जी दोहरा रहे हैं, पर शब्द कुछ दूसरे हैं। जिन्हें सुनकर लगता है कि वे बहुदेवतावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। वह कह रहे हैं कि जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं-वे भी मेरी ही पूजा करते हैं। भले ही उनकी यह पूजा विधिपूर्वक नहीं होती है। सब प्रकार के यज्ञों का अर्थात पूजाओं का भोगने वाला तो मैं हूं। ये लोग मेरे सच्चे स्वरूप को नहीं पहचानते इसलिए गिर जाते हैं।


अत: जड़ को ईश्वर मानना गलत है। ऐसी पूजा गिराती है। ईश्वर के सच्चे परम चेतन स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। जितना ही हम ईश्वर के सच्चे परम चेतन स्वरूप को समझते जाते हैं उतना ही हमारा अज्ञानान्धकार मिटता जाता है। पर फिर भी ऐसी पतनोन्मुखी पूजा को जितना वेद संगत और श्रद्घापूर्वक किया जाता है वह तो ईश्वर का भोग बन ही जाता है।


जैसी जिसकी पूजा होती है-उसे वैसा ही इष्ट मिलता है। देवों की पूजा करने वाले देवों को पाते हैं, पितरों की पूजा करने वाले पितरों को पाते हैं, और भूतों की पूजा करने वाले भूतों को पाते हैं। (भूत का अभिप्राय जो बीत गया-उससे है, दूसरा अर्थ अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश-इन पंचमहाभूतों से भी है) पितर का अभिप्राय अपने माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों से है। इसमें प्राचीन संस्कृति का गुणगान भी सम्मिलित है।


अन्त में राजविद्या की प्राप्ति का साधन योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्ण समर्पण को बता रहे हैं। जो लोग भक्तिभाव से सब कुछ करते हैं-उनकी भेंट मैं ग्रहण कर लेता हूं। पूर्ण समर्पण के साथ जो अपने इष्ट को बुलाता है, पुकारता है, उसका इष्ट उसके वश में हो जाता है। वश में होने का अभिप्राय उसे अपना गुलाम बना लेना नहीं है, अपितु अपनी आत्मा को इतना पवित्र और परिष्कृत कर लेना है कि भक्त के शुद्घ अन्त:करण से वही प्रार्थना निकले जिसे ईश्वर स्वाभाविक रूप से मान ले।


श्रीकृष्णजी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने प्रत्येक कार्य को मुझे समर्पित करके करना चाहिए। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अन्त समय में अपने जीवन-व्यापार को समेटते समय भी यही कहा था कि-'प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण हो।' कहने का अभिप्राय है कि उन्होंने अपना नाशवान चोला भी प्रभु को ही समर्पित कर दिया था। भक्ति ऐसी ही होनी चाहिए-जिसमें सर्वस्व समर्पण का भाव निहित हो। ऐसा करते रहने से साधक अपने भगवान को पा जाता है। उस परमेश्वर को किसी से न तो राग है और न ही द्वेष है। वह सबके लिए समान है, एक सा है। जो उसे भजते हैं-उनके लिए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूं। दुराचारी से दुराचारी व्यक्ति भी जिस दिन से सत्संकल्प लेकर ईश्वर को भजन आरम्भ कर देता है-उस दिन से योगेश्वर श्रीकृष्ण उसे भी साधु ही मानते हैं। इसका अभिप्राय है कि सही रास्ते पर आने के लिए कोई घड़ी मुहूत्र्त दिखाने की आवश्यकता नहीं है। जब और जहां से हृदय परिवर्तन हो जाए प्रभु वहीं से हमें गले लगा लेते हैं। यही कारण है कि परमपिता परमेश्वर को लोग नितांत दयालु और कृपालु कहते हैं। कुछ लोग उसे अज्ञानवश भोला कहते हैं-यदि उसे भोला भी मान लिया जाए तो भी सचमुच वह इतना भोला है कि हमारी पवित्र भक्ति से तुरन्त हमारे वश में हो जाता है। उसकी पाठशाला में उसी क्षण प्रवेश मिल जाता है। संसार के विद्यालयों में ऐसा नहीं है। पर प्यारे प्रभु के यहां ऐसा है, क्योंकि संसार के विद्यालय आपके अपने यहां प्रवेश के लिए संदेश नहीं भेजते, पर प्यारा पिता को सुधरने के और सही रास्ते पर आने के संदेश सदा भेजता रहता है। जैसे आग कोयले में घुसकर उसके कालेपन को मिटा देती है, वैसे ही भक्त भगवानमय होकर अपने दुराचारी स्वभाव को त्याग देता है।

कोयले में घुसे आग तो मिट जाए काला रंग।

पवित्र दुराचारी भयो पा भगवन को संग।।

ऐसे व्यक्ति को चिरस्थायी शान्ति प्राप्त होती है। ऐसा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। भगवान ऐसे भक्त के भार को उठाकर चल देते हैं। वह चाहे किसी भी वंश में या कुल में उत्पन्न हुआ हो और चाहे वह स्त्री हो या वैश्य या शूद्र हो। ऐसे लोग जब अनन्य भाव से प्यारे प्रभु को भजने लगते हैं तो मोक्ष को प्राप्त करते हैं।


जो लोग शूद्र और स्त्रियों को वेद के पढऩे या भगवान की आराधना करने पर रोक लगाते हैं उन्हें गीता के इस अध्याय के इस प्रकरण को ध्यान से पढऩा चाहिए। उन्हें पता चल जाएगा कि गीताकार स्त्रियों एवं शूद्रों को सारे अधिकार देकर समतामूलक समाज की संरचना को ही बलवती कर रहा है। अत: जीवन के कल्याण की इच्छा करने वाले हर नरनारी को अनन्य भाव से परमपिता-परमात्मा की आराधना करनी चाहिए।


संसार के छोटे से छोटे पदार्थ को या चीज को द्वेषभाव से नहीं देखना चाहिए, अपितु उन सबमें सर्वव्यापक परमात्मा की सत्ता और कलाकारी के दर्शन करने चाहिएं। सर्वत्र उसका प्रकाश अनुभव करना चाहिए। इससे हर पदार्थ का मूल्य बढ़ेगा और उससे हमारा आत्मिक लगाव पैदा होगा। आत्मिक लगाव के वातावरण से संसार का परिवेश उत्तम बनेगा। गीता इसी भाव को संसार का संस्कार बना देना चाहती है।


डा. राधाकृष्णन जी कहते है-''अपने मन को मुझ में स्थिर कर, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा कर, मुझे प्रणाम कर-यह कथन व्यक्ति रूप कृष्ण का नहीं है, जिसके प्रति हमें अपने आपको समर्पित कर देना है-अपितु अजन्मा अनादि और नित्य ब्रह्म का है, जो कृष्ण के मुंह से बोल रहा है।'' इस पर सत्यव्रत सिद्घान्तालंकार जी कहते हैं कि हमारी सम्मति में डा. राधाकृष्णन का यह विचार अत्यन्त युक्तिसंगत है। इस विचार को सम्मुख रखकर गीता का अध्ययन करते हुए जहां भगवान ने कहा-ये शब्द आये हैं-उनका यही अर्थ समझना चाहिए कि श्रीकृष्ण ने भगवान के अभिप्राय को इस प्रकार प्रकट किया। ठीक उसी प्रकार जैसे महर्षि वेद व्यास ने अपनी बात को अपने नाम से न कहकर श्रीकृष्ण के नाम से कह दिया।''


योगेश्वर श्रीकृष्णजी को बार-बार भगवान कहने की परम्परा भी गीता के व्याख्याकारों और टीकाकारों ने अपना रखी है। भगवान का एक अर्थ परमैश्वर्यशाली भी है। श्रीकृष्णजी निश्चित रूप से ऐश्वर्यसम्पन्न थे। इस अर्थ में और इस सीमा तक उन्हें भगवान कहा जा सकता है। परन्तु संसार में लोग यौगिक अर्थ को न समझकर रूढिग़त अर्थ को शीघ्र पकडऩे का प्रयास करते हैं। जिससे श्रीकृष्णजी को भगवान समझने कहने वालों में उन्हें वह ब्रह्म समझ लिया जो इस जगत का कारण है। जबकि श्रीकृष्णजी गीता में कहीं पर भी ऐसा संकेत तक भी नहीं दे रहे हैं कि मैं वही ब्रह्म हूं जो इस चराचर जगत का कारण है। अत: श्रीकृष्णजी को इस अर्थ में भगवान कहना अनुचित होगा। गीता स्वयं हमारे मत की पुष्टि कर रही है।

लेखक 
राकेश कुमार आर्य